गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

जागरूक जनता

रुचिका का मामला 1993 में भी मीडिया ने लोगो के सामने में लाया था. पर इन 19 सालो में जनता काफी बदल गयी , आज जिसतरह से जनता जागरूक हो कर राठौर का विरोध कर रही है ,आने वाले दिनों में लगता है कि हम सही दिशा की और बढ़ रहे है.
2006 से जनता के व्यहवार में जबरदस्त बदलाव आया है , जेस्सिका लाल मडर केस के बाद लोगो ने जिस तरह इसका विरोध किया किसी ने नहीं सोचा था की न्यायपालिका को एक बार पुनर्विचार करना पड़ेगा अपने ही किसी निर्णय पर . जो भी हो जनता में बहुत ताकत होती है , अगर वो जग जाये तो .

नए साल की शुभ कामनाओ के साथ , फिर मिले गे ( आस्ते बोछोर आबार...)
आप की
माधवी श्री

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

पत्रकार से बेहतर दिल्ली सरकार के बस ड्राईवर

दिल्ली सरकार के बस ड्राईवरओ की शुरुआती तन्खावह पन्द्रह हज़ार रुपये होती है , फिर उसमे कुछ सेनिओर या बड़े वाहन से जुड़ा ALLOWANCE अगर मिला दिया जाये तो कुल मिला कर उनकी तन्खाव बीस हज़ार हो जाती है .
पर हमारे मीडिया में एक पढ़े - लिखे पत्रकार की शुरुआती तन्खावह क्या होगी ज्यादा से ज्यादा ५- १० -१५ हज़ार. इससे ज्यादा तो बिलकुल नहीं.
तो हुए न दिल्ली सरकार के बस ड्राईवर पत्रकार से बेहतर.
तो आगे से दिल्ली सरकार के बस ड्राईवर बनियो पर पत्रकार न बनियो.

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

टेनिस खिलाडी रुचिका गिरहोत्रा की दोस्त अनुराधा के नाम

हरियाणा पुलिस के पूर्व डी.जी.पी एस. पी. एस. राठोर को सजा मिलने के ठीक घंटे भर बाद जमानत मिलजाना हमारे न्याय- व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था की जो दयनीय तस्वीर पेश करती है उससे भविष्य के प्रति हमारा शंकालु होना स्वाभिविक है. .राठोर को टेनिस खिलाडी रुचिका गिरहोत्रा से १२ अगस्त १९९० में अश्लील हरकतों और आत्महत्या के लिये उकसाने के आरोप में ६ महीने की सजा हुई है. उस समय रुचिका गिरहोत्रा की उम्र केवल १४ साल थी.इंसाफ न मिलने से और घरवालो की लगातार परेशानी से परेशान होकर रुचिका गिरहोत्रा ने २९ दिसंबर १९९३ को मोत को गले लगा लिया था. ऊपर से यह दिखता है कि पीडिता को न्याय नहीं मिला , एक पुलिसवाले ने अपने रशूख का इस्तेमाल किया.
पर परत दर परत अगर इसे ध्यान से देखा जाये तो आप पाए गे कि अकेले राठोर के बस की बात नहीं थी रुचिका के परिवार के साथ गुंडागर्दी करके बच के निकाल जाने का. वो स्कूल क्या कम जिम्मेदार है जिसने रुचिका को निर्दोष जानते हुए भी उसे स्कूल से निकाल दिया ? उस स्कूल में पढनेवाले बच्चो के माता - पिता क्या कम दोषी है जिनोह ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई, जबकि मीडिया शुरू से रुचिका के साथ खड़ा था .अगर आज उनिह में से किसी अभिबवाक के बच्ची के साथ यह हुआ होता तो वे सारे समाज को कोसते .

अगर आम जनता और उसके स्कूल के साथी रुचिका को इंसाफ दिलवाने में जरा सी भी दिलचस्पी दिखलाते तो शायद यह केस इतना लम्बा नहीं खीचा होता. जब रुचिका की एक दोस्त का साहस आज राठोर को जेल हवा खिलवाने का परवान निकलवा सकता है तो ,उसके पूरे दोस्तों की मशकत कितना बड़ा परिणाम समाज के सामने रख जाती . राठोर जैसे लोग अपने -आप में अकेले कभी शक्तिशाली नहीं बन सकते, जब तक समाज चोर दरवाजे से इनके साथ न खड़ा हो . राठोर जैसे पुलिस वाले जानते है कि समाज के कई करता-धर्ता उनका मुखर विरोध कभी नहीं करेगे बल्कि चोर दरवाजे से उनसे अपने गलत कामो के लिए उल्टा और सहयोग लेने आयेगे .
दूसरा पहलू : राठोर जैसे लोगो को परिवारवालों का भी खूब सहयोग मिलजाता है जबकि रुचिका जैसे पीड़ित लोगो के परिवारवाले भी पूरे परिदृश्य से गायब होना या झुक जाना ज्यादा पसंद करते है .क्या राठोर की पत्नी और उसे जानने वालो ने उसका सामाजिक बहिष्कार किया ? उल्टा उनकी पत्नी कोर्ट रूम में उसके साथ खड़ी होकर उनके साथ होने का प्रमाण दे रही थी.क्या लोगो को राठोर को सामाजिक निमंत्रण सूची से बाहर निकला ? अगर न्याय के लिए यही हमारी प्रतिबधता है तो न्याय का यही हाल होगा और राठोड जैसे लोग तुरंत सजा के बाद जमानत पा कर हंसा करेगे . आरोपी को परिवार का सहयोग मिलने वाली बात सिर्फ राठोर के सन्दर्भ में ही नहीं और कई केस जैसे आर के शर्मा - शिवानी भटनागर , प्रियदर्शनी मट्टू, जेस्सिका लाल के केस में भी हम देखते है. धनञ्जय को फासी की सजा में उसकी पत्नी और उसका पूरा परिवार उसे निर्दोष साबित करने के लिए खड़ा था पर पीडिता /मृतिका के परिवार वालो का कुछ पता नहीं था .
आखिर में: इस पूरे परिदृश्य में महिला संगठनो का तो कुछ पता ही नहीं, उनके धरना- प्रदर्शन कहा गए ? और राष्ट्रीय महिला आयोग , राज्य महिला आयोग ? इनकी भूमिका तभी परदे पर आती है जब टीवी या मीडिया वाले इनको झझोरते है.
अंत में : बिना मीडिया की पैरवी के किसी को इंसाफ मिलना इस देश में इतना क्यों मुश्किल है?
माधवी श्री

संध्या और औरत होने की पीड़ा

बहुत अच्छा लिखा है संध्या ने या ये कहू कि महिला होने का कर्त्तव्य अदा किया है. बहुत पहले ये रिपोटिंग मैंने पढ़ी थी , जब मै कॉलेज में थी कोलकाता मै. यकीन मानिये वो रिपोर्टिंग आज भी मेरे दिमाग में उतनी ही ताजा है जितनी कि आज पढ़ कर. आप कह सकते है कि उस रिपोर्टिंग का HORROR आज भी मेरे दिमाग से नहीं गया है. मेरे ख्याल से किसी भी लड़की या स्त्री के दिमाग से नहीं जा सकता. ये रिपोर्टिंग उस समय KOLKATA 'S TELEGRAPH के WOMEN section में निकली थी . आज भी ये कहानी हर अख़बार में है छापी है वर्सो बाद . औरतो का दर्द सिर्फ खबर बन कर रह जाता है. जजों- वकीलों के लिए बहस का मुद्दा भर . सबूतों की तलाश में उसकी जिंदगी इंसाफ के लिए दम तोड़ देती है पर साबुत नहीं जुटा पाता है - न समाज न इंसाफ के पैरोकार . मजे की बात हैकि उनकी कहानी पिंकी जैसी अकेली महिला सामने लाती है , महिला संगठन का इसमें कोई रोल नहीं , वो तो कही बैठ कर" दान - चंदे " का मामला सुलझा रही होती है. वर्षो से औरत पर बलात्कार करना उसे काबू में या बदला लेने का माध्यम रहा है. इसलिए बलात्कारी को इतनी काम सजा नहीं दे कर छोड़ा जाना चाहिए. उसे एक हत्यारे से भी बड़ी सजा होनी चाहिए क्यों कि उसने जीते जी एक इन्सान की हत्या की है.
लिखना तो बहुत चाहती हूँ इस पर इसलिए नहीं कि ये मेरा पेशा है बल्कि मै सिद्दत से महसूस करती हूँ तभी लिख पाती हूँ . पर मै आज लिखने के बजाय आपको कुछ पढवाना चाहती हूँ. एक नयीलेखिका है , उसने भी बहुत सिद्दत से इस पर कुछ लिखा है. संध्या पेशे से विदेशी कंपनी में नौकरी करती है और किसी से प्रेम ( जो हर लड़की इस उम्र में करती है ....). आप उसके लिखे को जरूर पढ़े
http://jaanahaitaaroseaage.blogspot.com/

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

आज जहा महिलाये हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है वही उनपर दूसरी और लगातार जद्तियो- अत्याचार की खबरे भी लगातार आ रही है . २००९ में जहा आई ए एस की सर्विस में महिला ब्रिगेड ने अपना परचम लहराया है तो वही दूसरी और रास्ट्रीय महिला आयोग ,विभिन्न राज्यों की महिला आयोगों, महिला अपराध सेल के समक्ष महिलाओ के खिलाफ बढती जद्तियो के आकडे भारत में महिलाओ की स्थिति के दो पहलू उजागर करते है. एक और जहा महिलाओ के प्रति समाज ,माँ- बाप का रवैया बदला है वही समाज में पूरी तरह से अपेक्षित बदलाव नहीं आये है . इस कारण जिसतरह के कामो के लिए महिलाओ को चुना जा रहा है उससे समाज का जो जटिल चेहरा उभरता है वो यही कहता है कि महिलाओ को स्थान तो मिल रहे है पर निर्णय लेने वाले पदों के लिए नहीं .इसी कारण मिस मेरठ तो प्रियंका तो चुन ली जाति है पर अपने मनपसंद के काम के लिए घर से बहार निकल कर शोषण के अंत हीन दलदल में वो फस जाति है अंत में सम्पति के अधिकार के लिए बोखालाई प्रियंका के हटो माँ- बाप का खून हो जाता है . प्रियंका की कहानी तथाकथित आधुनिक महिलाओ के शोषण और हार की कहानी है और निक्कमी व्यवस्था ,दोहरे माप दंड के समाज की कहानी है. ये उन तामम महिला संगठनो और महिला आयोगों के निकामेपन की कहानी है जो उदित नारायण, मटुक नाथ या यू कहे हाई प्रोफाइल टीवी में प्रर्दशित केसों के लिए समय तो निकल लेती है पर जरूरतमंद लड़कियो को सब्र का पाठ पढ़ने के अलावा इनके पास कोई काम नहीं रहता.
पंचायती राज में भले ही महिलाओ को आरक्षण मिलगये हो ३३% तक और बिहार में तो ५०% आरक्षण दे दिए गए है ,पर महिला सरपंच का काम उनके पति -बेटा -पिता या घर का कोई पुरुष संभालता है ऐसी खबरे प्राय आती रहती है. ऐसा नहीं है कि यह समाचार सिर्फ पंचायत के दरवाजे से आते है राजनितिक, व्यावसायिक , पत्रकारिता, फिल्म हर तरह के पेशो से इस तरह कि सूचना आती रहती है. महिलाओ कि तरक्की के पीछे उसकी परवारिक पृष्ठ भूमि का होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. यही समाज का असली चेहरा है.
संसद में भी जो महिला आरक्षण की मांग पिछाले ११ वर्सो से टरकई जा रही है उसके पीछे भी पुरुष सांसदों की असुरक्षा की भावना काम कर रही है. वे सीट बढ़ने की बात मानने पर आरक्षण देने का इशारा तो कर रहे है पर जो सीटे अभी है उनमे से बटवारा नहीं चाहते. ये सिर्फ संसद की सच्चाई नहीं है वल्कि हमारे घरो की भी सच्चाई है. जहा हम अपनी बेटियो को अपने हिस्से से कुछ नहीं देना चाहते बल्कि अलग से कुछ देने पर विस्वास करते है. इसी कारण हम सहर्ष दहेज़ तो देना स्वीकार करते है पर सम्पति में उसका हक़ अभी तक अस्वीकार करते है.

दिल्ली का विकास

दिल्ली का विकास जिस तेजी के साथ हो रहा है उतनी ही तेजी के साथ इसकी समस्याए बढ़ती चली जा रही है. यहाँ अपने सुनहरे भविष्य की तलाश में हर कोई आता है , ये उनका हक है और दिल्ली को उनकी जरूरत भी है .पर बात यह है कि क्या सरकार दिल्ली या दिल्लिवासियो कि समस्यों को भाप प् रही है है पहले से . या ऐसा तो नहीं कि भाप कर भी नासमझ बनी हुई है. किसी भी सरकार की सफलता उसके नागरिको की समस्याओ को पहले से भाप कर उसके निपटारे में होता है. पर सरकार तो यहाँ जब समस्या सर पर आजाती है तब जा कर चेतती है. ज्यादातर समय तो सर पर आजाने पर भी नहीं चेताती. तीन बार दीली दरबार में अपनी जीत दर्ज करा चुकी शीला सरकार के दफ्तर में तो राम -राज्य चल रहा है. सभी उनके चेहते नौकरशाह . है किसी कि मजाल जो सरकार के खिलाफ कोई न्यूज़ देने कि जुर्रत कर सके?
कोमन वेअल्थ गेम कि तैयारी का आलम तो यह है कि अंतर -राष्ट्रीय स्तर पर से हमे डांट पड़ जाती है, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को गुहार लगाई जाती है कि वो आकर हस्तक्षेप करे . यह घटना विश्व समुदाय को क्या मेसेज भेजता है ? क्या हमारी अंतर -राष्ट्रीय स्तर कि साख को बट्टा नहीं लगता?
क्या दिल्ली इस अंतर -राष्ट्रीय स्तर के खेल के लिए पूरी तरह से तैयार हो रही है? सिर्फ कुछ खास - खास जगह के बस स्टैंड के पुराने मॉडल को हटा कर नए मॉडल के स्टील के बस स्टैंड लगा दिए या यू कहे खड़े कर दिए जा रहे है. इन नए चमकीले बस स्टैंड कि हालत यह है कि विकलांगो के लिए जो स्टैंड के साथ ढलान बनी है उससे कितनी बार दो पाव वाला आदमी भी फिसल कर गिर जाता है. गौर करने कि बात है कि विकलांग व्यक्ति उस बस स्टैंड कि ढलान तक कैसे पहुचे आसानी से ताकि वो बस पकड़ सके ? हमारे नौकरशाह जो विदेशो से मॉडल चुरा कर लाते है कभी इस बात पर गौर किया है कि ढलान के बाद जो फुटपाथ है वह किस लायक है कि जिसमे अच्छा - खासा आदमी भी ढंग से नहीं चल पता. विदेशो में एक सरल रेखा- सामान स्तर पर फुटपाथ और बस - स्टैंड बने होते है. हमारी दिल्ली की तरह नहीं. जिसे देख कर लगता है कि मानो रात को हनुमान जी ने आकर उस बस स्टैंड को गलती से वहा छोड़ दिया हो.
अ़ब दूसरी बात करे, सिर्फ दो -चार जगहों के बस स्टैंड सजा कर के दिल्ली का चेहरा चमकाने के बजाय पूरी दिल्ली के बारे में सोचा जाता जहाँ कही -कही तो समूचा बस स्टैंड ही नहीं है. पोश एरिया के पुराने बस स्टैंड को उखाड़ कर नए बस स्टैंड लगाने का जो खर्च आ रहा है दोनों मिला कर तो पुराने -पिछडे इलाके की दिल्ली का भला किया जा सकता था. ये हालत देख कर ऐसा लग रहा है कि "जिसके सर पर तेल होता है ,लोग उसके सर पर और तेल डालते है " वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. पोश इलाको की सडको का भी बहुत बेहतर हाल नहीं है. साउथ एक्स, डिफेन्स कालोनी की सड़के आपको हमेशा खुदी- फुदी मिल जायेगी . जिसे देख कर नहीं लगता की आप किसी पोश इलाके में घूम रहे है. दिल्ली में साउथ एक्स के बी ब्लाक का यह हाल है कि वहा की नाली हमेशा बहती रहती है जिसे देख कर किसी को भी लगेगा कि ये कोई गाँव है क्या या दिल्ली का कोई समृद्ध इलाका ? न्यू फ्रेंडस कालोनी में तो पिछाले एक -डेढ़ महीने से जो हड़प्पा - महान्जोदारो कि खुदाई चल रही है उस को अंत होने का नाम ही नहीं है सिर्फ नाली व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ये हाल है तो बड़े विकास कर्यकरामो का क्या होगा?
डेढ़ महीने से वहा कि जनता एक दूसरे से लड़- भीड़ कर गाड़ी - रिक्शा - साइकिल चला रही है,पैदल वालो का क्या कहे बेचारे हमेशा ही रोते रह जाते है.

अब बात करे यहाँ के दिल्ली निवासियो की क्या वे आने वाले विदेशी मेहमानों का दिल जितने की तैयारी कर रहे है या उनेह लूटने की ? जैसा अनुभव ले कर हमारे विदेशी मेहमान यहाँ से जायेगे उस पर ही हमारी छवि और पर्यटन विभाग की छवी निर्भर और उसकी भविष्य में होनेवाली कारोबार निर्भर करती है. क्या हम अपने दिल्लिवासियो को कुछ मंत्र नहीं दे सकते जिससे कि वो इन विदेशी मेहमानों के दिल पर छा जाने का काम करे और दिल्ली के लिए पर्यटन के दरवाजे खोल दे . और कई लोगो को रोजगार भी उपलब्ध करवा सके. पर जिस तरह से स्थानीय दिल्ली निवासी बाहर से आये छात्रों से साथ बदसलूकी करते है किराये और सुबिधा के लिए उसे देख कर तो नहीं लगता कि हम विदेशी मेहमानों का दिल जीत सके गे और अपनी साख बना सके गे.
और अंत में दिल्ली पुलिस की भूमिका - क्या पुलिस इतने बड़े कार्यकर्म के लिए सबेदनशील तरीके से तैयार हो रही है. छोटे व्यापारियो की तो वो हर समय माँ - बहन एक करने में लगे रहते है. उनसे रिश्वत भी लेते है. ये मौका उन बेचारो के लिए भी कमाने का है सिवाय कि बड़ी मछलियो के क्या उनको सही से तरह से वे संभल सकेगे. आम जनता के साथ पुलिस का व्यहवार कैसा रहता है उस पर मै कोई टिपण्णी नहीं करना चाहती हु. पर विदेशो में पुलिस का रोल मददगार का होता है यहाँ एक हक्नेवाले गरेडिया का . क्या इस भूमिका में कुछ बदलाव लाया जा सके गा.
और एक बात जहा गुंड होगा मख्खिया तो आयेगी ही. विदेशियों को देख कर अगल बगल के राज्यों से चोर - उचक्कों -बदमाशो का भी खतरा बढ़ जाये गा. उससे पुलिस कैसे निपटने कि तैयारी कर रही है? क्या इन सभी संभावित राज्यों से पुलिस का तालमेल अच्छा है? इन सब बातो पर धयान दिए बिना तो दिल्ली कि छवी सुधरने से रही.

