शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

मैं

मैं , मेरे अन्दर मेरी माँ
मेरे अन्दर मेरी बेटी
मैं जीवन जीती -
भूत ,भविष्य , वर्त्तमान .
किसके लिए ?
अपने लिए , माँ के लिए
या बेटी के लिए ?
(पटना की सडको पर माँ को मिस करते हुए... उनको समर्पित )

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

दिल्ली अंतररास्ट्रीय आर्ट समारोह


२ दिसंबर को दिल्ली अंतररास्ट्रीय आर्ट समारोह की शुरुआत जाज़ और हिन्दुस्तानी संगीत के साथ " ली मरिडियन होटल" में हुई . ३ दिसंबर से १२ दिसंबर तक दस दिनों में दिल्लीवासी एक साथ देशी - विदेशी संगीत, गायन -नृत्य , पेंटिंग ,कठपुतली कला ,नाटक , छोटे - फिल्मो का मज़ा ले सके गे. ४५ स्थानों पर विविध रंगों में दिल्ली अंतररास्ट्रीय आर्ट समारोह का मज़ा लिया जा सकता है. दिल्ली के रोहिणी ,द्वारका के अलावा गुडगाँव ,फरीदाबाद ,नॉएडा जैसे दूरदराज समारोह स्थलों को भी इस सास्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से जोड़ने की कोशिश की गयी है. बड़े- बड़े कलाकारों को आप बिना किसी टिकेट के देख सुन सकते है. २००७ में यह समारोह एक हज़ार कलाकारों के साथ शुरू हुआ था आज इससे जुड़ने वाले कलाकारों की संख्या चार हज़ार के लगभग हो गयी है.
अशोका होटल के प्रांगन में मिस्र के सूफी गायकों ने जब अपने सुर में अल्लाह से खुद को जोड़ा तो लगा मिस्र के सूफी कलाकारों के साथ मिस्र के बालू , मिट्टी और संगीत की खुशबु हवा में फ़ैल गयी. अल्फाज़ भले ही उनके हिन्दुस्तानी दर्शको को समझ में नहीं आये पर संगीत की जुबान ही कुछ और होती है, वो तो दिल के तारो को झंकृत कर देती है और श्रोता मंत्र - मुग्ध हो कर झूमने लगे . ऐसा ही कुछ रविवार की शाम को दिल्ली अंतररास्ट्रीय आर्ट समारोह के सूफियाना संगीत के अवसर के दौरान हुआ था. मव्लावेया दरविश की प्रस्तुति से वहां बैठे हिन्दुस्तानी दर्शक झूम उठे.उनके सहयोगी नर्तक एक घंटे तक रूहानी तबियत से ऐसा झूमे की दर्शक दातो तले उंगलिया दबाने के लिए मजबूर हो गए.
उसी रविवार को तीन मूर्ति भवन में लेनिन राजेंद्र द्वारा निर्देशित मकर मंजू फिल्म जो विख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के जीवन पर आधारित है दिखाई गयी. इसके अलावा हंगरी और ताईवान की फिल्मे भी यहाँ दिखाई गयी. ड़ी एल ऍफ़, बसंत कुञ्ज में मधुबनी, कालीघाट और गुजरात के जोगी चित्रकला की प्रदर्शनी लगाई गयी है.
इसके अलावा रसियन सांस्कृतिक केंद्र में रसियन और भारतीय नृत्य बच्चो ने पेश किये . इस केंद्र में रसियन और भारतीय चित्रकारों की कलाकृति भी प्रदर्शित की गयी. इसके साथ रसियन नाश्तो के साथ विश्व चाय पार्टी का भी आयोजन था. इस दस दिवाशिया समारोह में दिल्ली वाशी विश्व के विभिन्न सांस्कृतिक झलक का मज़ा ले सकते है.