महिला पुलिस और समाज का नजरिया

समाज में महिला पुलिस को लेकर कई तरह की गलत फहमिया है जिस के कारण आज पुलिस का पेशा महिलाओ में उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना मॉडलिंग,फिल्म ,शिक्षा अन्य पेशे लोकप्रिय है. उच्च
पदों पर तो महिला पुलिस को इज्ज़त मिल जाती है समाज में पर कांस्टेबल के पदों पर उसे सम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता है. यह हाल सिर्फ समाज का नहीं है महिला कांस्टेबलओ को अपने अमले में भी दोहरे मापदंडो का सामना करना पड़ता है. ड्यूटी निभाने ,पोस्टिंग को लेकर उनके साथ भेद -भाव की खबरे आम है . कांस्टेबल पद पर कार्यरत महिलायों में इतना साहस और एक जुटता नहीं होती कि वे अपने बड़े अधिकारियो की शिकायत कर सके. न ही उनका कोई संगठन है कि वे अपनी बात एक जुट हो कर सामने ला सके. वैसे भी पुलिस में महिलाओ का प्रतिशत ३.२९% ही है . जो पुरुष पुलिस की तुलना में काफी कम है ,इसके कारण भी वे कमजोर पड़ जाती है.


विदेशो में यूरोपियन महिला पुलिस संगठन मौजूद है, अंतर राष्ट्रीय स्तर पर भी महिला पुलिस का एक संगठन मोजूद है. पर भारत में अभी तक ऐसा कोई संगठन नहीं बना है. वैसे पुलिस में महिलाओ का प्रतिशत देखते हुए इसकी उम्मीद भी कम लगती है. पर तमिलनाडू में महिला पुलिस का प्रतिशत काफी उत्साहवर्धक है(१०.३२%) . दिल्ली चौथे स्थान पर ५.०३% के साथ महिला पुलिस कर्मियो के साथ खडा है. बिहार में एक भी महिला थाने का न होना अपने आप में एक खबर है. पर बिहार की दबाग महिला आईपीएस अधिकारी शोभा अहोतकर भी हमेशा अपने कामो के लिए खबरों में जानी जाती रही है. ऐसा नहीं है कि पूरे विश्व में महिला पुलिस की संख्या उत्साह जनक है अमेरिका (११.२%),कनाडा (१६.५%),इगलैंड (१९.५%) दक्षिण अफ्रीका (१६.६७%) के आकडे भी काफी उत्साह वर्धक नहीं है, पर स्थिति भारत से काफी बेहतर है. अभी भारत में महिला पुलिस कर्मियो को बदलाव के लिए काफी मुखर होना पड़ेगा .
पुलिस में महिलाओ की उपस्थिति की वकालत करे वालो का मानना है कि इससे महिलाओ अपराधियों और पीडितो के प्रति संवेदनशीलता बढेगी . पर मीडिया में कई आने वाली खबरों में महिला पुलिस द्वारा महिला पीडितो के प्रति असम्बेदंशील व्यहवार से इस अवधारणा को अघात पहुचता है. पर इन खबरों से हमे महिलाओ की पुलिस में उपस्थिति पर एक तरफा विचार भी नहीं करलेना चाहिए. यकीनन आने वाले दिनों में महिलाओ की उपस्थिति से समाज और पुलिस में परिवर्तन अवश्यम्भावी है.

महिला पत्रकारों की कहानी

जब पत्रकारिता में पुरुषों का वर्चस्व था और जल्दी किसी महिला का इस पेशे में होना एक दुर्लभ बात मानी जाती थी तब से इस पेशे से जुडी नीरजा चौधुरी आज दिल्ली में स्थित महिला पत्रकारों के प्रेस क्लब की अध्यक्ष ही जिसमे 550 से अधिक केवल महिला पत्रकार सदस्य है. ३५ वर्षो से आधिक के अपने लम्बे सफ़र में नीरजा ने कई उतर -चढाव देखे है. अपने पुराने दिनों को याद करती हुई नीरजा कहती है कि ६० के दशक में जब मुंबई में वे "हिम्मत " से जुडी थी तब the statesman के तत्कालीन संपादक कुलदीप नैयेर ने एक समारोह में कहा था कि - हम महिलाओ को प्रेफेर नहीं करना चाहते क्यों कि प्रशिक्षित करने के बाद वे शादी करके चली जाती है . उनके लिए नौकरी वेटिंग रूम की तरह होता ही. ७० के दशक में यही तस्वीर ३६० का यू टर्न लेती है. ७० के दशक में the statesman के तत्कालीन संपादक सी आर ईरानी कहते है कि - हम महिलाओ को पत्रकारिता में प्रेफेर करते है क्यों कि वो सीरियस , समर्पित और भरोसेमंद होती है . नीरजा मानती है कि यह एक दशक का बहुत बड़ा क्रन्तिकारी बदलाव है . नीरजा के लम्बे पत्रकारिता के कैरीअर में खुद को एक पॉलिटिकल पत्रकार की तरह स्थापित करने के लिए उनोहने कभी देर रात पार्टी , क्लब , इधर-उधर बेबजह दौड़ने का सहारा नहीं लिया . अपने परिवार और काम के बीच में संतुलन स्थापित करने के लिए नीरजा बतलाती है की जब वो इंडियन एक्सप्रेस में थी तब सुबह की मीटिंग में रहने होने के बाद वे सीधे घर की और दौड़ती थी , तभी उनोहने गाड़ी भी खरीदी थी अपने काम में सामंजस्य स्थापित करने के लिए. जब उनके सहकर्मी ऑफिस के बाहर चाय-पानी पीते थे तब वे अपने बेटे के साथ क्वालिटी टाइम गुजर रही होती. इसके बाद वे फिर ऑफिस की और दौड़ती ,या अपने सोर्स की तरफ. नीरजा कभी अपनी स्टोरी के लिए एक सोर्स पर निर्भर नहीं रही है. वे सब से बात -चीत करना पसंद करती है. हंसमुख और मिलनसार स्वभाव की नीरजा युवा पत्रकारों के साथ भी उतनी ही गरम जोशी के साथ मिलती है जितना कि वे अपने वरिष्ट पत्रकार मित्रो और राजनेताओ के साथ मिलती है. ये नीरजा की ही पारखी नजर का कमाल है कि १९९५ में वो सोनिया गाँधी पर लिखती है -" AT THE MOMENT SHE IS MORE LIKELY TO POSITION HERSELF IN SUCH A WAY SO THAT SHE CAN BE THE POWER BEHIND THE THRONE ". ये उनोह ने एक दशक पूर्व तब लिखा था जब २००४ में सोनिया गाँधी ने अपने प्रधानमंत्री न बनाने की प्रसिद्ध घोषणा की थी .
नीरजा का नाम अगर पॉलिटिकल पत्रकारिता में आदर के साथ लिया जाता है तो शांता सरबजीत सिंह का नाम कला और संस्कृति पत्रकारिता में परिचय का मोहताज नहीं है . उनोह ने THE FIFTIETH MILESTONE; A FEMININE क्रितिकुए नामक पुस्तक लिखी जिसमे ५० महत्वपूर्ण महिलाओ के बारे में जानकारी दी गयी है. जो भारत के ५० स्वाधीनता वर्षगाठ के अवसर पर आई . इसके अलावा NANAK, THE GURU भी उनोह ने लिखी है. वे consultant for UNESCO and the World Culture Forum Alliance ( WCFA) जैसी अंतररास्ट्रीय संस्था की सलाहकार भी है. १९७२ से वेHindustan Times में नृत्य पर निरंतर लिख रही है और गुलाबी अखबार " The Economic टाईम्स" की स्थाई स्थाभ्कर है २५ वर्षो से ज्यादा (१९७०--२०००) . इसके अलावा देश - विदेश के अन्य पत्र- पत्रिकाओ में निरंतर उनके लेख छपते रहते है. उनोहने देव्दाशी परंपरा और लदाख की संस्कृति पर एक वृत्त चित्र भी बनाये है. वे कई रास्ट्रीय और अंतररास्ट्रीय स्तर की कमिटी में रही है और रास्ट्रीय फिल्म समारोह में जूरी के पड़ को भी सुशोभित किया है. इसके अलावा कैनंस और बर्लिन अंतररास्ट्रीय फिल्म समारोह में उनेह लगातार बुलाया जाता है भारतीय मीडिया में लेखन के लिए. शांता - नीरजा की पीढी में पत्रकारिता के क्षेत्र में कोमी कपूर ,उषा राय , कल्याणी शंकर का नाम उनके कामो के कारण लिया जाता है . ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली के पॉवर सर्कल का ऐसा कोई भी गॉसिप नहीं है जो कोमी कपूर और उनके पत्रकार पति को मालूम न हो. उषा राय जब टाईम्स ऑफ़ इंडिया में थी और जब वे पहली बार गर्भवती हुई तो उनोहने छुट्टी मांगी तब उनेह कहा गया - the rule books had to be consulted for TOI had no tradition of maternity leave. ऐसा कहा जाता है कि जब वरिष्ठ पत्रकार बच्ची काकरिया statesman में नौकरी के लिए गयी तो उनेह यह कह कार मना करदिया गया कि स्तातेस्मन में महिला टॉयलेट नहीं है. आज की महिला पत्रकारों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि नौकरी न मिलने कि यह भी वजह हो सकती है.
महिला पत्रकारों के लम्बे संघर्ष का नतीजा है कि आज पत्रकारिता का परिदृश्य बदल है. पर उपस्थिति बदली है स्थिति नहीं. दिल्ली में भास्कर की तेज तर्रार पॉलिटिकल पत्रकार स्मिता मिश्र जो अपने बीजेपी कवरेज के लिए जानी जाती है
उनोह ने जब दस साल पहले पत्रकारिता शुरू की थी जम्मू - कश्मीर जैसे सवेदनशील इलाके से तो महिला पत्रकारों को हार्ड बीट नहीं दिया जाता था केवल संस्कृति -सेमिनार तक उनेह सीमित रखा जाता था. जब स्मिता ने आर्मी,पुलिस और राजनीती जैसे मुद्दे पर लिखना शुरू किया तो उनेह ओउत्सिदर होने का दंश झेलना पड़ा . पर अपने काम से उनोह ने सब का मुंह बंद कर दिया. आर्मी के द्वारा बुलाई गयी "पत्रकारों की विजिट गाव में " से उसने युवा महिलाओ के आपरेशन की ऐसी स्टोरी अमर उजाला वालो के लिए ब्रेक की कि उसके सारे एडिशन में उसे लेलिया गया . इसके बाद तो आर्मी वाले उससे सतर्क रहने लगे और उसे काम में म़जा आने लगा.
]ज्योति मल्होत्रा का नाम विदेश मामलो कि जानकर के रूप में सम्मान के साथ लिया जाता है. २५ वर्ष के लम्बे सफ़र में ज्योति ने अपनी शुरुआत कोलकाता के telegraph अखबार से कि थी. उसके बाद वे इंडिया एक्सप्रेस, टाईम्स ऑफ़ इंडिया , मिंट आदि कई अखबारों से गुजरते हुए आज दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार है. ज्योति कि यादगार रिपोर्टिंग में २००१ कि मुशरर्फ का आगरा सम्मेलन रहा जब वे ९ माह की गर्भावस्था में थी. उस समय उनेह बड़ा रोमांच आया था रिपोर्टिंग करने में. ज्योति बताती है कि उनके सभी सहकर्मीयो ने उनके साथ भरपूर सहयोग किया था. वे ज्योति के सामने सिगरेट नहीं पीते थे, ज्योति ने खुद सिगरेट उस समय छोड़ रखी थी.
वर्तिका नंदा जो NDTV के दिनों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपने अपराध के सवेदनशील रिपोर्टिंग के लिए जानी जाती है का मानना है कि महिला पत्रकार को अपने महिला होने कि पहचान को बचाए रखते हुए पत्रकारिता करनी चाहिए. उनके यादगार रिपोर्टिंग में उत्तरी दिल्ली का एक दहेज़ हत्या का मामला है जिसमे मृतका के आखो में उसके ससुराल वालो ने सुई चुभो कर मारा था. वर्तिका बताती है कि उसने रिपोर्टिंग ख़तम करके उस मृतिका की साँस से कहा - आंटी जब आप की बेटी के साथ भी ऐसा हो तो मुझे जरूर बुलाना.

काफी लम्बी यात्रा करचुकी महिला पत्रकारों की बड़ी लम्बी लिस्ट है - जिसमे शुभा सिंह ,अन्नू आनंद , पारुल जो दिल्ली जनसत्ता में एडिशन भी संभालती है ,सेवंती नैनं जो अपना the hoot .org नामक मीडिया पर वेब साईट चलती है ,मनिका चोपडा, .हिनुस्तान अखबार की संपादक मृणाल पाण्डेय . दिल्ली के प्राय सभी रास्ट्रीय -अंतररास्ट्रीय अखबार - पत्ररिकाओ में महिला पत्रकारों ने अपनी महत्वपूर्ण जगह बना ली है. ये सब उनके लगातार कठिन परिश्रम की नतीजा है.

अभी हाल में २ नवम्बर को चंडीगढ़ प्रेस क्लब की ओर से आयोजित महिला पत्रकारों पर केद्रित सेमिनार में वरिष्ठ पत्रकार ननकी हंस ने कहा कि कमसे कम ४०% महिलाये जो मीडिया में है काफी लम्बे समय से अपने पदोन्नति का इन्तेजार कर रही है. आगे ननकी कहती है कि महिलाये शोषण को चुपचाप सहने की आदी हो गयी है .उनोह ने इस बातकी ओर सभी का ध्यान दिलवाया कि उत्तर - पूर्व राज्यों में केवल २५ महिला पत्रकार है. ननकी हंस ने कहा कि कमसे कम ४०% महिलाये जो मीडिया में है काफी लम्बे समय से अपने पदोन्नति का इन्तेजार कर रही है. आगे ननकी कहती है कि महिलाये शोषण को चुपचाप सहने की आदी हो गयी है .उनोह ने इस बातकी ओर सभी का ध्यान दिलवाया कि उत्तर - पूर्व राज्यों में केवल २५ महिला पत्रकार है.इस सम्मलेन में यह बात भी निकल कर आयी कि टॉप एडिटोरिअल पोसिशन में केवल ६% महिलाये है .

दिल्ली में भारतीय महिला पत्रकार कोर्प्स की स्थापना की कहानी भी महिला पत्रकारों की कहानी से कम दिलचस्प नहीं है. एक बार १८ महिला पत्रकारों ने प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रागन में बैठ कर निर्णय लिया की उनका भी अपनी एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहा सभी महिला पत्रकार एक दूसरे से मिल सके. आपस में चर्चा कर सके. वरिष्ठ पत्रकार सरोज नागी जो इस गोष्ठी में शामिल थी का कहना है कि यह क्लब पीसीआई की प्रतिछाया नहीं है बल्कि महिलाओ के लिए अपने एक स्थान की कल्पना थी. नीरजा कहती है कि उन १८ महिलाओ ने १००० रुपये अपने पास से निकले और एक फंड तैयार हो गया. फिर जगह के लिए जद्दो जहद की गयी . उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के हस्तक्षेप से लुटियन दिल्ली में संसद का एक खाली बंगला महिलाओ को अपने प्रेस क्लब के लिए मिला. पहली बैठक में सभी अपने घर से लाये हुए दरी - कुशन पर बैठी. उन १८ दूरदर्शी महिला पत्रकारों के नाम है मृणाल पांडे , उषा राय,कल्याणी शंकर ,रश्मि सक्सेना,

कोमी कपूर , हरमिंदर कौर, अनीता कात्याल , कुमकुम चढ्ढा ,मनिका चोपडा , राधा विस्वनाथ , नीरजा चौधरी, पामेला फिलिपोसे, ऋतंभरा शास्त्री , रश्मि सहगल, सुषमा रामचंद्रन ,सरोज नागी , शीला भट्ट और अमृता अभरम . आज ये १८ महिलाओ पत्रकारों की संख्या बढ़ कर ५०० से ऊपर हो गयी है . जिसके क्लब में मीरा कुमार, कृष्ण तीरथ , प्रणब मुकर्जी ,पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी तक आचुके है.प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह अपने प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत महिला पत्रकारों के दल को संबोधित कर शुरू करते है. ये महिला पत्रकारों की जमात की मह्तावता को रेखांकित करती है.

मंदी के दौर में महिलाये

आये हुए इस मंदी के दौर ने जहाँ सभी विश्व- व्यापार जगत को प्रभवित किया है वही छोटे - छोटे बसेरो और घरेलू महिलाओ को भी बुरी प्रभावित किया है.साहित्य और कला जगत से जुड़े लोग इस दौर को कैसे देखते है और इनकी व्याख्या कैसे करते है इससे हमे मंदी को अलग तरीके से समझने में मदद मिलती है . कवियत्री और संबेदनशील लेखिका अनामिका के शब्दों में मंदी के इस दौर में मीडिया द्वारा बनाई " सुपर माँ " की भूमिका में कैद "आम माँ " मंदी की मार में ज्यादा से ज्यादा सामान खरीदने में असक्षम हो रही है और घर में बच्चो के गुस्से का शिकार हो रही है . मीडिया ने आज "सुपर माँ " की छवी ऐसी बना दी है जिसका अर्थ सफल माँ होने का पर्याय वही माँ है जो सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सामान और घर के लिए साजो -सामान की वस्तु उपलब्ध करवा सके. इसमें भावना और संवेदना के लिए जगह बहुत कम पड़ गयी है. . पति, बेटा और परिवार के अन्य पुरुषों के लिए भी वो " बाक्सिंग की पंचिंग बैग " की तरह है जिनपर घर के पुरुष अपना गुस्सा ,क्षोभ, बाहर का गुस्सा निकलते है . इन हालातो में जब घरेलू महिलाये घर के बजट से जूझ रही है उसी समय घर के पुरुषों का अतिरिक्त दबाब भी उनेह झेलना पड़ जा रहा है क्योकि मंदी की मार झेल रहे पुरुष कारोबार की परेशानिया घर आ कर स्त्रियों पर ही निकलते है. अनामिका के इस कथन पर अगर गौर करे तो पाएगे कि मध्यवर्ग की महिलाये अपने जीवन स्तर और बजट की कमी के बीच लगातार संतुलन बनाने का युद्घ लड़ रही है.
वही लेखिका कमल कुमार मंदी से जूझती कारपोरेट जगत की महिलाओ की कशमकश बताते हुए कहती है कि मंदी के इस दौर में अच्छे से अच्छे पदों पर कार्यरत महिलाए या तो अपनी नौकरीयां गवा बैठी है, या उनकी सैलरी कम कर दी गयी है , या उनकी बोनस - पदौनात्ति रोक दिया गया है, ऐसे हालत में जिन्होंने क़र्ज़ पर घर ,मकान ,गाड़ी या घर की अन्य जरूरी वस्तुओ को लिया है उनके लिए बड़ी विकट समस्या हो गयी है बजट में संतुलन बैठना. जो महिलाये फॅमिली प्लानिंग के कारण माँ बनाने के लिए नौकरी छोड़ कर सिर्फ अपने पति की कमाई के भरोसे घर बैठ गयी है उनकी परेशानी के बारे में हम कल्पना भी नहीं कर सकते. कमल जी कहती है कि ये सब उनका आँखों देखा हाल है, कोई सुनी सुनाई बात नहीं. उनके परिचित एक परिवार है जिसमे पति को रात गए देर तक काम करना पड़ रहा है सिर्फ अपनी नौकरी बचाने के लिए. प्रमोशन रोक दिया गया है, ऐसी स्थिति में घर की गृहदी पर जो मानसिक दबाव पड़ रहा है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती. एक अनिश्चतता की तलवार घर की स्त्री पर लगातार टगी रहती है. ऐसे में परिवार एक नाहक मानसिक दवाव में लगातार जी रहा है. कमल जी के अनुसार विदेशो में अब मंदी के असर के कम हो जाने पर वहां कर्मचारियो की सैलरी बढा दी जा रही है, वही भारत में अभी तक सकारात्मक करवाई नहीं शुरू की गयी है इस कारण बहुत सारे गैजरूरी समस्याए अभी भी हमारे समाज और पारिवारिक जीवन का हिस्सा बने हुए है.
गाँधी गुजरात विद्यापीठ ,अहमदाबाद में गुजराती भाषा की विभाग प्रमुख श्रीमती उषा उपाध्याय गुजरात में डायमंड व्यवसाय से जुड़े कई गरीब मजदूरो और उनकी स्त्रीओ की व्यथा बताती है कि वहां मजदूर सपरिवार आत्महत्या कर रहा है जिस कारण महिला भी इस अस्मिक त्रादसी का शिकार सपरिवार हो रही है.वही सिक्के का दूसरा पहलू उजागर करते हुए बताती है कि गुजरात में कारपोरेट क्षेत्रो में महिला कर्मचारियों की कार्यनिष्ठा और कर्त्व्यप्रनता के कारण उन्हें नौकरियो से कम निकला जा रहा है.उनकी ईमानदारी के कारण वे पुरुषों की तुलना में कारपोरेट क्षेत्रो की पहली पसंद बनी हुई है . पर उषा जी की बातो का दूसरा निष्कर्ष यह भी निकलता है कि महिलाये अपना पारिवारिक जीवन दावं पर लगा कर अपनी नौकरी बचा रही है. धोखा और गडबडी कम करने के कारण वे कारपोरेट दुनिया कि पहली पसंद बनी हुई है.
"महिला लेखिकाओ पर क्या मंदी का असर पड़ा है " इस पर राजकमल प्रकाशन समूह के कर्ताधर्ता श्री अशोक महेश्वरी का कहना है कि चूकि हिंदी का पाठक वर्ग काफी समृद्ध परिवार से नहीं होकर आम जनता होती है इस कारण उनके व्यवसाय पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा है. चूकि "महिला लेखिका " जैसी अलग श्रेणी विभाजन वे नहीं करते, इस कारण वे इस बारे में कुछ अलग से नहीं कह सकते. अशोक जी ने कहा कि हिंदी आज उन्नति कर रही है , पहले "मॉल" वगेरा में हिंदी की किताबे नहीं रखी जाती थी पर आज हिंदी की किताबे अग्रेजी की किताबो के साथ प्रतियोगिता कर रही है. इस कारण इसमें गुणवत्ता की दृष्टी से काफी बदलाव आये है.

मंदी के इस दौर में दिल्ली में छोटा सा भी सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने में जब खून - पसीना एक हो जा रहा है तब उस समय अंतररास्ट्रीय स्तर का १२ दिवसीय ,२०० से भी अधिक कार्यक्रमों के साथ २३ स्थानों पर देशी-विदेशी कलाकारों के साथ एक साथ प्रस्तुत होना जिसमे सयुक्त राष्ट्रमंडल देशो के कलाकार भी शरीक कर रहे हो आसान काम नहीं है. पर इस असंभव काम को संभव कर दिखाया है प्रतिभा प्रह्लाद और अर्शिया सेठी की जोड़ी ने बिना किसी सिकन और गडबडी के . जब प्रतिभा जी से पूछा गया कि यह काम कैसे संभव हुआ इस मंदी के दौर में तो वे सहजता से कहती है कि इन तीन सालो में वे और अर्शिया लोगो तक शायद ये बात पहुचने में सफल हुए है कि वे भारत को विश्व के संस्कृतिक- कैलेंडर में स्थापित करना चाहते है. आगे प्रतिभा जी कहती है कि एक बार अगर कोई अपने मन से अहम् निकल कर काम के प्रति समर्पित हो जाये तो सरकार, नौकरशाह,उद्योगपति , सीइओ ,स्वयंसेवक,सहयोगी सभी आपके लिए काम करने के लिए तात्पर्य हो जायेगे.

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

कुछ अनसुनी कहानिया ".-( बिछड़े दोस्त)

गतांक से आगे :- बिछड़े दोस्त



चलिए अब आपको कहानी की मुख्य धारा पर ले चलते है . ये है रमा. रमा की उम्र ६१ वर्ष आईने के सामने खड़े होकर वह अपने उम्र की रेखाओ को कम थोडा कम करने के लिए एंटी एजींग क्रीम लगा रही है . खास बॉम्बे से मगवया है उसने १५०० रुपये खर्च कर के . फिर तरह - तरह की क्रीम , लोशन ,हेज्लिंग , पावडर रमा के ड्रेससिंगतबल पर बिखरे पड़े है जिसका इस्तेमाल करके वो अपने सौन्दर्य अभियान में अपने आप को थोडा सा संतुष्ट पा रही है . आब आप कहे गे इस उम्र में इतने सजने - सवारने की क्या जरूरत . कोई पुरुष तो उसे इस उम्र में " वैसे " देखेगा नहीं ----------, ऐसा मेरा नहीं , रमा का मानना है .

मै यहाँ अपनी कोई भी बात या विचार या सोच नहीं रखूगी . बस आप लोगो को इन महिलाओ के जीवन - प्रवाह से परिचित करवाउंगी. समय के साथ - साथ समाज के हर भाग में बदलाव आया है . सही या गलत - ये मै नहीं जानती.
हां , तो रमा आज कोलकाता आयी है . वैसे वो रहती मुंबई में है . आज उसका कारोबार हिमांचल में है - टिम्बर का . पर कभी - कभी कोलकाता आती रहती है. यहाँ उसका एक पूर्व प्रेमी रहता है ,उसी से मिलने वो चली आती है बीच- बीच में . अब आप कहेगे इतने रुपये उसके पास कहाँ से आये खर्चने के लिए ? क्या उसके घर में कोई उसे मना नहीं करता इन सब चीजो के लिए? तो मै आपकी जानकारी के लिए कह दू कि रमा का कोई नहीं है इस दुनिया में . परिवार के नाम पर वो खुद एक इकाई है , पहली और आखिरी . रमा ने अपनी युवावस्था में एक बहुत ही पैसे वाले बूढ़े आदमी के साथ शादी कर ली . उस आदमी ने अस्सी वर्ष की आयु में मरते वक्त अपनी तमाम जायदाद रमा के नाम कर दी और वयवसाय भी .

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

आज से आप लोगो को अपने लिखे उपन्यास की सैर कर करवाने ले जाती हूँ . उपन्यास का नाम है - " कुछ अनसुनी कहानिया ". ये तीन औरतो की कहानी है....
- बिछड़े दोस्त -

दोस्तों आपलोगों को एक कहानी सुनानी है . कहानी है तीन औरतो की . अब आप कहेगे औरत ही क्यों ? मर्दों की क्यों नहीं ? तो बात यह है कि
यह मेरा पहला उपन्यास है , मै खुद एक महिला हूँ . फिर समाज के हर वर्ग का व्यक्ति औरतो में दिलचस्पी ज्यादा लेते है . फिर चाहे वह आदमी हो , मीडिया हो , सरकार हो, विपक्ष हो , अन्दर के लोग हो या बाहर के लोग . खुद औरते भी आज -कल अपने आप में दिलचस्पी लेने लगी है. इसलिए आज- कल नित नए महिला विचार - विमर्श का आयोजन होता है और पुरुषो के साथ- साथ स्त्रीयां भी इसमें कंधे से कन्धा मिला कर भाग लेती है .
ऐसा है कि ये कहानी तीन प्रोढ़ावस्था को पार कर चुकी औरतो की है. ( उनेह न कहिये गा वर्ना वो खफा हो जाये गी वे तो अभी भी खुद को युवाओ से ज्यादा युवा समझती है ) समाज की नजरो में इन साठ वर्ष की औरतो के जीवन में कुछ खास नहीं बचा है , पर ये मानती है कि इनके जीवन में अभी ही तो स्थायित्व आया है जब वो बैठ कर अपने संघर्षमय जीवन का आनंद ले सकेगी .

क्रमश :

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

एक चेतावनी -सावधान

अगले सप्ताह से मै आप लोगो को एक उपन्यास पढ़वाने ले जा रही हु क्या करे ढूढ़- ढूढ़ कर प्रकाशक नहीं मिला तो ब्लॉग पर ही प्रकाशित करने का सोच लिया . अब आप लोग बर्दाश करने के लिए तैयार हो जाये.
धन्यवाद्

बेटी बनाना

बेटी बनाना एक ऐसा काम है जहाँ दायित्वा तो है पर दायित्व के साथ अधिकार नहीं है. बेटिया घर की इज्ज़त होती है , घर के अन्दर का सारा काम संभालती है, घर के बहार कैसे रहे, कैसे चले कि घरवालो की इज्ज़त बरक़रार रहे ये सब उसे सिखाया जाता है . घर पर आफत - विपत आने पर वे अपने गहने , नगदी, जमा - पूजी परिवार को सौप देती है. पर कभी प्रश्न नहीं कर सकती कि इन पैसो का क्या किया जाये गा? कभी परिवारवालों से नहीं मांग सकती कि आज उसे संपत्ति से कुछ चाहिए क्यों कि वो भी कुछ बनना चाहती है. ऐसा कर के वो परिवार की गरिमा को धक्का पहुचती है .
ऐसा सोच आज भी हमारे समाज में मौजूद है. उसके बुरे वक़्त में उसके दिए हुए गहने- रुपये उसे नहीं मिल पाते . ये एक कटु सच्चाई है आज भी हमारे समाज की . बेटे अगर सम्पति में हिस्सा मांगे तो समझ में आता है समाज के ठेकेदरो को पर बेटी अगर हिस्सा मागे तो नहीं समझ में आता है उनेह .तब उनेह लगता है कि कही कुछ गड़बड़ हो रहा है. ये तो समाज के पढ़े- लिखे सम्पन्न तबके की बात हो गयी.
आज भी समाज के अति गरीब तबके में माँ- बाप बेटियो को बेच देते है अपनी थोड़ी सी गरीबी थोड़े देर के लिए मिटने के लिए. उनेह मालूम है कि वे किस दल- दल में अपनी बेटी को धकेल रहे है पर न सरकार इस दिशा में कोई कड़े कदम उठती है न कोई स्वयं सेवी संगठन इस दिशा में कोई ठोस करवाई कर रही है. स्वयं सेवी संगठन सिर्फ सेमिनार करने तक खुद को व्यस्त रख रही है. अपने बच्चो को बेच देनेवालों का बचाव सरकार - मीडिया उनके गरीबी का हवाला देकर अपराध को हल्का करने की कोशिश करती है , उनेह गरीब माता पिता का ख्याल आता है, उस मासूम बच्चे का नहीं जो अब नरक से भी बदतर जीवन जीने के लिए धकेल दिया जा रहा है. इस अपराध के ज्यादातर शिकार लडकिया ही होती है. फिर यौन शोषण का लम्बा दौर शुरू हो जाता है उनके लिए . क्या ये मुद्दे घरेलु हिंसा कानून का हिस्सा नहीं बनने चाहिए ? ये बच्चिया तो यह भी नहीं जानती कि उनका क्या हक और मानवीय अधिकार है ? इन चीजो के लिए उनेह जागृत कौन करे गा? अभी तो हमारा पूरा मीडिया- समाज फैशन और स्टाइल सिखाने के पीछे लगा पड़ा है युवाओ और जनता को अधिकार के लिए जागृत करने की फुर्सत उसे कहा है ? फिर इस सब से निचले तबके और पिछड़े समाज की तो उसे और भी चिंता नहीं है. अगर चिंता जाता भी दी जाती है कागजो पर तो उन तक कौन पहुचायेगा जिन तक ये पहुचना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि स्थिति स्याह और बुरी ही है ,बहुत सी लडकियो के माता - पिता अपनी बेटियो के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करते है और उनके बेहतर भविष्य की कल्पना करते है .पर अफ़सोस यह है कि ऐसे लोगो की संख्या समाज में कम है . आज भी लड़की को इस लिए पढाया जाता है कि उसके लिए एक अच्छा लड़का मिलजाए किसी तरह से , इस लिए नहीं कि लड़की का विकास हो , वो एक व्यक्ति की तरह उभर कर आये. उसे पहचान मिले.आज भी स्त्री की स्थिति शून्य इकाई की तरह है जिसकी कीमत वही होती है जिस इकाई के साथ वो जुड़ जाती है. माता -पिता को यही लगता है कि शादी के बाद ये बोझ रुपी बेटी दामाद के पास चली जाये . ६० - ७० के दशक में जब लडको ने अनपढ़ बीबी के बजाय पढ़ी - लिखी लडकियो को तरहीज देनी शुरू कर दी तो घरवाले दर से बेटियो को पढ़ने लगे कि दामाद घर पर बेटी को वापस न पटक जाये. तब से आज तक लडकियो की स्थिति में कोई बड़ा उलट फेर नहीं हुआ है , हा वे पढ़ी -लिखी जरूर हुई है ,हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बढ़ी है पर स्थिति शायद वही है - आज भी उसे भोग्या समझा जाता है. व्यक्ति से वक्तित्व तक का उसका सफ़र बहुत ही कटीला है.
मेरे जीवन के एक दशक के पत्रकारिता के पेशेवराना अनुभव में कभी एक दिन भी ऐसा नहीं आया कि मैंने वरिष्ठ किसी वरिष्ठ किसी आईपीएस अधिकारीको समारोह बीच में छोड़ कर अपना चाय का जूठा ग्लास उठा कर डस्टबीन ढूढ कर डालते देखा हो . अगर बात यही तक होती तो सिर्फ आश्चर्य प्रगट कर के रह जाती ये लिखने नहीं बैठती. हुआ यू की हमारे महिला प्रेस क्लब का सालाना सांस्कृतिक कार्यक्रम था. मेरे परिचित एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी निमंतरण पर आये थे . मेहमान नवाजी का फ़र्ज़ निभाते हुए हमने उनसे चाय - काफी पूछी, तो उनोह ने चाय ली , हमने भी चाय ली. थोडी देर बाद हम दोनों का ग्लास खाली हो गया . आदतानुसार मैंने चाय का खाली ग्लास कुर्सी के किनारे रखदिया कि समारोह के बाद उठ कर डस्टबिन में दाल दूगी, तभी वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉ. आदित्य आर्य ने मुझसे मेरा खाली ग्लास मागा. एक पल के लिए मै असमंजस में थी कि क्या करू . मेरे सोचते न सोचते उनोहो ने ग्लास मेरे हाथ से ले लिया और अपना ग्लास भी उठा कर कुर्सी से उठ पड़े , जब तक बात मेरे समझ में आती मेरे आखो के सामने से वो आगे निकल चुके थे और भीड़ में गुम हो गए . एक मिनट बाद मुझे लगा ये क्या हुआ , मैंने तब किसी को उनेह ढूढने के लिए भेजा, जब मेरा भेजा हुआ बन्दा वापस आया तो उसने मुझसे कहा - मैडम वो सिर्फ आप का नहीं बल्कि रस्ते में पड़े हुए खाली गिलासों को भी उठा कर डस्ट बीन में डाल रहे थे. मुझे समझ में नहीं आया कि मै क्या करू. अब मुझे लगा कि मुझे उठ ही जाना चाहिए और उनको ढूढ़ कर चेयर पर वापस बिठाना चाहिए. जैसे मै उठी सामने से डॉ. आदित्य आर्य को मुस्कुराते हुए आते देखा ,मेरी हट -भत बुद्धि को उस समय कुछ समझ में नहीं आया . एक तो वे मुझसे उम्र में काफी बड़े,फिर मेरे मेहमान . एक तरफ मुझे अन्दर से बहुत शर्मिंदगी मससूस हुई तो दूसरी तरफ उनके व्यक्तित्व के गौरवशाली मानवी पहलू से परिचित होने का अवसर भी मिला .
पूरे कार्यक्रम का आनंद ले कर जब वे जाने लगे तो मैंने गिलास एपिसोड के लिए उनसे मेरे तरफ से माफ़ी मांगी, तो उनोह ने कहा - आप तो छोटी बहन की तरह है. इसमें इतना क्या सोचा? इस बार फिर मै लाजवाव रह गयी. डॉ. आदित्य आर्य के बारे में मैंने उनके बैच मेट से काफी सुन रखा था कि वो बहुत धार्मिक और अध्यात्मिक किस्म के व्यक्ति है पर इतने मानवीय गुणों से भरे होगे ये नहीं पता था.
पर पूरे घटना क्रम से यह न समझ ले कि डॉ. आदित्य आर्य के अन्दर का पुलिस ढीला- ढाला है. जब मै उनेह वडाली बंधुओ से मिलवाने ले गयी तो फोटो खिचवाते वक़्त उनोहो ने सीधे तन कर खड़े होते हुए अपने कोटे का बटन लगते हुए कहा एक पुलिस अफसर को पुलिस अफसर दिखना भी चाहिए.
काश हमारे वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी इतने मानवीय सम्बेदाना से भर जाये तो समाज में बहुत सारी समस्याए खुद-बा -खुद ख़तम हो जाये. उनको मिल कर मुझे दिल्ली पुलिस के एक आईपीएस अधिकारी के साथ का एक अनुभव याद हो आया , घटना यह थी कि मुझे एक आवेदन उनको जमा करना था , आवेदन पढ़ कर उनोह ने कहा कि इस पर आप पुनः साइन कर के अपना पता लिख दे. मेरे पास लाल रंगा की स्याही वाली पेन थी , सामने उनके पेनो का भरा स्टैंड देखकर मैंने उनसे कहा कि क्या मै काला या नीला पेन ले लू. मेरा प्रश्न सुनकर उनोह ने मुझे इस तरह देखा मानो कितना बड़ा जुर्म कर दिया हो मैंने. उसी दृष्टि से देखते हुए उनोह ने कहा - आपके पास जो पेन है उसी से साइन करदे . पहली बार मुझे लगा कि अछूतों को कैसा लगता होगा सबरनो के बीच में .

सोमवार, 30 नवंबर 2009

वो लड़का

वो लड़का , जिसकी अब सगाई हो चुकी है
वो पूरी कोशिश करता है कि
अपनी होने वाली बीबी के सामने वो
खुद को साबित करसके कि
वो सिर्फ उसका है.
जबकि ,वो लड़का अच्छी तरह से जनता है कि
वो अपनी बीबी का तो क्या
वो खुद का भी नहीं है.
वो अच्छी तरह जनता है कि
वक्त आने पर अपने फायदे के लिए
वो खुद भी धोखा दे सकता है.