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

वाल्मीकि समाज


ये है कालीचरण वाल्मीकि ,जिला अध्यक्ष राष्ट्रीय वाल्मीकि जन विकाश मंच , बदायूं .इसके अलावा इस फोटो में मुकेश कुमार वाल्मीकि और अनिल विराट भी है. कालीचरण वाल्मीकिने २००५ से वाल्मीकि समाज के उत्थान के लिए लग गए. वे मल सर पर ढोने के प्रबल विरोधी है. इस कारण वे लगातार इस काम के लिए सक्रिय है. तत्कालीन डी एम बदायूं -अमित गुप्ता और यूनिसेफ के सहयोग के कारण प्रशासन का भी सहयोग उसे इस काम में मिल रहा है. कालीचरण वाल्मीकि के मन में अपने समाज के इस अमानवीय हालत के लिए इतनी पीड़ा है कि वे लगातार उसके उत्थान की बाते सोचते रहते है. वे गाँव - गाँव जा कर वाल्मीकि समाज को समझाने कि कोशिश करते है कि लोग भिखारी से भी दूरी बना कर बात नहीं करते पर हम लोगो से करते है. इस कारण यह पेशा हमे छोड़ देना चाहिए ,इसमें सम्मान नहीं है. उनके साथ के लोग कहते है कि हमारे घर पर अगर मुर्दा भी पड़ा हुआ है तो लोग कहेगे कि पहले हमारे घर का काम करके जाओ फिर अपने घर का मुर्दा उठाना. हमारे प्रति संवेदन शीलता लोगो की नाम मात्र की नहीं है. हमारे घर की जवान बेटी अगर किसी के घर मल उठाने जाती है तो उसके साथ बदतमीजी भी हो सकती है. इस लिए ये सब काम हम छोड़ने की वकालत करते है अपने समाज के लोगो से. इस पेशे से जुड़े हमारे लोगो को चर्म रोग ,श्वास रोग, पोलिओ की बीमारी हो जाती है.
कालीचरण वाल्मीकि कहते है शिक्षा से हमारे समाज के कुछ लोगो में सामाजिक परिवर्तन आया है. वे घर साफ सुथरा रखते है. कुछ लोग बाहर कमाने चले गए है तो वे जब गाँव आते है तो लोग उनसे घृणा नहीं करते. अनिल विराट का कहना है कि उनके समाज से उनकी बुआ विदेश में अमेरिका में है उनोह ने पैसे भेज कर उनका घर पक्का बनवा कर दिया है. जो डीपीआरओ ( जिला पंचायत अधिकारी ) के घर के सामने है. उनके समाज से एक परिवार इंग्लैंड में रहता है जिनकी एक बेटी ब्रिटिश airways में एयरहोस्टएस है. कुछ लोग समाज के तरक्की कर चुके है पर अभी काफी लोग मल ढोनेवाली नरक की जिंदगी में पड़े है. उनेह ऊपर उठाना कालीचरण वाल्मीकि,मुकेश कुमार वाल्मीकि और अनिल विराट के जीवन का लक्ष्य है. कालीचरण वाल्मीकि अपने समाज के लोगो को धमकी भी देते है कि अगर उनोह ने यह काम नहीं छोड़ा तो बेटी और रोटी का रिश्ता उनसे तोड़ लिया जाये गा. आज world toilet day है . इस दिन के लिए ये कहानी इन संघर्षशील लोगो को समर्पित.
माधवी श्री

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

अलीगढ और " आशा "


मेरी अभी हाल की अलीगढ की यात्रा में जो मुझे देखने को मिला वो था हमारा देश भारत का एक महत्वपूर्ण अंग गाँव . अलीगढ के शहरी इलाके से थोड़ी दूर पर सरमस्तपुर गाँव है . यहाँ यूनिसेफ , अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सामाजिक कार्य विभाग के प्रोफेस्सर नूर मोहमद और राज्य सरकार के स्वस्थ विभाग के सहयोग से नवजात शिशुओ के मृत्यु दर को रोकने के लिए कई प्रयास किये जा रहे है. सबसे मजेदार जो बात लगी मुझे यहाँ पर कि सरकारी विभाग के कर्मचारी देश कि सेवा से ज्यादा अपने ओहदे की मान मर्यादा की रक्षा के चक्कर में अपना ज्यादा समय गवा देता है या कहे लगा देता है. गाँव की गरीब कम पढ़ी लिखी औरतो को जब " आशा " बनने का मौका मिला तो वे जी जान से कुछ रुपयों की खातिर इस समाज सेवा में जुट गयी. २०००-३००० रुपये मासिक आमदनी के एवज में वे घर- घर जा कर सरकारी हस्पताल में बच्चा पैदा करने की महत्ता के बारे में बतलाने लगी. पर हमारे गाँव के रस्ते इतने सुन्दर है कि बेचारियो को यातायात कि कोई सुविधा नहीं है , सिर्फ पैदल उनेह जाना पड़ता है. जब मैंने यही बात वहां के सरकारी स्वस्थ अधिकारी से कही कि वे सम्बंधित सरकारी डिपार्टमेंट को जा कर कहे कि रोड अच्छा बनादे ताकि गाडियो को चलने में आसानी हो या ये "आशा" साईकिल चला कर घर- घर जा कर और ज्यादा काम कर सके गी तो सरकारी अधिकारी ने कहा मैडम हम दूसरे डिपार्टमेंट में दखल नहीं दे सकते.
अब सोचिये ये सारे डिपार्टमेंट बने है देश सेवा के लिए पर ये आपसी अहंकार में ही उलझे पड़े है.