वो लड़का पूरी कोशिश करता है कि
अपनी शादी में वो उन लडकियो को न बुलाये
जिनके साथ वो घूमा - फिर करता था.
क्यों कि बाहर घुमने वाली लडकिया
भांड हुआ करती है
जिसमे चाय पी कर फेक दिया जाता है
बोन - चाइना की कप प्लेट नहीं
जिसमे चाय पी कर वापस उसे धो कर
शो केस में सजा कर रख दिया जाये
दूबारा इस्तेमाल के लिए.

माधवी श्री

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

विनीता काम्टे २६/११ के शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अशोक काम्टे कि पत्नी है . उनोह ने अभी एक पुस्तक लिखी है "To The Last Bullet",इस में उनोह ने उन कारणों की पड़ताल करने की कोशिश की है जिन कारणों से उनके पति और अन्य पुलिस अधिकारियो की मृत्यु हुई . उनका यह प्रयास न्याय पाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है ,एक महिला होकर उनोहने चुपचाप घर में बैठ कर नियति को स्वीकार करने की बजाय लड़ना बेहतर समझा . मेरी यह पोस्ट उनके जज्बे को सलाम है, उनकी जुझारू प्रवृति को सलाम है जिस में सच्चाई की तह तक जाने की ईमानदार कोशिश है.
उनके इस प्रयास से शायद पुलिस के अन्दर की खामियो को बहार लाने में मदद मिलेगी. एक बात और , अगर यही काम किसी पत्रकार ने किया होता तो और भी अच्छा लगता .

बुधवार, 25 नवंबर 2009

बिहारी और मराठी -बीच में देश का संविधान

महाराष्ट्र की विधान सभा में जो हुआ उसके लिए केवल राज ठाकरे एंड कंपनी को दोषी ठहराना काफी नहीं है. राजनितिक स्तर पर कांग्रेस , बीजेपी , एनसीपी की चुप्पी देश की एकता के लिए घातक सिद्ध हो रही है .किसी भी भाषा को नीचा दिखा कर किसी भी भाषा को ऊपर उठाया नहीं जा सकता है. हिन्दी को नीचे गिरा कर मराठी भाषा को स्थापित नहीं किया जासकता , न ही वो आम जनता के बीच कभी मान्य होगी .कोई भी भाषा जनता अपनी जानकारी बढ़ने के लिए ,या भाषा प्रेम या उस मिटटी में रहते -रहते जाने- अनजाने सीख जाती है. उसके लिए किसी तरह का अतिरिक्त दवाव की जरूरत नहीं होती. जब दबाब की जरूरत हो तो समझ ले आपसी प्रेम में दरार है या जरूरत की कमी है या कोई पक्ष हीनता बोध का शिकार है. जबरदस्ती तो आप किसी बच्चे को भी आज के ज़माने में कुछ सिखाने पर मजबूर नहीं कर सकते .
राज ठाकरे एंड कंपनी का इस तरह का बर्ताव क्या मराठी भाषा और मराठियो के लिए परेशानी का सबब नहीं बन जायेगा आनेवाले दिनों में ? आज की दुनिया में जब विश्व में हर जगह हर प्रदेश भाषा के लोग मिल जाते है ऐसी स्थिति में अगर महाराष्ट्र के बहार रह रहे मराठियो के साथ अगर दुर्वह्वार होता ही तो क्या राज ठाकरे एंड कंपनी उनेह बचाने आएगी. जो पढ़े -लिखे मराठी चुप रह कर राज ठाकरे एंड कंपनी को अपना समर्थन दे रहे है क्या वो घर से बहार निकल कर अपना मुकाम हासिल करने जायेगे तो क्या उनेह अगर इस तरह के बर्ताव का सामना करना पड़ा तो उनेह कैसा लगेगा?
अगर राज ठाकरे एंड कंपनी को मराठी भाषा और मराठी मानुष की इतनी चिंता है तो मराठी भाषा के उत्थान के लिए उनोह ने क्या योजना चलाई है ? उनके विकाश के लिए क्या योजनाये बनाई है सिवाय के उत्तर भारतियो को पीटने के. अगर bihari प्रतियोगिता परीक्षा दे कर नौकरी प्राप्त करता है तो उनेह मराठियो को भी मेहनत के लिए प्रेरित करना चाहिए और अगर वे प्रतियोगिता परीक्षा पास कर के नौकरी में आते है तो शिकायत तो होनी नहीं चाहिए.
सिर्फ अगर कोई वह पैदा हुआ हो इस कारण से वहां की चीजो पर अपना अधिकार जाताना चाहता है तो उसे अपने आपको उस स्थान के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए न कि कोई और आकर मेहनत करे और उस जगह का विकास करे और जब फल प्राप्त करने का समय ए तो भूमि पुत्र जग गए.
और अंत में बिहार - यूपी के नेताओ के लिए कई दिनों से यह खतरे की घंटी बज रही है कि वे अपने प्रदेश में विकास के कार्यक्रम को तेजी से चलाये और साथ ही साथ सामाजिक विकास, परिवर्तन के भी बारे में सोचे, बिना उसके कोई भी विकास पूरी तरह से सफल नहीं होगा. विदेशो - देश में बसे कईयुवा bihari ऑरकुट के माध्यम से बिहार में बदलाव के बारे में सोच रहे है , बिहार सरकार को चाहिए कि वे उनेह विकास के कार्यक्रम से जोड़े और प्रदेश को इसका पूरा लाभ पहुचाये.

POLICE & NEW MEDIA

बदलते समय के साथ नई युवा पीढी भी बदल रही है . समाज भी बदल रहा है और समाज के हर हिस्से को छुनेवाला पुलिस विभाग . ऑरकुट और फेसबुक जैसे सामाजिक साईट पर कई पुलिस वाले दिखने लगे है अपने विचारो और तस्वीरो के साथ. कुछ ने तो इसे अपने जीवन में आरहे बदलाव का माध्यम बनाया है ,कुछ अपनी ट्रेनिंग में आ रहे पलो को दोस्तों -जनता के साथ बटना चाहते है. इसमें नवनीत सिकेरा का ऑरकुट प्रोफाइल बहुत हद तक सामाजिक और थोड़े उनके निजी पलो से आम जनता को अवगत करवाता है. एनकाउंटर स्पेसिअलिस्ट नवनीत ने तो ब्लॉग की दुनिया में भी कदम रख दिया है . यह अपने कामो को जनता के बीच में ले जाने का एक बेहतर माध्यम है इन अधिकारियो के लिए जो प्राय राजनेताओ की तरह आम जनता के दरबार में नहीं जाते . पर सभी नवनीत की तरह परिपक्व अधिकारी नहीं है. कुछ नए पुलिस अफसरों का प्रोफाइल पढ़ कर तो लगेगा ही नहीं कि किसी आईपीएस श्रेणी के अधिकारी का प्रोफाइल आप पढ़ रहे है , विशेष करके जब वे पब्लिकली ये दावा करे कि वे दोस्ती, नेट्वर्किंग के साथ- साथ महिलाओ के साथ डेटिंग के लिए ऑरकुट पर है और उनकी पसंदीदा फिल्मे कुछ संजीदा फिल्मो के साथ कुछ इस प्रकार से है -अँधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, जंगल में मंगल, कम्सिनो का कातिल, हुस्न के लुटेरे, प्यासे शैतान, गुलाबी राते, तनहा जवानी जैसी फिल्मो हो तो आम जनता को सोचना पड़ जाये गा कि किस तरह के अफसर रास्ट्रीय पुलिस अकेडमी हमे तैयार कर के दे रहा है. और अगर उक्त व्यक्ति यह भी कहे कि रात में सोने से जाने के पहले "फ टीवी" यानि फैशन टीवी देखना उसे पसंद हो तो थोडी चिंता होना लाजमी हो जाती है . अगर इस तरह के मानसिकता के अधिकारी के पास कोई महिला पीडिता जायेगी तो उसके साथ कैसा व्यहवार होगा ये कल्पना के दायरे के बाहर है. और वो किस तरह से अपने से नीचे महिला अधिकारियो के साथ पेश आयेगे ये भी चिंता का विषय है.
कुछ युवा अधिकारी अपने कठिन ट्रेनिंग के क्षणों को भी बाटते दिखे है , इनमे महिलाओ को पुरुष अधिकारियो के साथ कंधे - से - कन्धा मिलाकर कठिन ट्रेनिंग लेते देखना यादगार क्षणों में है.
फेस बुक में भी आपको एक महिला पुलिस अधिकारी दिख जाये गी पर अपनी कविताओ , तस्वीरो और व्यक्तिगत चर्चो के कारण ,इनमे कही भी वे स्त्री मुद्दों पर चर्चा करती हुई नहीं दिखी है. न ही पुलिस में स्त्रीओ की इस्थिति पर कुछ कहते या जनता को अपनी कथ्नियो से अवगत करते हुए नज़र आयी है. दुःख की बात है कि इस सोशल साईट का उपयोग अभी तक आम जनता को कई मुद्दों पर जागृत करने के लिए किया जासकता है , पर किया नहीं जा रहा है. कुछ युवा अधिकारियो का साहितिक लगाव भी उनकी कम्युनिटी देख कर पता चल जारहा है और उनकी संजीदगी का भी अंदाजा लगाया जा सकता है जैसे "अल्लामा मुहम्मद इकबाल ", लव -ट्रुए(true divinity), , उर्दू पोएट्री, अहमद फ़राज़, परवीन शाकिर , दीवाने ग़ालिब, बैच मेट की कम्युनिटी ,.कुछ अधिकारियो का पञ्च लाइन उनके जज्बे के बारे में बतलाता है जैसे " फलक को जिद है जहाँ बिजलिया गिराने की , हमे जिद है वहां एशिया बनाने की ." इनमे महिला अधिकारी अपने आपको पूरी तरह से सिमित रखी है. उनका प्रोफाइल सिर्फ उनकी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है. कुछ सन्देश या संबाद बटता नहीं दिख रहा है.

कुछ आम जनता ने अपने पसंदीदा अधिकारियो के फेन क्लब बना लिए है, कुछ ने आने वाले सिविल अधिकारियो की कम्युनिटी बना ली है ताकि वे एक दूसरे का उत्साह बर्धन कर सके . कुछ पुलिस वालो का उत्साह वर्धन करने के भी कम्युनिटी बनी हुई है. आनेवाले दिनों में पुलिस अधिकारी किसतरह से इन सामाजिक साईट का उपयोग केवल अपनी तस्वीरो दर्शन से निकल कर जनता को कानून की पेचिदिगियो , कम्युनिटी पोलिसिंग को समझाने के लिए, जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने के लिए , अपने मुश्किलात बटने और मुशीबत साँझा करने , नेताओ के दबाब से खुद को अलग करने , अपनी बेहतर सेवा और अपने अधिकारों की लडाई के लिए करते है ये तो वक़्त ही बताए गा. दूसरी ओर जनता उनके पास जा कर केवल वाह-वाही करने के अलावा कितनी उनसे जानकारिया प्राप्त करने के लिए , अपने अधिकारों की जानकारी के लिए ,समाज सेवा के लिए इस संपर्क का उपयोग करती है यह तो आनेवाला वक़्त ही बताये गा.
एक और याहू ग्रुप है "इंडियन टॉप कॉप" का जिसमे आईपीएस श्रेणी के अधिकारी के अपने विचार और विभिन्न जानकारिया आपस में बाटते है पर यह केवल उनके लिए है बाहर वालो के लिए नहीं. पर इनमे पोस्ट किये गए स्लाइड , मेसेज , परिचर्चा कभी ज्ञान्बर्धक और हास्यप्रद भी होती है.


माधवी श्री

सोमवार, 9 नवंबर 2009

क्या आप औरतो कि इज्ज़त कर के उस पर अहसान करते है.

प्राय आपको हमारे समाज में ऐसे धुरंदर मिल जाये गे जो आपको बार -बार याद दिलाते रहते है कि वे औरतो की कितनी इज्ज़त करते है. ऐसे सज्जनों का एक बंधा-बंधाया मानसिक दृष्टिकोण होता है कि स्त्रियों की इज्ज़त करनी चाहिए और ये एक बहुत महत्वापूर्ण कार्य है और इस कार्य को करने पर स्त्रियों की इज्ज़त में कितना इजाफा होता है यह तो मुझे नहीं मालूम पर ये सोचते है कि इनकी इज्ज़त में इजाफा जरूर होना चाहिए क्योंकि आखिरकार ये महिलाओ की इज्ज़त जैसा महत्वपूर्ण कार्य जो कर रहे है.
प्राय अधिकतर पुरुष इन विचारो से ग्रषित मिलते है .पर उनका भी दोष नहीं है आखिरकार हमारा समाज उनेह बचपन से यही बताता आया है कि वे लड़कियो से श्रेष्ठ है और लड़कियो की इज्ज़त कर वे उनपर बड़ा अहसान कार रहे है. क्यों की वर्षो से आजतक लड़कियो के जिन्दा रहने का हक उसके पैदा होने के पहले उसके घरवाले तय करते है कि उसे इस संग दिल समाज में आना चाहिए या नहीं. आज भी अगर कोई माता -पिता अपनी बेटी को बराबरी का दर्जा देते है तो लोग उनेह चेतावनी स्वरुप कहते है "बेटी को बेटा जैसा बना रहे है , बाद में नतीजा भुगतिएगा. सरकार चाहे जितने भी इश्तहार लगवा ले पर जब तक आम जनता के सोच में परिवर्तन नहीं आता ये स्वरुप नहीं बदल सकता. इस अथक कार्य के लिए समाज के हर हिस्से से प्रयास होते रहना चाहिए. तभी बदलाव की हवा चल सकती है .

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

फिर बढे बस के किराये दिल्ली में.

दिल्ली सरकार जिस तरह से दाम बढा रही है बस के किराये का , आने वाले समय में गाड़ी में चढ़ना सस्ता होगा बजे के बस में चढ़ने के. कमान वेअल्थ गेम के नाम पर जनता की लूट अभी से शुरू हो गयी . सिर्फ दो- चार पोश इलाके चुन लिए गए है जैसे लोधी रोड , जनपथ, सीपी रोज इन्ही के चेहरे चमकाए जाते है जनता की गाधी कमाई से पद्पद गंज , भीतरी दिल्ली का इलाका तो पूरा सुन है और रस्ते उजडे हुए- उबड़ - खाबड़. .क्या ये दिल्ली की जनता नहीं है. इस पर धयान नहीं दिया जाना चाहिए.
अगर इस तरह किराये बढे तो जनता आनेवाले दिनों में सड़क पर उतर आये गी.पिछले तीन सालो में किराया १५०% बढ़ गया है. २००६ में २-५-७-१० रुपये का किराया था. फिर २००७ के शुरुआत में ३-५-७-१० का किराया लागु हुआ . अब मिनिमम किराया ५-१०-१५ कर दिया गया है. यानि सीधे १००% की बढोतरी गरीबो की जेब काटने के लिए. सरकार खुद तो गाड़ी में घूमती है और गरीब जनता ५०००-६००० कमाने वाले पीउन क्लास कैसे अपना घर संसार चलाये गा. उनेह तो कोई घूस देने से रहा.

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

पुरुष

पुरुष मेरा मन करता है
तुम्हारा एक ब्रश बनाऊ
उससे अपने कमरे को बुहरू ,
अपने गंदे कपड़ो को साफ़ करू ,
दांत ब्रश करू , कोटे साफ करू ,
बालो पर ब्रश करू
और फिर उसे उठा कर अलमारी में रख दू........

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

पुरुष

पुरुष तुम समझते हो कि औरतो में सारे गुण
केवल तुम भरते हो .
अगर तुमेह ऐसा लगता है तो एक काम करो
रेड एरिया से एक देह उठा लाओ
और भर दो उसमे सारे गुण .
नहीं ? नहीं कर सकते ?
ओह, मै तो भूल गयी
तुम ही तो जाते हो वहां अपना बोझ हल्का करने.

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

जनतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना

बहुत जरूरी है जनतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना जनतंत्र के फायदे लिए . सत्ता पक्ष का मजबूत होना जितना जरूरी है देश को सही रूप से चलाने के लिए उतना ही जरूरी है एक मजबूत विपक्ष का होना उस पर अंकुश लगाये रखने के लिए. आग को पानी का खतरा लगातार होना चाहिए .बिना मजबूत विपक्ष के सत्ता पक्ष मनमानी पर उतर सकता है. आज कांग्रेस के मजबूत हाथो को एक मजबूत विपक्ष के दिशा निर्देश की जरूरत है. पर जिस तरह से बीजेपी अपने अन्दूरुनी मसले हल कर रही है उससे उसकी छवि जनता के बीच एक हारे-पिटे हुए पार्टी की हो गयी है . अडवानी जिस तरह से उसकी पार्टी के अन्दर विरोध और व्यहवार का सामना करना पड़ रहा है आने वाले समय में राजनीती के लिए ये अच्छे संकेत नहीं है. हार -जीत जीवन में लगे रहते है . आज कांग्रेस ऊपर है कल नीचे भी जा सकती है . पर जिस तरह से मीडिया पहले सोनिया गाँधी के पीछे पड़ी थी जब वो राजनीती में नयी आयी थी कि उनका ड्रेस कोड कैसा है , वो चलती कैसे है, वगेरा -वगेरा बेकार की बाते . आज वो अडवाणी के लिए ऐसा कह रहे है. बात यह नहीं है कि हम आलोचना कर सकते है या नहीं पर यह है कि हम किस स्तर की आलोचना करते है. आज अडवानी -विपक्ष के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वो पत्रकारिता के लिए भी अच्छा नहीं है. और विपक्षी पार्टी को भी सयम बरतना सिखाना चाहिए.

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

एक कविता

हर हिन्दू के अन्दर एक हिन्दू है
हर मुस्लमान के अन्दर एक मुसलमान
पर हर इन्सान के अन्दर एक इन्सान क्यों नहीं

दिल्ली पुलिस

एक मजेदार घटना बताती हूँ . अभी हाल में मै और मेरी एक मित्र पुरानी दिल्ली स्थित टाऊन हॉल में बदाली बंधू का गायन सुनने गए थे अंतररास्ट्रीय आर्ट फेस्टिवल के अर्न्तगत. वहा से लौटते वक़्त रात के कोई नौ बज गए थे . तो हम जरा जल्दी में थे. मेरी मित्र आगे बढ़ कर रिक्सा कर रही थी हम चाहते थे कि मेट्रो पकड़ ले ताकि घर पहुचने में सुविधा हो जाये. वो मेरे से थोडा आगे जा कर रिक्सा पकड़ रही थी , तभी मैंने देखा कोई पुलिसवाला उससे बाते कर रहा है. मैंने सोचा पता नहीं क्या हुआ क्यों कि पुलिस को देख कर वैसे भी हमारे मन में अच्छे विचार जरा कम आते है. जब मै वहा पहुची तो वो पुलिसवाला उससे कह रहा था कि अपने सामान ठीक से रखिये, रात को यहाँ छिनतई हो जाती है. मजे कि बात है उपदेश देनेवाला पुलिसवाला पूरी चढाये हुए था. मुझे उसे देख कर हसी भी आयी और गुस्सा भी .पूरी दारू चढा कर ये बन्दा अंतररास्ट्रीय आर्ट फेस्टिवल में ड्यूटी करने आया है. मैंने उनसे कहा कि ठीक है अगर आपको इतनी चिंता है तो मेट्रो तक हमारे साथ चले. तब वो तमक कर मुझसे बोले - आप जैसी तो बहुत आयीगी , यहाँ मेरे पास इतना टाइम नहीं है. तो मैंने कहा कोई बात नहीं हम अपनी देख भाल खुद कर लेगे.
ये घटना मैंने आप सब से ब्लॉग पर बाटने की सोची , पर तभी एक दिन दिल्ली के एक आला पुलिस अफसर से मेरी मुलाकात किसी काम के सिलसिले में हुई. तो मैंने इस घटना का जिक्र किया. उस आला पुलिस अफसर ने बड़े धयान से मेरी बात सुनी , फिर अंत में बोले - उसने आपको या आपकी मित्र को छेडा तो नहीं न. फिर क्यों चिंतित हो रही है.
इस बार मेरी स्थिति पहले से भी ज्यादा असमंजस वाली थी , समझ में नहीं आया हसूं या गुस्सा करू .

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

कल दिल्ली अंतररास्ट्रीय आर्ट फेस्टिवल में बडाली बंधुओ को सुनना एक स्वर्गीय अनुभव था. उसके कुछ सूफी गाने के बोल मै आपलोगों से बटना चाहूगी जिसका मतलब कुछ ऐसा निकलता है - "फकीरों के मजार पर दिए हमेशा जलते है , पर राजाओ - बादशाहों के मजार पर कौन दिए जलाता है.... " कितनी बड़ी बात बडाली बंधुओ ने कह दी एक छोटी सी लाइन में. एक बात और इतने बड़े फनकार हो कर भी उनमे विनम्रता इतनी कि कहते है कि - गायक तो बहुत है, गाना बहुत लोग गा लेते है , पर हम तो आप के सामने हाज़री लगाने आये है, हमारी हाजरी कबूल करे...
उनको सुनने की तमन्ना मुझे वर्षो से थी और इन्तेजार का परिणाम भी बेहतर निकला .दो घंटे जानते पता ही नहीं चले कैसे निकल गए....

बिहार और माइक्रोसॉफ्ट





ये पिक्चर मुझे मेल से मेरे एक मित्र ने भेजा , विषय था अगर लालू - रबडी मेक्रोंसॉफ्ट के बिल गेट्स को अगर बिहार बुलाये गे तो क्या स्थिति होगी ,उनकी और मिक्रो सॉफ्ट की. दिल पर मत लीजियेगा इस दिल्लगी को.

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

दिल्ली में "बाडीर दुर्गो पूजो "


कोलकाता मै जा नहीं पाई इस बार भी दुर्गा पूजा के समय , तो पिछले दो सालो की तरह मैंने इस बार भी दिल्ली में इधर -उधर घूमने का फैसला किया और सोचा यहाँ कि यहाँ के पूजा पंडाल देख कर पूजा मना लूगी. पिछले साल मै दिल्ली इम्पेरिअल ज़ोन (बागला साहब गुरुद्वारा के सामने ) में दुर्गा पूजा मना कर आयी. उसके पहले साल चितरंजन पार्क में पूजा मना कर आई. इस बार हमारे महिला पत्रकार क्लब में वरिष्ठ पत्रकार निलोवा रोय चौधुरी ने सभी महिला पत्रकारों को अपने घर की पूजा में आमंत्रित किया. मै कई बार उनसे मिल चुकी लेकिन कभी उनसे खुल कर बाते नहीं हुई, पर जब मैंने उनसे उनके घर आने का निर्देश पूछा तो उनोह ने बड़ी आत्मीयता से मुझे समझाया. जब उनके घर महाअष्टमी के दिन गयी तो "बाडीर पूजो " (घर की पूजा ) देख कर मन खुश हो गया .हमारे बंगाल में महाष्टमी की अंजलि का बड़ा महत्व है. उस दिन मुझे अंजलि दे कर बड़ा सकून मिला . पूजा कर के जब निकली तो लगा दिल्ली में बंगाल की पूजा की याद ताजा करने में निलोवा जी को कितनी मेहनत लगी होगी क्योंकि बंगला टेस्टवाली पूजा का सामान इकठ्ठा करना यहाँ दिल्ली में आसन नहीं है. निलोवा जी की मेहनत हम जैसे परदेशियों को कितना सकून और अपनापन दे जाती है यह मै शब्दों में नहीं बया कर सकती . यह दुर्गा माँ की तस्वीर निलोवा जी के "बाडीर पूजो पंडाल " की है.

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

स्त्री और साधू

एक जेन कहानी सुनाने का मन कर रहा है आपको (शायद आपको पसंद आये ) - दो monk कही यात्रा कर रहे थे, एक युवा था एक थोडा बुजुर्ग . नदी के किनारे उनेह एक स्त्री मिली जो नदी पार करना चाहती थी पर उसे तैरना नहीं आता था. उसने साधुओ से प्राथना की कि नदी पार करने में वे उसकी सहायता करे. जब युवा साधू उसकी मदद करना चाह रहा था तब बुजुर्ग साधू ने उसे मना किया कि उनेह स्त्रीयों को हाथ लगाने की मनाही है. स्त्री ने फिर साधू से विनय की . युवा साधू ने उसके विनय को सुनते हुए उसे अपनी पीठ पर बिठा लिया और तैर कर नदी पार हो गया, पार हो कर उसने स्त्री को वही नदी किनारे उतार दिया. बुजुर्ग साधू को यह सब पसंद नहीं आया . जैसे ही वे मठ पहुचे , उसने तुंरत सभी मठ वासियो को बताना शुरु कर दिया कि युवा साधू ने लड़की को कंधे में विठा कर कर नदी पार करवाई है. सभी उसकी बाते ध्यान से सुनने लगे. जब युवा साधू से पुछा गया तो उसने बुजुर्ग साधू की और देख कर कहा - मैंने तो लड़की को सिर्फ नदी पार करने तक ढोया , और नदी पार करते ही उसे उतार दिया आप तो उसे अभी तक ढो रहे है....
हमारे देश में बहुत सारे लोग है जो औरतो को दिमाग में ढोते फिरते है..ये कहानी उनके लिए है...और उनके लिए भी जो बेकार कि चीजो को अपने दिमाग में जगह देते है...

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

शायद ये तस्वीरे आप को पसंद आये



आज चिठ्ठा जगत में घुमते फिरते यह ब्लॉग . महिला शक्ति (http://vishvmahilaparivar.blogspot.com/)
मुझे दिख गया . इस ब्लॉग में सबसे आकर्षक बात मुझे लगी इस ग्लेमर भरी दुनिया में एक सुंदर सी साडी पहने सादगी से भरी हुई एक प्यारी सी महिला की तस्वीर. सब से अच्छा लगा उस महिला का ब्लॉग. अगर समय मिले तो आप भी जरूर पढ़े इसे .


शनिवार, 26 सितंबर 2009

ज़िन्दगी और हम

हारना हमने सीखा नहीं , जीतने का मौका जिंदगी ने दिया नहीं
कुछ कमी रह गयी थी आपसी समझ में,
तभी तो हर मोड़ चौराहा सा नज़र आता है.

बुधवार, 23 सितंबर 2009

महिला मुक्ति संगठनो की सच्चाई

आज जहा महिलाये हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है वही उनपर दूसरी और लगातार जद्तियो- अत्याचार की खबरे भी लगातार आ रही है . २००९ में जहा आई ए एस की सर्विस में महिला ब्रिगेड ने अपना परचम लहराया है तो वही दूसरी और रास्ट्रीय महिला आयोग ,विभिन्न राज्यों की महिला आयोगों, महिला अपराध सेल के समक्ष महिलाओ के खिलाफ बढती जद्तियो के आकडे भारत में महिलाओ की स्थिति के दो पहलू उजागर करते है. एक और जहा महिलाओ के प्रति समाज ,माँ- बाप का रवैया बदला है वही समाज में पूरी तरह से अपेक्षित बदलाव नहीं आये है . इस कारण जिसतरह के कामो के लिए महिलाओ को चुना जा रहा है उससे समाज का जो जटिल चेहरा उभरता है वो यही कहता है कि महिलाओ को स्थान तो मिल रहे है पर निर्णय लेने वाले पदों के लिए नहीं .इसी कारण मिस मेरठ तो प्रियंका तो चुन ली जाती है पर अपने मनपसंद के काम के लिए घर से बहार निकल कर शोषण के अंत हीन दलदल में वो फस जात है अंत में सम्पति के अधिकार के लिए बोखालाई प्रियंका के हटो माँ- बाप का खून हो जाता है . प्रियंका की कहानी तथाकथित आधुनिक महिलाओ के शोषण और हार की कहानी है और निक्कमी व्यवस्था ,दोहरे माप दंड के समाज की कहानी है. ये उन तामम महिला संगठनो और महिला आयोगों के निकामेपन की कहानी है जो उदित नारायण, मटुक नाथ या यू कहे हाई प्रोफाइल टीवी में प्रर्दशित केसों के लिए समय तो निकल लेती है पर जरूरतमंद लड़कियो को सब्र का पाठ पढ़ने के अलावा इनके पास कोई काम नहीं रहता.
पंचायती राज में भले ही महिलाओ को आरक्षण मिलगये हो ३३% तक और बिहार में तो ५०% आरक्षण दे दिए गए है ,पर महिला सरपंच का काम उनके पति -बेटा -पिता या घर का कोई पुरुष संभालता है ऐसी खबरे प्राय आती रहती है. ऐसा नहीं है कि यह समाचार सिर्फ पंचायत के दरवाजे से आते है राजनितिक, व्यावसायिक , पत्रकारिता, फिल्म हर तरह के पेशो से इस तरह कि सूचना आती रहती है. महिलाओ की तरक्की के पीछे उसकी परवारिक पृष्ठ भूमि का होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. यही समाज का असली चेहरा है.
संसद में भी जो महिला आरक्षण की मांग पिछाले ११ वर्सो से टरकई जा रही है उसके पीछे भी पुरुष सांसदों की असुरक्षा की भावना काम कर रही है. वे सीट बढ़ने की बात मानने पर आरक्षण देने का इशारा तो कर रहे है पर जो सीटे अभी है उनमे से बटवारा नहीं चाहते. ये सिर्फ संसद की सच्चाई नहीं है वल्कि हमारे घरो की भी सच्चाई है. जहा हम अपनी बेटियो को अपने हिस्से से कुछ नहीं देना चाहते बल्कि अलग से कुछ देने पर विस्वास करते है. इसी कारण हम सहर्ष दहेज़ तो देना स्वीकार करते है पर सम्पति में उसका हक़ अभी तक अस्वीकार करते है.

यह लेख मेरा "ब्रेकिंग न्यूज़" नामक मासिक पत्रिका में "आइना" कालम में छपा था उसके पिछाले अंक में . उसी से साभार

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दिल बोले हदिप्पा - स्त्री विमर्श पर एक बेहतरीन फिल्म

"दिल बोले हदिप्पा" - यश राज प्रोडक्शन की यह फिल्म एन आर आई , क्रिकेट,भारत - पाकिस्तान की दोस्ती , पंजाब ,एक प्रेमी युगल की कहानी से कही दूर तलक आगे जाती है. फिल्म के दो सीन पूरी फिल्म को भीड़ से बिलकुल अलग खडा कर देता है . एक- जब वीरा ( रानी मुकर्जी ) को क्रिकेट खेलने से स्टेडियम का गॉर्ड रोकता है , तभी दुर्गा माता की सवारी जाती है - जब सब माता की सवारी देख कर शीश झुकते है तब वीरा कहती है, फोटो में बिठा कर जिसे पूजते हो इन्सान में उसे पा कर कुचलते हो . दूसरी - तुम लड़कियो को क्रिकेट खेलने से रोक सकते हो ,पर उसे सपने देखने से नहीं रोक सकते. खेल देखो ,खिलाडी का नाम मत देखो.अगर मै अच्चा खेलती हू तो लड़को के साथ खेलने में बुराई क्या है? आप कहते हो लड़कियो के साथ जा कर खेलो पर लड़कियो की टीम कहा है....?
वीरा के ये सवाल आज की प्रतिभा सम्प्पन ग्रामीण लड़कियो की सच्ची कहानी है और स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो आज भी यक्ष की तरह हमारे - आपके बीच खडा है...
इस फिल्म को अगर इस द्रिस्तिकोन से आप देखेगे तो पूरी फिल्म एक अलग सी दीख पड़े गी...फिल्म में रानी मुखर्जी उतनी फ्रेश नहीं लगी , अंत के कुछ दृश्यों में वो जबरदस्त लगी... लड़के की भूमिका में वो बिलकुल लड़का लग रही थी. शहीद कपूर मेरे पसंदीदा कलाकारों में है इसलिए मै उसके बारे में भेदभाव पूर्ण हो जाती हू. पर वो भी एक बेहतरीन कलाकार बन कर उभरे है इस फिल्म में. अनुपम खेर ,पूनम ढिल्लों ने अपनी भूमिका के साथ इंसाफी की है.

अंत में एक बात - इस फिल्म के निर्देशक अनुराग सिंह आई आई एम् सी , दिल्ली के २००५ बैच के पास आउट है ( विश्वस्त सूत्रों ने यह जानकारी दी है..) अब पत्रकार दूसरे पेशे में जयादा सफल होने लगेहै.

बुधवार, 16 सितंबर 2009

अप - यानि ऊपर : ऊपर की सैर


कल मैंने एक और पिक्चर देखी. पिक्चर "एनिमेटेड सिनेमा" थी. इस कारण लग रहा था कैसी होगी. पर जब देखी तो लगा इस सिनेमा में दो - तीन बाते जो हमे आम जीवन से जोड़ती है वो है हम सभी के अन्दर एक घुमक्कड़ आदमी रहता है जो वक़्त और जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों के पीछे दौड़ - दौड़ कर थक जाता है. पर उसे अपने मन की मुराद पूरी करने की भी इच्छा रहती है .जब हमे मौका मिलता है तो हम उस मुराद को पूरी करने की कोशिश भी करते है.पर उम्र के ढलान पर यह जज्बा थोडा कमजोर हो जाता है. ऐसे समय पर जब हम किसी बच्चे से टकराते है तो उसका उत्साह हमे फिर से तरो- ताजा कर देता है. हम फिर से जीवन जीना शुरू कर देते है. छोटी सी मूवी में बहुत बड़ा सन्देश छिपा था. कभी- कभी छोटे बच्चे हमे ज्यादा कुछ सीखा देते है और गलत - स्वार्थ पूरण जीवन मूल्यों को वापस सही कर देते है .यह इस फिल्म में बहुत बेहतर तरीके से दिखाया गया है. मुझे एक बात खल रही थी - हमारी मुम्बैया फिल्म इंडस्ट्री ऐसी मूवी क्यों नहीं बनती जब कि ऐसे बहुत सारी कहानिया हमारे पास मौजूद है . हम बस नकलची की तरह नक़ल करते रहते है. बच्चो के लिए फिल्म डिविजन है पर वो बच्चो के लिए कितनी फिल्मे बनाते है? यह सिनेमा बच्चो को जितनी पसंद आयेगी बडो को भी उतनी ही पसंद आयेगी .बलून के सहारे पूरा घर लेकर उड़ना और हर नए चुनौतियो का मुकाबला करना इस फिल्म के खूबसूरत दृश्य है.

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

ब्लू ओरंजेस " यानि - नीले संतरे .

कल एक फिल्म देखी " ब्लू ओरंजेस " यानि - नीले संतरे . ये फिल्म राजेश गांगुली की है. ये राजेश की पहली फिल्म है. राजेश ने ये अच्छा प्रयास किया है " कम बजट सिनेमा "में जो हमे "चस्मेबद्दुर", "नरम -गरम ", "गोलमाल " जैसी फिल्मो की याद दिला जाती है. हलाकि यह एक डिटेक्टिव फिल्म है पर आप पूरे तौर पर इस फिल्म से जुड़े रहते है शुरू से लेकर अंत तक. कुछ एक बात जो इस फिल्म का प्लस पॉइंट है और कमजोर भी. यह फिल्म कम बजट की फिल्म है और हमारी आँखों को बड़ी बजट की फिल्मो की आदत हो गयी है. दूसरी स्टार कास्ट में प्राय सब नए है सिर्फ राजित कपूर उर्फ़ ( ब्योमकेश बक्शी ) ;शिशिर शर्मा को छोड़ कर. नए आये कलाकारों में अहम् शर्मा काफी उम्मीद से भरे कलाकार लगे. अगर इस बन्दे को अच्छी फिल्मे मिलती है तो आने वाले दिनों में ये लम्बी रेस का घोड़ा होगा. पूजा कँवल "हम लोग " टीवी सीरियल की लजोजी (अनीता कँवल ) की बेटी है. पूजा की पहली फिल्म राजश्री प्रोडक्शन के साथ थी मुहब्बत वाले विषय पर जो बुरी तरह बॉक्स- ऑफिस पर पिटी. इस फिल्म में पूजा ने परिपक्व एक्टिग की है. देखे सितारे उसे कहा तक ले जाते है. कुल मिला कर मूवी एक अच्छी फिल्म बन पड़ी दिखाती है. जो टीवी सीरियल का सा अहसास देती है पर ये हमारी बड़ी बजट फिल्मो की आदत की खराबी है. फिल्म मल्टी- प्लेक्स या छोटे शहरो में चलनी चाहिए . अगर आप ये फिल्म देखे तो मुझे जरूर बताये कैसी लगी.

शनिवार, 12 सितंबर 2009

यह सिनेमा मैंने अभी हाल में देखी . वैसे इस सिनेमा मे कोई खास अलग बात नहीं है उन तमाम अंग्रेजी सिनेमाओ से जिनमे हर समय आदिम अस्तित्व पर खतरा मडराता रहता है. इसमें भी वही सब है पर बात जहा अलग सी दीख पड़ती है वो है इस फिल्म के माध्यम से यह बात दोहराई गई है कि अँधा धुन अगर हम मशीनीकरण कर लेगे अगर अपने जीवन का तो एक दिन मनुष्य का ही जीवन समाप्त हो जायेगा इस पृथिवी से .
इस फिल्म में वैज्ञानिक अपने मरने से पहले अपनी " मानवता " एक मशीन ९ में रख देता है जो बाद में मनुष्य की तरह ही हरकत करता है . वो बार - बार अपने साथियों को मुसीबत से निकलने के लिए अपने आप को खतरों में झोक देता है, वही उन का मुखिया सबको बचने के लिए सिर्फ छुप जाना पसंद करता है. वैसे ये कहानी बहुत हद तक मानवीय है पर पात्र सिर्फ मशीन है. कही -कही तो यही बात खलती है. और पात्रो का मानवीय होना ही हमे इस सिनेमा से बांधे रखता है. सभी पात्र आम इन्सान की तरह हरकत करते नज़र आते है चाहे वो एक दूसरे को डराने की कोशिश करते हुए या हावी होते हुए. मशीनी पात्रो के साथ ये फिल्म बहुत हद तक मानवीय है.



मानसून का सरोद वादन

"http://www.youtube.com/v/CvDZ6WLp8xI&hl=en&fs=1&">
रिकॉर्डिंग मेरे लिए एक अजनबी दोस्त ने की थी, अजनबी इस लिए कि मै उसे नहीं जानती थी , दोस्त इस लिए क्यों कि बिना जाने उसने अपना रेकॉर्डेड संगीत वादन मुझे सुनाया और दिखाया . असल में कुछ दिनों पहले दिल्ली में भारतीय संस्कृति परिषद् की और से मानसून कार्यक्रम का आयोजन किया गया था . मै कार्यक्रम में थोडी देर से पहुची तो अमान और अयान बन्धु का सरोद वादन ख़तम हो चूका था और मेरे पास अफ़सोस करने के अलावा और कुछ नहीं था , तब आशीष कॉल ने अपनी यह रिकॉर्डिंग सुना कर मेरा वहा जाना सफल कर दिया . मै चाहती हु की आप भी इस सरोद का लुफ्त ले.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

आज कुछ बचपन के दिनों की पुराने गाने याद करने का मन कर रहा है. जैसे जब हम बहुत छोटे थे तब एक भोजपुरी गाना था " छौडा पतरका रे मारे गुलेलवा जिया रा उड़ उड़ जाये , छौडी पतरकी रे मारे गुलेलवा जिया रा उड़ उड़ जाये....."इसे हम भाई बहन, सारे मौसेरे भाई बहन मिलकर छुटियो के दिनों में पटना में मौसी के छत पर खूब जोर -जोर से गया करते थे मिल - जुल कर और नचा भी करते थे . बड़े मजेदार थे वो दिन. कहा चले गए जब दुनिया के मारा मारी की कोई चिंता भी नहीं थी.

एक और गाना याद है उन दिनों का लोक गीत - " सिलौडी बिन चटनी कैसे पीसी ..." ये गाना गा कर सारे बड़े लोग फूस -फूस कर के हँसा करते थे मुझे आज तक नहीं समझ में आया क्यों हँसा करते थे. माँ मुझे डँटा करती थी इसे गाने से पर मै गाती रहती थी. बिना किसी परवाह के .
एक और बंगला गाना जो हम उन दिनों कोलकाता में खूब गाया करते थे -" एने दो रेशमी साडी , चोले जाबो बापेड बाडी..." यानि " मेरे लिए रेशमी साडी ला दो मै अपने बाप के घर चली जाउ गी. "दीदी बोले ........." और याद नहीं आ रहा है....
आज के लिए इतना ही ....

सोमवार, 7 सितंबर 2009

जूनियर अफसर

जूनियर अफसर ने सीनियर अफसर से कहा -
" सर , आप ने मगवाई है चाय तो पी ही लेता हूँ ,
क्योकि सवाल नौकरी, एसीआर का है
कही चली न जाये कुर्सी "

फिर थोडा रुक कर उसने कहा -
"सर , कुर्सी तो कही नहीं जाती हम ही चले जाते है
तबादले पर "

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

नेता, मीडिया -तुंरत चाहिए सब कुछ

हमारे देश में मीडिया , नेता एक सोच के तहत काम करते है. जैसे ही किसी को पार्टी से निकल दिया गया ,तत्काल उसे सभी संवैधानिक पद छोड़ देने चाहिए. जसवंत सिंह के मामले में भी यही हुआ. उन से पीएसी का पद छोड़ देने के लिए कहा जा रहा है. और उनोह ने टका सा जवाव भी बीजेपी को भेज दिया. मीडिया खुश ;उसे एक खबर मिल गयी .
पर क्षण भर के लिए मीडिया क्या कभी सोचता है रुक कर कि थोडा रुका जाये और देखा जाये कि घटना क्रम क्या रुख लेते है. फिर इसकी रिपोर्ट आम जनता को दी जाये. उसे तो बस हड़बड़ी पड़ी रहती है , कच्चा - पक्का परोसने की. किसी का पेट ख़राब हो तो हो.
नेताओ और पार्टी में भी सब्र नहीं कि, जिस व्यक्ति ने इतने दिनों तक पार्टी के लिए काम किया उसके बारे में थोडा रुक कर सोचे. , थोडा ठहर कर काम करे. तुंरत सन्देश भेजना है , इसी हड़बड़ी में सब रहते है , चाहे अंत में अपना टका सा मुह ले कर ही क्यों न रह जाना पड़े.

एक कविता- व्यवस्था

व्यवस्था के दरवाजे पर पंहुचा एक आदमी.
जो था व्यवस्ता का शिकार .
कुछ दिनों बाद खबर आयी
वो आदमी ,
व्यवस्था का
शातिर शिकारी बन गया

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

औरत के संघर्ष की कहानी

अभी एक बंगला फिल्म देखी " श्वेत पथरे थाला " यानि सफ़ेद पत्थर की थाली . इस फिल्म में अल्पना सेन , सब्यसाची ,इन्द्राणी हालदार ,रितुपर्ना भी है. फिल्म की कहानी इतनी जबरदस्त है कि मै इसे कोई दस साल पहले देखना चाहती थी .पर मौका ही हाथ नहीं लगा . आज जब देखा तो लगा औरतो का संघर्ष कितना लम्बा और कठिन था और हम इसे भूल कर सिर्फ कपडे -गहनों में अटक कर रह गए है. फिल्म में अल्पना सेन एक ऐसे बंगाली औरत का किरदार निभाती है जो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने छोटे बेटे की खातिर रंगीन साडी पहनना शुरू करती है और इसका प्रतिरोध पूरे घर में होता है सिर्फ उसे अपनी ननद से समर्थन मिलता है. और कुछ उसके चाचा का . कुछ दिनों के बाद वह नौकरी करना शुरू देती है और अपने बेटे को पलना शुरू कर देती है. पर वक़्त है हसीं सितम देखिये कि बेटा एक अमीर लड़की के प्रेम में पड़ कर कर अपनी माँ को अपमानित करता है . अपने पेंटिंग के टीचर के साथ अपनी माँ का नाम अपने ससुराल वालो के सिखाने पर लगाने लगता है. इससे आहत हो कर उसकी माँ सब कुछ उसके नाम कर के एक अनाथ आश्रम में चली जाती है. ये कहानी एक औरत के संघर्ष की कहानी है , अपने आप को समय के अनुसार अपने को define करने की कहानी है, ये एक औरत के लगातार समय से jujhane की कहानी है .

जनता को चाहिए ....

"आग को पानी का खतरा होना चाहिए " वैसे ही बीजेपी को कांग्रेस से खतरा होना चाहिए और कांग्रेस को बीजेपी और दोनों को कम्युनिस्ट पार्टी से . इनके आपसी खतरे में ही जनतंत्र सुरक्षित रह सके गा. जनतंत्र में जनता के पास विकल्प होना चाहिए . अगर कोई भी पार्टी जनतंत्र में कमजोर पड़ती है तो दूसरी पार्टी निर्कुश हो जाती है. इसलिए जनता को चाहिए कि वो इन पार्टियों पर लगाम रखे . किसी को इतना अश्शवत नहीं होने दे कि वो अपने को आप का राजा समझने लगे.

सोमवार, 31 अगस्त 2009

महिला आरक्षण बिल -क्या है हाल

अभी हाल में एक महिला पत्रकार सम्मलेन में संदीप दिक्षित, महिला आरक्षण बिल कमिटी के अध्यक्ष नाच्चिपा , वृंदा करात,अन्नू टंडन,मेबेल , नजमा हेप्दुल्ला ने अपने विचार रखे . कुल निचोड़ इन विचारों का यही निकल कर आया कि पुरुष संसद नहीं चाहते कि उनकी गद्दी की कीमत पर महिला आरक्षण बिल पास हो , और कांग्रेस इस मुद्दे को पंचायत में महिलाओ को ५०% आरक्षण दे कर ठंडे बस्ते में डाल देना चाहती है. संदीप दीक्षित , नाच्च्पा का मानना है कि "ऑन दी रिकॉर्ड " कोई पुरुष संसद अपने हाथ काट कर महिलाओ के लिए दरवाजे नहीं खोले गा . १८१ सीट का जो आरक्षण उनको मिल रहा है वह वे लेले और संसद के अन्दर आ कर फिर अपने लिए रास्ता बनाये. १८१ नए बनाये गए सीटो पर आरक्षण पाने के बाद महिलाओ कि स्थिति २५% वाली रह जाये गी. इस के लिए लालू और शरद यादव जैसे नेता भी तैयार हो जाये गे. अंत में स्थिति यह उभरती है कि महिलाओ को हमेशा "जो मिलता है वो लेलो वाली " ही रहती है. चाहे वो घर हो या संसद. महिलाओ को कभी भी गरिमा के साथ उनका हक नहीं मिला है.
वृंदा करात ने ठीक कहा - " बड़े परिवर्तन कभी भी आम सहमती से नहीं होते है , इन का विरोध हमेशा हुआ है . चाहे वो मंडल कमीशन रहा हो या महिलाओ का संपत्ति में अधिकार " वृंदा के अलावा मेबेल जूझारू एमपी लगी जो झारखण्ड से थी.
कुल मिला कर यह स्थिति है महिला आरक्षण बिल का यथार्थ में.
जानकारो का मानना है कि कांग्रेस अभी इस बिल को लटकाईगी और तीसरे साल में इसे लाकर इस पर तारीफ बटोरे गी.
इस सम्मलेन में नजमा जी संदीप दीक्षित के करीब जाने कि कोशिश करती दिखती गयी , क्या उनकी कांग्रेस में दुबारा जाने कि इच्छा है? क्या सोनिया जी सुन रही है? या उनके सलाहकार ?????????

शनिवार, 22 अगस्त 2009

जसवंत सिंह प्रकरण -बीजेपी : एक तीर दो शिकार

जसवंत सिंह का निष्कासन बीजेपी SE इतना सरल मुद्दा भी नहीं है. क्योकि इसी बहाने से बीजेपी नेहरु के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से उठा सकी है फिर से जनता के बीच में . आज से कई वर्षो पहले बीजेपी ने स्यूडो सेकुलर का मुद्दा जनता के बीच बड़े प्रभावी तरीके से उठाया था , आज वो फिर कांग्रेस- नेहरु की भूमिका विभाजन के वक़्त जनता KE बीच उठा रही है . पर इसकी कीमत जसवंत को बलि का बकरा बना कर दिया जारहा है. लोगो के मानस पटल पर नेहरु - गाँधी परिवार की छवी इतनी मजबूत है की कांग्रेस चुनाव के समय इस छवी को हमेशा भुनाने का काम करती है. बीजेपी की पूरी कोसिस है कि इस छवी पर सवाल खड़े किये जाये और वो जनता का रुख अपनी तरफ मोड़ सके.
देखे बीजेपी इस प्रयास में कितनी सफल होती है. कितना कांग्रेस उसे सफल होने से रोकती है, ये तो वक़्त ही बताये गा.

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

अक्स

"कमीने" सिनेमा देखने के बाद मुझे जिस फ़िल्म की सबसे ज्यादा याद आयी वो थी "अक्स" मूवी । इस सिनेमा में अमिताभ बच्चन ,रवीना टंडन, मनोज बाजपाई ने जो जानदार अभिनय किया था वो काबिले तारीफ था । ये मूवी मनोज बाजपाई के अभिनय के कारण मुझे ज्यादा यादगार लगती है। मुझे इस मूवी में मनोज अमिताभ से २० नजर आए । इसमे अमिताभ भी अपनी जबरदस्त भूमिका में थे पर रवीना बिल्कुल एक नयी अवतार में थी . ये सिनेमा आज भी मेरे यादगार सिनेमा लिस्ट में आता है । इसके बारे में कई लोगो की राइ थी की इसका कोई कहानी लाइन नही है, पर मानती हू कि जीवन का ही कोई एक सरल लाइन नही होता है। फिर कहानी का क्यो हो। ये कहानी हार न मानने की कहानी है, चाहे वो बुराई की हो या भलाई की , दोनों के बीच लडाई की कहानी भी है। बड़ी मजेदार कहानी है ये। सच क्या है, बुरा क्या है....... इसकी कहानी ...... हम सब इसी अक्स को प्रस्तुत करते है , इसी के साथ जीते है......

शाहरुख़ और महारास्ट्र के किसान

परसों रविवार को टाईम्स ऑफ़ इंडिया या कहे सभी बड़े अखबारों और न्यूज़ चंनेलो की ख़बर थी कि शाहरुख़ के साथ अमेरिका में एअरपोर्ट पर बदसलूकी हुई जाँच के दौरान । अभी तीन दिनों में भी मीडिया का बुखार नही उतरा शाहरुख़ के साथ बदसलूकी पर। ४०%-२०% कवरेज शाहरुख़ को मिल रही है सभी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर ,पर ४० किसानो की आत्महत्या पर किसी मीडिया कर्मी ने इतना कागज नही रंगा। टाईम्स में यह स्टोरी शाहरुख़ वाली न्यूज़ के साथ थी पर एक-दो कालम में ख़तम कर दी गयी वही शाहरुख़ वाली न्यूज़ अन्य पन्नो पर भी चली फोटो के साथ प्रमुखता से , हर किसी की राय ली जा रही है कि क्या शाहरुख़ के साथ जो बरतओ हुआ वो सही था या ग़लत , उचित या अनुचित .किसी ने किसानो की अत्महत्यावाला मुद्दा इतनी तीव्रता से नही उठाया जितनी तीव्रता से शाहरुख्वाला मुद्दा उठाया । क्या ४० किसानो की जान इतनी सस्ती है कि किसी मीडिया कर्मी को इससे जुड़े सरकार की ग़लत नीतियों, अफसरों की लापरवाही ,किसानो की अज्ञानता , आम जनता की संवेदनहीनता पर ऊँगली रख सके । कोई सवाल - जवाव का सिलसिला इस पर सुरु क्यो नही होता की इतनी कर्ज माफ़ी बाद भी क्यो इतने किसान आत्महत्या करे चले जा रहे है। जिस स्वाइन फ्लू बीमारी पर रोज इतने पन्ने रंगे होते है है रोज उससे मरनेवालों की संख्या भी किसानो की आत्महत्या की संख्या से कम है। २७ लोग स्वाएन फ्लू से मरे है ।
मेरा यह कहना है की कही हम आउट ऑफ़ प्रोपोसन हो कर इस लिए तो नही सोच रहे है कि फ्लू के साथ होस्पिटालो का लंबा चौडा कारोबार जुडा है पर किसानो के साथ अभी तक मीडिया की कोई मिलीभगत नही हुई है, न शाहरुख़ की तरह उनका कोई पीआरओ है, ना वो शाहरुख़ की तरह उनेह चाय पिला सकते है , न गिफ्ट दे सकते है। न ही उन गरीब किसानो से जुड़ कर कोई स्टेटस सिम्बल का अहसास किसी मीडिया कर्मी को होगा। वो तो बिचारा घरपर डींग भी नही मार सकेगा की वो किसी सुपर स्टार से मिल कर आया है।
हां एक बात और : क्या राजीव शुक्ला इतनी आसानी से किसी आम नागरिक का फ़ोन उठा ते जो मुसीबत में फसा हो और उसकी मदद के लिए किसी अफसर तो ताबड़तोड़ फ़ोन करते। नही कभी नही। क्या यही जनतंत्र है। क्या यही आम जनता का राज है। सच कहते है शाहरुख़ " थोड़ा और विश करो , डिश करो"
हम आम जनता विश ही नही करती तो लातम -जूतम तो खायेगे ही। शाहरुख़ के साथ बद्सलोकी और ४० किसानो की जान क्या एक ही मुद्दा है? ६२ साल की आज़ादी के बाद हमने जो चुना वो सामने है । मरता गरीब आदमी जो पत्रकारों के लिए उतना अहम् नही है पर सुपर स्टार के साथ अमेरिका का सलूक देश के लिए चिंता का विषय है। गहन चिंता का विषय है।
मजे की बात ये है कि शाहरुख़ अमेरिका जाते रहेगे , सारे सुपर स्टार जाते रहे गे , बेचारे किसानो का हाल वही का वही रहेगा ............

थाईलैंड का तोता वाला फूल

यह फूल थाईलैंड में पाया जाता जो देखने में तोते जैसा लगता है । इसके निर्यात पर प्रतिबन्ध है , इसलिए हम-आप इसे केवल यहाँ तस्वीरों में देख सकते है। इसे संग्रक्षित फूलो कि श्रेणी में रखा गया है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कमीने


कल कमीने सिनेमा का प्रिविऊ देखनोको मिला। जैसा सोचा था वैसी ही मूवी निकली - विशाल भरद्वाज की : एक दम धासु , खालिस देशी। विशाल की मूवी हमेशा से मिटटी से जुड़े होते है, उसमे सेक्स , हिंसा ,देसी- विदेशी गानों का खुबसूरत और जबरदस्त तालमेल होता है।
कहानी एक जुड़वाँ भाई यूपी के जो मुंबई में पाले बड़े होते है , एक भाई- बहन जो मराठी होते है के अलावा एक माफिया गैंग , पुलिस , रेस के घोडे -रेस का मैदान और उसमे तीन बंगाली बाबूओ का किरदार कुल मिला कर कहानी
इतने सुंदर तरीके से गुथी गयी है कि एक मिनट के लिए आप का मन उसे छोड़ कर जाने के लिए नही होगा ।
विशाल ख़ुद एक संगीतकार है ,इसलिए उनमे संगीत की समझ और पकड़ बहुत मजबूत है। मिटटी से जुड़े देशी संगीत का जादू उनकी फिल्मो में भरपूर मिले गा। वैसे भी मकडी,मकबूल,ओमकारा जैसी फिल्मे देने के बाद विशाल के बारे में कुछ नया लिखना मुश्किल ही है। कुछ फिल्मे हीरो-हेरोइनो के नाम से जानी जाती है कुछ निर्देशक के नाम से जानी जाती है .विशाल उन निर्देशकों में है जिनकी फिल्मे उनके निर्देशन -संगीत के लिए जानी जाती है।
इस फ़िल्म में मुझे प्रियंका चोपडा जितनी अच्छी लगी उतनी किसी फ़िल्म में नही लगी। शहीद का तो कोई जबाब नही, जिस तरह से हकलाने का अभिनय उसने किया है इससे पता चलता है अभिनय उसके खून में है।
इस फ़िल्म को तीन कारणों से जन जाए गा - पहला इसमे यू पी - मराठी विवाद को बहुत सुंदर तरीके से उठाया गया है, दूसरा - इसमे एक लड़की की बगावत अपने भाई के खिलाफ दिखायी गई है, जो उसके चंगुल से निकल अपना जीवन जीना चाहती है। (वैसे - गुलाल फ़िल्म में एक बहन का इस्तेमाल उसके भाई द्वारा अपनी सत्ता हासिल करने के लिए बखूबी दिखाया गया है ,पर इसमे बहन की बगावत सफल रहती है , गुलाल में तो बहन परिस्थितियों से समझोता करते हुए दिखायी गयी है। )
तीसरा- क्षेत्रीय भाषा का जबरदस्त प्रयोग इस में दिखाया गया है। जैसे बंगला में जब बुकी भाई लड़ते है तो "फज्लामी" शब्द का प्रयोग किया गया है आज कल जब बंगला फ़िल्म जगत मुम्बैया फ़िल्म के प्रभाव से ग्रसित है और इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल बंद हो गया है , उस समय हिन्दी सिनेमा में इस शब्द का इस्तेमाल विशाल की भाषा और स्क्रिप्ट पर जबरदस्त पकड़ दर्शाती है।

सोमवार, 10 अगस्त 2009

लड़कियो की खरीद- फरोद सेक्स बाजार में

एक एनजीओ ने अभी एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया था जिसमे एक बच्ची को बांग्लादेश से छुड़ाया गया था और उसे उसके माँ -बाप को सौपा दिया गयाथा जो कि पंजाब के थे। ये प्रयास काबिले तारीफ है,पर सवाल उठता तक कि इतने सारे एनजीओ मिलकर कितना ,सुधर ला सके है। क्या मीडिया ने इस पर अब तक कोई खोज पूर्ण रपट बनाई है।अबतक कोई रिपोर्ट मीडिया में क्यो नही आयी किकितने रुपये इन एनजीओ को मिलते है और कितना ये अपने तामझाम में खर्च करते है और कितना ये उन मदों या कामो पर खर्चा करते है जिनके लिए उनेह ये मोटी रकम मिलती है। ये जो आकडे पेश करते है वो कितना विश्वसनीय है। अगर ये विश्वसनीय नही है तो इनकी बातें हम क्यो सुने? उनेह तवज्जो क्यो दे? एनजीओ एक बहुत बड़ा मध्यम है जनतंत्र में सुधार लाने का इसलिए इसे ढंग से मोनिटर करने की जरूरत है ।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

एक यादगार यात्रा

अभी हाल -फिलहाल मुझे भाखरा -नागल बाँध करीब से देखने का मौका मिला। . वहा जा कर लगा कि पंडित नेहरू ने कितना बड़ा कार्य देश के लिए किया था। चूकि वहा सुरक्षा कारणों से कैमरा ले जाना मना था ,इस कारण वहा की तस्वीरे हम नही ले पाए। बाँध के ऊपर से गुजरे , उसके नीचे तक गए । क्या लोमहर्षक दृश्य था ,वर्णन करना मुश्किल है। लिफ्ट से बाँध के नीचे तक गए १४० फीट नीचे एक मिनट से भी कम समय में । जब तन्नेल के अन्दर चल रहे थे तो पानी का दबाव
महसूस कर रहे थे। बाहर आयी तो लगा कितनी खुबसूरत जगह है।बिजली जहा बन रही थी वहा भी गयी । इस बाँध से दिल्ली , यूपी ,हिमांचल, अगल- बगल के कई राज्यों को बिजली - पानी की सप्लाई होती है। पंजाब की कहानी इस बाँध के निर्माण के बाद से बदल गयी। इस के बाद मै उस जगह गयी जहा पंडित नेहरू ने चीन के तत्कालिन प्रधान मंत्री के साथ "पंचशील संधि " पर हस्ताक्षर किया था । हालाकि वह कमरा बंद करदिया गया है आम जनता के लिए ऐतिहासिक कारणों से। पर इस जगह की खूबसूरती इसके ऐतिहासिक महत्व को और बढ़ा देती है।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

एक परी थी !


ये कविता रजनीश ने मुझे भेजी थी पड़ने के लिए ,मुझे बहुत पसंद आयी आप सब से बटना चाहू गी - माधवी श्री


एक परी थी,
हाँ वो परी ही तो थी!
मुझे वो सोनू कहा करती थी,
और में भी उसका शोनू ही तो था !
हमारी मिली जुली खनकती ,
हँसी आज भी मेरे कानों में गूंजती है,
जिसकी आवाज सुनकर मेरी आँखें बंद होती थी !
और सुबह जिसकी आवाज सबसे पहले सुनता था,
हाँ वो परी ही तो थी!
जीवन का सफ़र जारी है,
मेरा भी उसका भी,
बस नहीं है तो इतना कि,
हम हमसफ़र नहीं हैं !
परी हमसफ़र होती भी नहीं है,
सच वो परी ही तो थी !
क्या परी फिर से किसी को भी सोनू पुकारेगी ?
फिर से किसी को शोना बनाएगी ?

एक अनुभव


अभी हाल में एक सेमिनार के सिलसिले में मुझे पंजाब जाना पड़ा . वहा से हमें आनंद
पुर साहब लेजाया गया । काफी वर्षो से आनंद पुर साहब के बारे में सुना था , वहा जा कर एक अलग सा स्वर्णिम अनुभव हुआ। मेरे साथ जो खड़े है वो है इबुग गोचुबी । इबुग इम्फाल में पत्रकार है। पुरे यात्रा के दौरान हमलोगों ने इबुग को सेपरिस्ट (अलगाववादी) कह- कह कर चिढाया , पर इबुग ने जरा भी बुरा नही माना। उल्टा उसने कहा - बन्दूक दे दो मुझे। ऐसा है इबुग का सेंस ऑफ़ हूमर।
मेरे साथ जो महिला है , वो है वरिष्ट पत्रकार अशोक मालिक की पत्नी .बचपन में वो ट्रेन के डिब्बे में बैठ जाया करती थी और एक स्टेशन से दुसरे स्टेशन तक उतर जाने का खेल खेला करती थी । पूछने पर पता चला कि उनके पिता रेलवे में थे इस लिए सभी रेलवे कर्मचारी उनेह जानते थे। कोई कुछ नही कहता था । मासूम बचपन उनका ऐसे ही हँसते खेलते बीता। हम सभी का बचपन इतना ही सुंदर था। मेरा बचपन भी डंगा- पानी , कित- कित , इलास्टिक, गट्टा, गिल्ली- डंडा सभी खेलते बीता। आज वो दिन कल्पना की उडान लगते है। कभी- कभी लगता है वो हिस्सा मेरे जीवन का क्या मेरा था , क्या मैंने जिया था?

सोमवार, 20 जुलाई 2009

इन दिनों मीडिया विनोद काम्बली को एक ग़लत आदमी - एक ग़लत दोस्त साबित करने पर तुली पड़ी है। बेचारे ने क्या कह दिया , यही न कि उसे अपने दोस्त से बुरे वक्त में ज्यादा उम्मीद थी । इसमे ग़लत क्या कहा ,क्या हम सब अपने दोस्तों से उम्मीद नही रखते, क्या मीडिया समाज से उम्मीद नही रखता या समाज मीडिया से। उम्मीद उसी से की जाति है जिस पर भरोसा हो। काम्बली को सचिन पर भरोसा था , इस लिए उम्मीद भी जयादा थी , इसमे उसे ग़लत दोस्त , धोके बाज यह सब साबित करने की क्या जरूरत थी।शब्द भी मीडिया ने ही काबली के मुह पर डाले थे।
यह सब हरकत मीडिया के दिमागी दिवालियेपन का सबूत है। जब मीडिया ख़ुद आलसी हो गया है तो दूसरो का दोष ढूड- ढूड कर अपना काम चला रही है।
इसे ही कहते है सूप दुसे चलनी को जेकरा बह्तर गो छेद ।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

चंडीगड़ से एक मुलाकात

अभी हाल में चंडीगड़ जाने का मौका मिला । बड़ा ही ख़ूबसूरत शहर है। चारो तरफ़ हरियाली, सब कुछ हरा- हरा। साफ सुथरा, आपको भ्रम होगा कि आप किसी विदेश में है। चंडीगढ़ में इन्सान को एक बार जरूर जाना चाहिए।
चडीगढ़ प्रेस क्लब कि तो बात ही और है उनका अपना स्वीमिंग पूल है। मेरे ख्याल से यही एक समृद्ध प्रेस क्लब होगा पूरे भारत वर्ष में। चंडीगढ़ का सेक्टर १७ का मार्केट बहुत बड़ा और प्रसिद्ध है। काफी लंबा फैला हुआ है।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

देश और जनसँख्या कि समस्या

आप ने कभी सोचा है कि हमारी सरकार आज- कल जनसँख्या के बारे में बिल्कुल नही सोच रही है । जनसँख्या पर उसके पास कोई ठोस नीति नही है। सड़क पर बच्चे भटक रहे है ,भीख मांग रहे है, ढाबे पर काम कर रहे है , सड़क पर रेड लाइट पर किताब बेच रहे है, नागे भूके घूम रहे है। पर सरकार एक कानून पास कर के खुश - बाल मजदूरी निरोधक कानून। मानों कानून पास हुआ नही कि बच्चो कि स्थिति में सुधर अपने आप हो जाए गा। दिल्ली जैसे शहर में जब ये हाल है जहा कानून पास होता है, पत्रकार, नेता , नौकरशाह भरे पड़े है तब तो दिन दहाड़े बाल मजदूरी चल रही है। तो सोचिये गरीब जनता कि स्थिति गाव में कैसी होगी।
अंधी सरकार - अंधी जनता।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

पुलिस इन दिल्ली

दोस्तों , परसों मै अपनी एक परिचिता के साथ इंडिया गेट पर टहलने गयी थी । हमने सैर के बाद भुट्टा खाया । तभी
एक पुलिस की गाड़ी रुकी । उनमे से दो पुलिसवाले उतरे , एक कोल्ड ड्रिंक वाले के पास गया और दो कोल्ड ड्रिंक उठा लाया , दूसरा हमारे सामने वाले भुट्टे वाले से तीन- चार भुट्टा सेकवा कर ले लिया वो भी प्लास्टिक की थैली में , जब दिल्ली में प्लास्टिक की थैली बैन है। भुट्टे ले कर उसने रूपये नही दिए, ये आम बात हो शायद रोज मर्रा की जिंदगी में , पर मुझे अच्छा नही लगा। शायद मै भी डरपोक थी जो उस समय उन पुलिसवालों को कुछ नही बोली।
अब मन में बात कचोट रही है , इस लिए आप सब से बाट रही हु ताकि मन का बोझ हल्का हो। इन पुलिस वालो की तनख्वाह २० हजार रुपये है , कांस्टेबल रैंक पर फिर भी उस दो टेक के भुट्टे वाले का २०- ३० रुपये मार कर उनेह क्यामिला मुझे समझ में नही आ रहा है।
आप अपनी राय जरूर लिखिए गा

शनिवार, 30 मई 2009

अल्पना की कहानी

कहानी : रहगुज़र की पोटली
# अल्पना मिश्र की कहानी आपके लिए जैसा मैंने वादा किया था। माधवी श्री ।

अंत के लिए शुरूआत का होना जरूरी नहीं है।
सड़क पर दुघZटनाएं हो सकती हैं
यह सड़क का विशय नहीं है
जिंदगी का विशय है
सिर्फ इसलिए सड़क पर चलने को नहीं रोका जा सकता
जिंदगी में चलने को भी नहीं।

बस अभी अभी मैं इस रेलवे स्टेशन पर पहंुची थी। एक हाथ में पानी की बड़ी सी दो लीटर वाली बोतल पकड़े हुए और उसी कंधे पर पर्स लटकाये थी। दूसरे हाथ में सामान ज्यादा था। एक बैग था, जिसे उस दूसरे हाथ वाले कंधे पर टंगे रहना था और एक परसाने की दुकान का बहुत चौड़े मुंह वाला झोला था, जो उसी दूसरे हाथ के साथ जैसे तैसे घसिट रहा था। इन्हीं दोनों हाथों से अदल बदल कर मैं मॉ को हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाती थी।
झोला थोड़ा भारी था। इसमें जमाने भर के इंतजाम चल रहे थे। इसमें सबसे नीचे पॉच छ: पुराने सलवार कुतेZ भी रखे थे, जो छोटी वाली बहन को देना था, इसे बीच वाली बहन जब एक बार अपनी ससुराल से घर आयी थी तो चुपके से छोड़ गयी थी। यह चुपके से छोड़ना ससुराल वालों के लिए था, हमें तो वह साफ बता कर गयी थी कि जब उधर जाने का मौका लगे तो ये सब छोटी को दे आना। वह थोड़ा धनी थी और कपड़े खरीदने के मामले में कुछ शौकीन भी। इसी सब में उसने अपना एक पुराना चप्पल, कोल्ड क्रीम की एक शीशी, बालों में लगाने वाले कुछ चमकीले बैकपिन और नकली सोने के चार कड़े भी चुपके से छोड़ा था। अपने बेटे की एक मोटी पुरानी जैकेट भी छोड़ गयी थी, जो जाड़ों में छोटी के किसी एक बच्चे के काम आ ही जाता। इसलिए उसे ले चलना भी जरूरी था। इन सबके उपर मॉ के तमाम सामान थे। एक गरम पानी का बैग भी रखा था। वहॉ बेवजह खरीदना पड़ जाता। यह बैग बहुत पुराना था और पानी भरनेवाली जगह पर मुड़ कर कटने लगा था, इसलिए इसे बहुत एहतियात से रखना पड़ा था। इस एक बैग को हम हगिZज गंवाना नहीं चाहते थे।
मॉ को हर मिनट पानी पिलाना पड़ता था। उनका गला अजीब तरह से सूखने लगता। गला जितना सूखता, घबड़ाहट उतनी ही बढ़ जाती। उनके गले में पिछले छ: सात महीने से दाने निकले हुए थे, जिसके कारण कुछ भी ठोस खाना मुिश्कल था। इन दानों का इलाज कर के इस शहर के डॉक्टर हार गए थे। अब जब कि महीनों न खा सकने की हालत में, मॉ के उठने बैठने की ताकत भी खत्म हो गयी थी तब डॉक्टरों ने उन्हें लखनउ ले जाने की सलाह दी थी। कायदे से मॉ को किसी व्हील चेयर में बैठा कर यहॉ तक लाना चाहिए था, पर मैं ऐसा कोई इंतजाम नहीं कर सकी। मॉ भरसक चल रही थीं। उन्हें अपने से ज्यादा मेरे झोले, बैग सहित उन्हें चलाए जाने की फि्रक थी। इसी फि्रक के कारण वे भरसक चलने जैसा चल रही थीं। उनके इस तरह चलने में चलने से ज्यादा मेरा साथ देना महत्वपूर्ण था। उनका गला सूख रहा था, पर चलते चलते पानी मॉग कर मुझे परेशान करने से वे अपने को बचा रही थीं। आखिरकार एक झटके से मुझे कुछ खिंचा जैसा महसूस हुआ। मॉ स्टेशन पर क्रम से लगी आठ दस कुर्सियों में उलझी हॉफ रही थीं। मैंने तुरन्त सामान वहीं रखा और जल्दी से झोले में से गिलास निकाल कर उन्हें बोतल वाला पानी पिलाया। उन्होंने सिर्फ एक घूंट पानी पिया, फिर हॉफते हुए ही बोली- ``संतोश क्या बोला था तुमसे?´´
``कहा था, सीधा यहीं आ जाएगा।´´ मैंने कुछ झुंझलाकर कहा। मुझे संतोश का हाल पता था। मॉ को भी पता था। मॉ फिर भी चाहती थीं कि वह आ जाए। मतलब कि इस चाहने में भी मेरी परेशानी की चिंता ही थी। इसीलिए मैंने कुछ कहा नहीं। संतोश हमारी पॉचवीं बुआ का लड़का है। इसी शहरनुमा कस्बे में हमारे घर से दूर एक दूसरे छोर में रहता है। कल उससे फोन पर कहा था कि `अपनी चाय की दुकान बंद कर के सीधे यहीं आ जाना। सुबह छ: बजे की इंटरसिटी ट्ेन पकड़नी है। मॉ को इस बीमार हालत में मैं ट्ेन पर कैसे चढ़ा पाउंगी? सामान भी साथ में है।´ यही सब सोच कर फोन किया था। उसने कहा था कि `सुबह सीधे वहीं पंहुच जाएगा। मॉ को ट्ेन में चढ़वा देगा। मैं चिंता न करूं।´
ऐसा कुछ और भी कहा था। मॉ को रिक्शे में चढ़ा कर वहॉ तक पंहुचने की मुिश्कलें उससे बताने को होते हुए भी मैंने अपने को रोक लिया। नहीं बताया। उसी संतोश की राह मॉ की ऑखों में थी।
मैंने उन्हें फिर एक घूंट पानी पिलाया और फिर उसी क्रम में हल्के हल्के खींचते हुए आगे बढ़ी। एक कुली से अपनी वाली ट्ेन का प्लेटफार्म पूछा और वहॉ तक पंहुच कर मॉ को एक कुर्सी पर जैसे तैसे बैठाया। सीढ़ी पर नहीं चढ़ना पड़ा। इसी पहले नम्बर प्लेटफार्म पर ट्ेन आनी थी। सुबह का वक्त था। भीड़ कम होने की उम्मीद में मैं थी। पर नहीं, भीड़ खूब थी। लगता था सारी दुनिया इसी इंटरसिटी से आज लखनउ जाने को मचल उठी है। मैं परेशान थी। मॉ को बार बार कह रही थी कि सामान देख लेतीं तो मैं जल्दी से टिकट ले आती। मॉ `हॉ´ कह रही थीं। पर मैं ही जाने किस दुविधा में न जा कर इधर उधर देख रही थी। शायद मेरे देखने में संतोश के चले आने की एक बची उम्मीद थी। बगल में एक लड़की बैठी थी। उसने बड़ी चुस्त टॉप और घुटनों से कुछ नीचे तक का ट्ाउजर पहना था। गले में एक मोटी स्टील की कुत्ता बॉधने की जंजीर जैसी जंजीर थी और एक पैर में पतला सा एंकलेट था। बाल घुमा कर पीछे अटकाए गए थे और उन्हें एक छोटा सा लकड़ी का बैकपिन खुलने से रोके हुए था। यहॉ की सब लड़कियॉ आज कल ऐसे ही कपड़े पहनती थी। लड़की रह रह कर मुझे देख रही थी। मुझसे कुछ कहने को होती, फिर रूक जाती। वह मेरे कुछ कह पड़नेे की प्रतीक्षा में थी जैसे। मैं समझ नहीं पा रही थी। जैसे जैसे यह कस्बा शहर की सज घज में उतरता गया था, लोगों का विश्वास एक दूसरे पर घटता गया था। खासकर ऐसे कपड़े पहने लड़कियॉ जरूरत से ज्यादा चतुर, तेज तर्रार और अविश्वसनीय हो उठी थीं।
``आप जाइए न टिकट लेने। मैं इन्हें देख रही हंू।´´ जैसे मेरी दुविधा भॉप कर लड़की ने एकदम से कहा।
``बार बार पानी पिलाना पड़ता है।´´
म्ेारे इतना कहते ही लड़की ने मेरे हाथ से बोतल और गिलास दोनों ले लिया।
अपने भीतर उपजा अविश्वास मैं कहॉ रखूं? मैं उसे ले कर ही चली। जल्दी टिकट मिले तो जल्दी लौटूं। जल्दी खत्म हो यह भय कि मेरे पीछे से लड़की, वह भी तेज तर्रार लड़की इधर उधर न चल दे, कोई सामान? सामान ऐसा था भी क्या? लड़की के लिए तो कचरा होगा शायद? पर सामान ऐसा भी नहीं था, यही सब दुबारा खरीदने में मेरी हालत पतली हो जाती।
ख्ौर जब मैं टिकट लेकर लौटी तो लड़की मॉ को पानी पिला रही थी। मैंने उसे कई बार `थैंकयू´ कहा। उसने किसी भी `थैंकयू´ का जवाब नहीं दिया। पहली बार हल्का सा मुस्कराई, फिर वह भी नहीं। एक चमकीली सी पत्रिका खोल कर उसमें डूब गयी।
समय हो ही रहा था कि तभी सामने से संतोश आता दिखा। उसे देख कर किसी अपने को देख लेने जैसी खुशी मुझे हुई।
अपने काले चश्में के भीतर से संतोश इधर उधर देख रहा था। बाल उसने इस बीच बहुत छोटे करवा लिए थे, जैसे अभी कुछ दिन पहले मुड़वाने के बाद उगे हों। वैसे कहते हैं कि आजकल यही फैशन है। इसी फैशन के तहत उसने काले रंग की पैंट के साथ सफेद रंग की फुल शर्ट पहना था। उसके गले में कई मोटी लोहे की जंजीरें आपस में उलझी लटकी थीं और उनमें बंधी ताबीजें खनखना रही थीं। एक हाथ में मोबाइल था, जिस पर किसी अज्ञात फोन के आ जाने की प्रतीक्षा में वह बार बार उसे देख लेता था।
``ट्ेन दो घंटा लेट है।´´ उसने आते ही सूचना दी।
ट्ेन के दो घंटा लेट हो जाने की सूचना अस्पश्ट से, घरघराते हुए बजनेवाले भोंपू जैसे किसी यंत्र से सुनाई पड़़ रही थी। उसने स्पश्ट सुन लिया होगा।
``तब तो उधर भी देर होगी।´´ मैंने चिंता से कहा।
``आज कौन सा दिखा ही पाओगी! जेा होगा कल ही होगा।´´
`` आज ही दिखाने को सोचा है।´´ मैंने पूरा बल दे कर कहा।
``गुड्डो ने अप्वाइंटमेंट ले रखा है?´´ उसने छोटी बहन के लिए पूछा।
``हॉ, आपको कल बताया तो था।´´
``हॉ, हॉ। वहॉ क्यों नहीं बैठ गयी, वेिंटंग रूम में?´´
``इस टिकट से नहीं बैठने देते। जनरल तो है नहीं यहॉ। ´´
``लड़कियॉ आजकल इतनी तेज तर्रार हैं और तुम हो कि डरपोक ही रहोगी। अरे, घुस जाती, कहती कि मॉ को बाहर बैठने में दिक्कत है। बीमार को कोई कैसे नहीं बैठने देगा? ´´ उसने यह बात अधिक जोश में, मॉ की बगल में बैठी लड़की की तरफ देखते हुए कही।
``कहो तो अभी ले चलें! कैसे कोई बैठने नहीं देगा? हम भी देखते हैं।´´ यह कहते हुए उसने अपनी फुल शर्ट की बाजू किसी फिल्मी अंदाज में मोड़ी। लगा कि बस, अभी कहीं, किसी युद्ध के लिए निकल पड़ेगा। इतने सब के बावजूद लड़की ने पत्रिका के भीतर चलना बंद नहीं किया।
``नहीं भइया, यहीं ठीक है।´´ मैंने घबड़ा कर कहा।
``देखा, डर गयी तू भी।´´
इस पर मैंने कुछ नहीं कहा।
मैं खड़ी थी और मॉ बैठी थीं और वह मेरे और मॉ के सामने खड़ा था। वह थोड़ा थोड़ा उस लड़की के सामने भी खड़ा था।
``ऐसा करता हूं कि दुकान खुलवा कर आता हंू। अभी तो दो घंटा है, तब तक छोटू कुछ काम शुरू कर देगा।´´ उसने कहा। छोटू चाय की दुकान पर काम करता था। बरतन मॉजने स ेले कर चाय बनाने तक का।
वह गया। हमारे `हॉ´, `न´ की जरूरत वहॉ थी भी नहीं।
मैं मॉ को फिर एक घूंट पानी पिला कर उन्हें बॉथरूम ले जाने लगी। फिर मुझे लड़की से सामान देखने के लिए कहना पड़ा।
``यहॉ तो गंदा होगा। लेडीज वेटिंग रूम में ले चलते हैं।´´ लड़की ने कहा।
``पर वहॉ?´´
``एक मिनट रूकना!´´ कह कर लड़की, अपना बैग मेरे सामान के साथ सटा कर, महिला विश्रामालय की दिशा में चल दी।
``एक मिनट रूक जाओ।´´ मैंने मॉ से कहा।
``संतोश को रूकना चाहिए।´´मॉ ने धीरे से कहा।
``चाहिए तो बहुत कुछ।´´ मैंने भी धीरे से कहा।
मैं संतोश का नहीं, लड़की का इंतजार कर लेना चाहती थी।
मॉ बेचैनी से उठ कर चलने को हुईं। यह और भी मुिश्कल है। लड़की कहॉ रह गयी? अपना सामान तो है ही, उपर से एक वह भी अपना बैग छोड़ गयी है। मॉ एक हाथ से मुझे और एक हाथ से कुर्सियों को कुछ झुक कर, रूक रूक कर ,पकड़ते हुए दो चार कदम चलीं, फिर वापस अपनी जगह पर बैठ गयीं। ताकत तो है नहीं। शरीर कांटे की तरह सूख गया है। जहॉ से छूओ, चुभता है।
``चलिए।´´
अचानक मेरे कंधे पर हाथ से थपक कर लड़की ने पुकारा। वह कब, किस फुर्ती से आयी, मुझे दिखा तक नहीं। उसी फुर्ती से झुक कर अपना बैग और मेरा झोला उठा कर चल पड़ी। `अरे, अरे, मेरा झोला भी´ पर कहा मैंने कुछ नहीं। अपना बैग, पानी की बोतल, पर्स और मॉ को संभाले मैं एकदम आज्ञाकारी की तरह उसके पीछे पीछे चलती हुई वेिंटंग रूम में पहंुची।
``इन्हें यहॉ लिटा दीजिए।´´ जब मैं मॉ को बॉथरूम स ेले कर लौटी तो लड़की ने संकेत से एक लम्बी चौकी जैसी जगह दिखाया।
लड़की वेटिंग रूम के एक कोने की कुर्सी में धंस कर अपनी उसी चमकीली पत्रिका में घूमने लगी, जबकि मैं मॉ को लिटाने के बाद उससे बात करना चाहती थी।
``आप लखनउ....?´´
``हॉ।´´
``गाड़ी बादशाह नगर रूकेगी?´´
``हॉ।´´
``मैं पहली बार जा रही हंू। बादशाह नगर उतरना है।´´
``बता दूंगी।´´
``मॉ को ट्ेन में चढ़ाने में दिक्कत हो सकती है।´´ मैंने मॉ की तरफ देख कर कहा।
वह कुछ नहीं बोली। `मैं हंू न´, `मदद कर दूंगी´, `मैं सामान देख लूंगी, आप चढ़ा देना´ ऐसा कोई भी वाक्य, जिसकी मैं उम्मीद कर रही थी, नहीं फूटा, तो मुझे अच्छा नहीं लगा। यह `अच्छा न लगना´ में न जाने किस अधिकार से कह रही हंूं।

समुद्र की लहरों जैसी उमड़ती चली आती अपार भीड़ में मैं सामान सहित मॉ को ले कर एक बोगी से दूसरी बोगी तक बढ़ती, पर लगता कि किसी में भी चढ़ नहीं पाउंगी।
``किसी में भी चढ़ जाओ! सब इंटरकनेक्टेड है।´´ लड़की ने मेरा बैग मुझसे छीनते हुए कहा और एक झटके में अपने बैग के साथ मेरा बैग भी ट्ेन में चढ़ गए लोगों के बीच फेंक दिया। वह कूद कर अंदर चढ़ी और इशारे से मुझसे मेरा झोला मॉगने लगी।
``जरा एक मिनट अपने को संभालिए।´´
हंलाकि वे नींद, बीमारी, थकान से जूझते हुए खड़ी नहीं रह पा रही थीं, पर फिर भी मुझे उन्हें सिर्फ एक क्षण के लिए छोड़ना पड़ा। उसी एक क्षण में मैंने अपना झोला, पानी की बोतल वगैरह लड़की की तरफ उछाल दिया। फिर मॉ को।
मॉ एक गेंद थीं, जिन्हें उछाला गया था, पर जो पृथ्वी के पार नहीं जा सकती थींं।
कोई भी गेंद पृथ्वी के पार नहीं जा सकती थी।
``अंदर जा कर जगह देखो!´´
मैं जगह के लिए दौड़ी। लेकिन हमसे तेज दौड़ने वाले थे। अंदर जगह ठसाठस भरी थी। प्लेटफार्म पर जगह खाली हो गयी थी। भयानक असन्तुलन। जब बाहर भरा था, अंदर खाली था। अंदर भरते ही बाहर खाली हो गया था। यही जीवन था। एक साथ अंदर और बाहर भरा भरा नहीं चल सकता था।
मुझे जगह नहीं मिली तो बड़ी शिZर्मन्दगी लगने लगी। मैं लड़की से कैसे कहंू कि एक जगह खोज पाना मेरे लिए संभव न हुआ।
``यहीं रूकते हैं।´´
इस तरह मुझे रूकने का निर्देश देकर वह लोगों को लांघती, फलाZंघती आगे निकल गयी।
``ऐ बुचिया, तनि पानी देव...´´ एक बर्थ का किनारा पकड़ कर मॉ पानी मॉगने लगीं। ट्ेन चलने चलने को थी। भीड़ धक्का मुक्की कर के आगे पीछे आ जा रही थी। इसी धक्का मुक्की में मेरा बैग और झोला खिसक कर कभी आग,े कभी पीछे और कभी किसी अदृश्य जगह तक चला जाता। मैं सामान टिकाने की कोिशश करने लगी और लड़की थी कि आगे जा चुकी थी।
``अभी देती हंू, बस, अभी।´´ मैं मॉ से कह रही थी और लड़की थी कि जगह की उम्मीद का एक तिनका पकड़े भीड़ में तैर गयी थी।
``जाती है तो जाए।´´ मैंने मन में सोचा। वो होती कौन है मुझे ऐसी जगह रूक जाने का निर्देश देने वाली? उसकी मर्जी से चलूंगी क्या मैं? और वह भी, जब उनकी मर्जी होगी, बोलेंगी, आदेश दे कर निकल लेंगी और मैं? बेवकूफ समझ रखा है मुझे? गंवार समझती है? मुझसे ज्यादा बड़ी तो नहीं होगी? होगी भी तो मुझे क्या? तेज तर्रार लड़की कहीं चल दी होगी, क्या ठिकाना? और मैं? ऐसी जगह हंू, जहॉ एक बच्चा खिड़की से पेशाब कर रहा है, एक आदमी के हाथ की चाय छूट कर किसी समय गिर गयी होगी, उसका चिपचिपाता गीलापन सतह पर फैला है। एक बूढ़ा बूढ़ी इसी में मूंगफली छील कर खा रहे हैं। तीन लड़कियॉ इसीमें अड़सती हुई हंस रही हैं। चार पॉच बच्चे इसी में उपर से नीचे चढ़ उतर रहे हैं। अनगिनत सामान के साथ अनगिनत आदमी इसी में अपनी जिंदगी को ठीक कर ले जाने को अड़े हुए हैं। इसी में तमाम तिलचट्टे सपरिवार आना जाना लगाए हुए हैंं एक बहुत छोटा सा सुन्दर चूहा भागा है अभी अभी। एक बच्चा उसके चलने की दिशा में खुशी से चीखते हुए चलना चाहता है, लेकिन बच्चा गिर गया है, रो रहा है और उसके रोने को उसकी मॉ रोक लेना चाहती है। इसी में मैं पानी लेकर मॉ तक पहंुचने की कोिशश कर रही हंू।
अचानक एक आठ नौ साल की लड़की किसी को दांत काट कर भागी है। किसको? यह नहीं दिखा। केवल धड़ाधड़ थप्पड़ खाती लड़की दिखाई पड़ी। इससे एक अजीब हलचल मच गयी। लोग लड़की को देख लेना चाहते थे।
``पागल है।´´ किसी ने कहा। मुझे लगा कि मुझे कहा है! या कि किन्हीं लोगों ने मेरी मॉ को कहा है! मुझे संतोश का ध्यान आया। तुरंत ही उस बीती हुई सात आठ साल की उम्र का भी। बीती हुई उम्र में लड़की उस दिन जब घर में घुसी तो उसने देखा कि दो औरतें गाली बकती हुई उसकी मॉ को मार रही थींं। मॉ फटे गले से उन्हें ऐसी ऐसी गालियॉ दे कर अपने को बचाने की कोिशश कर रही थी, जो लड़की की याददाश्त में कभी नहीं थीं। मॉ पूरी तरह घिर गयी तो लड़की ने उसे छुड़ाने के लिए अपने नन्हें हाथों से दोनों औरतों को खींचा, पर औरतें उसके बल के उपर थीं। औरतों के हाथों जब लड़की छिटका दी गयी तो वह मुड़ कर दुआर तक गयी और उसने वहॉ पड़ा अपनी दादी के साथ रहने वाला ठिगना, चिकना और ठंडा डंडा उठाया और पूरे वेग से अंदर आयी। ले दनादन....उसने दोनों औरतों की पीठों, पैरों पर और डंडा जिस भी तरफ गया, चला दिया। मॉ छूट गयीं। लड़की नहीं छूट पायी।
मॉ को बचा ले जाने का कुछ गर्व भी था लड़की को।
गर्व का हर्जाना तुरंत भरना था।
लड़की दो औरतों के हाथों पिट रही थी। इसमें एक पॉचवें नम्बर वाली बुआ थीं।
``मन्ना, भाग!´´ संतोश ने तब जोर से कहा था और बाहर जा कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा था। उसके रोने से लोग जुट गए थे। तब मुझे लगा था कि संतोश मेरी तरफ है।

मैं तीन लड़कियों, चार औरतों और एक बूढ़ा बूढ़ी को प्राणायाम के बारे में बता रही थी, जब लड़की आ कर मेरे पीछे खड़ी हो गयी।
``मुझसे भस्त्रिका नहीं होता?´´ बूढ़ी ने कहा।
``माता जी आप भस्त्रिका, कपालभाति क्यों करेंगी? आप तो बस अनुलोम विलोम करिए। देखिए मेरी मॉ को, अनुलोम विलोम के कारण अब तक जीवित बची हैं।´´ मैंने ऐसा कहते ही सोचा कि मेरी मॉ के जीवित बचे रहने का वाकई क्या कारण है?
``एक बार तुम ठीक से कर के हमें सिखा दो बेटा! टी वी में देख कर सीखा था।´´ बूढ़े ने कहा।
लड़कियॉ मचल उठीं- ``हमें करना चाहिए या नहीं?´´
``सब कर सकते हैंं। लेकिन यहॉ कैसे बताउं?´´
``अरे, इनकी माता जी बीमार हैं, उन्हें बैठाओ तो।´´ साइड बर्थ पर अड़सेे किसी आदमी ने जोर से कहा और उठ कर खड़ा हो गया। उसने सोचा होगा कि उसके उठ जाने से माता जी के लिए जगह बन जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ, उसके उठते ही अड़ी हुयी जगह खुल कर बगल की जगहों में विलीन हो गयी।
``आइए, माता जी आइए।´´ उसने माता जी को अड़साने की कोिशश की, पर विलीन हुई जगह वापस नहीं आ रही थी और माता जी घबराहट के मारे बेहाल थीं।
``सब बच्चों को उपर भेजों, जगह बनाओ।´´
``आप बताते रहो जी।´´ आदमी ने कहा।
``अभी आपके लिए जगह बनाते हैं।´´एक और आवाज आयी।
बच्चे उपर ही थे। लड़कियॉ भी उपर चढ़ गयीं, मॉ को बैठा लिया गया।
``आप भी बैठ जाओ।´´ एक औरत ने अपने पास जगह बना कर कहा।
``हॉ, बैठ जाइए।´´ मैंने अपने कुछ पीछे खड़ी लड़की से कहा।
``आप बैठिए।´´ लड़की ने ऑखों से कहा।
``मेरी बहन।´´ मैंने लड़की का हाथ पकड़ कर औरतों की तरफ देखा।
``अरे, आओ, आओ, इसी में अंट जाओगी। तुम तो दुबली पतली हो।´´ औरतों ने उसे अपनी जहग में समेट लिया।
``और तुम?´´ लड़की की ऑखों में प्रश्न था।
``इन्हें जाते ही ऑफिस ज्वाइन करना पड़ेगा। इसीलिए।´´
``तुम्हें कैसे पता?´´ लड़की ने चौंक कर मुझे देखा।
आधा गिरती हुई मैं भी बर्थ के किनारे अटक सी गयी, अनुलोम विलोम सिखाते हुए।

``आगे कहॉ के लिए जाना है?´´ बादशाह नगर उतरने के बाद लड़की ने पूछा।
``इंद्रानगर के लिए। कोई ऑटो रिक्शा मिलेगा यहॉ से?´´
``हॉ, इधर आइए।´´ लड़की अपने बैग के साथ मेरा बैग ले कर चल रही थी।
सड़क पार कर के हम खड़े हो कर ऑटो रिक्शे का इंतजार करने लगे। इतने में एक मोटर साइकिल आ कर हमारे पास रूकी।
``अरे, आ गए तुम।´´ लड़की ने कहा।
``यहॉ आ गयी अैार मैं वहॉ ढूंढ रहा था। थैंक गॉड! तुम बैगन बैगेज के साथ दिख गयी।´´ लड़के ने िशकायत की।
``सुनो, पहले एक ऑटो ले कर आओ!´´
लड़के ने अब हैल्मेट के भीतर से झॉकती हैरान सी ऑखों से हमारी तरफ देखा।
``मेरी आंटी। बीमार हैं।´´
``ओह। अभी लाया।´´ मोटर साइकिल मुड़ गयी।
``वहॉ कोई दिक्कत तो नहीं होगी? मतलब डॉक्टर .....´´
``नहीं, गुड्डो है, मेरी छोटी बहन। अप्वाइंटमेंट लिया हुआ है।´´
मैं मॉ को ले कर मोटर साइकिल के साथ आए ऑटो रिक्शे में बैठ गयी।
``ऐसी ही होती हैं आज कल की लड़कियॉं ।´´ मॉ बड़बडाने लगीं। लड़के का आना उन्हें नागवार गुजरा था।
``चुप रहो, मॉ!´´ मैंने गुस्सा कर कहा।
लड़की कहीं उनका बड़बड़ाना सुन न ले। मुझे चिंता हुई। मैंने ऑटो से झॉक कर देखा। वह हाथ हिला रही थी। मैंने खुश हो कर हाथ लहरा दिया। विदा, एक अजनबी अपनी।

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- अल्पना मिश्र

मो. 09412055662