बुधवार, 22 सितंबर 2010

शब्द और संबाद

तुम कुछ बोलते हो
तुम्हारी आंखे कुछ और
मै कुछ बोलती हूँ
मेरा मन कुछ और
शब्द है, पर संबाद नहीं

जिंदगी और हम

हारना हमने सीखा नहीं
जीतने का मौका जिंदगी ने दिया नहीं
कुछ कमी रह गयी थी आपसी समझ में
तभी तो हर मोड़ चौराहा सा नज़र आता है

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010




ये है प्रवीना जी और उनकी बहन- मीनाक्षी और उनका स्कूल नाल में, बीकानेर से कुछ दूरी पर . प्रवीना जी की माँ ने यह स्कूल बनवाया ताकि उनकी लडकिया आत्मनिर्भर हो सके और गाव में शिक्षा का प्रसार भी हो सके. जब बीकानेर आना हुआ तो प्रवीना जी के मुहं से स्कूल की बात सुन कर मुझे यह जगह देखने की बहुत इच्छा हुई. जब गयी तो बदलते हिंदुस्तान की एक छबी मेरे सामने आयी. मै प्रवीना जी की माँ से जब मिली तो और मंत्र- मुग्ध हो गयी .पुराने ज़माने की होकर भी वो स्त्री शिक्षा जी जबरदस्त समर्थक है . उनोह ने अपनी चारो बेटियो को पढाया -लिखाया , सिर्फ शादी करके नहीं निपटाया.यही आज की नारी की सार्थकता है .

बुधवार, 4 अगस्त 2010

बिछड़े दोस्त - कुछ अनसुनी कहानियां

इन सब चाजों के लिये ? बीस वर्ष के उसके वैवाहिक जीवन की कीमत के रुप में मिली वो सम्पति आज भी रमा भोग रही है। अब आप पूछेंगे अगर मरते वक्त उस आदमी की उम्र अस्सी वर्ष थी रमा का वैवाहिक जीवन बीस वर्ष का था तो उस आदमी की उम्र साठ वर्ष का थी जब उसने रमा से शादी की तो उस वक्त रमा की उम्र क्या रही होगी ? यही स्वाभाविक प्रश्न है। उस वक्त रमा की उम्र 25 वर्ष थी। आय। अपने से 35 वर्ष बडे़ उम्र के व्यक्ति के साथ रमा ने कैसे शादी की ? या उसने शादी के लिये हाँ क्यों भरी ? क्या उसकी कोई मजबुरी थी या कोई दबाब ? मजबुरी तो थी ही पर दबाब बिल्कुल नहीं । रमा ने खुद इस्तेहार पढ़कर इसका जबाब दिया था ? उसने अपनी मर्जी से उस व्यक्ती के साथ शादी की। इस बारे में रमा का कहना है की उसकी सौतेली माँ के कब्जे में उसके पिता पूरी तरह ते आ गये थे। भाई था पर वे अपने परिवार में मस्त। उसे रमा और रमा की शादी से कोई मतलब नहीं था ।अब इस अवस्था में वो वैसे भी किसी औने दृ पौने के हत्थे चढ़ती । इसलिये उसने बहुत ही प्रैक्टिकल निर्णय लिया हेमंत से शादी का । उसके अनुसार हेमंत से शादी का करके वो कम से कम जिंदगी अपने हिसाब से तो गुजर सकेगी । अब हेमंत साहब की क्या कहानी है । आप पूछेगे ? तो में आपको बताऊँ सभी बात अभी बता दूंगी तो मेरे पात्र आपस में क्या बातें करेगें । फिर काहनी में टिविस्ट कहाँ से आयेगा ? और जोर का छटका धीरे से कैसे लगेगा ?



वापस अब फिर रमा के डेसिंग टेबल पर मुड़ते है जहाँ वो तैयार हो रही है अपने प्रेमी से मिलने जाने के पूर्व । एक मिनट आपको बता दुँ । रमा को बहुत आरति है । उसके इस मित्र को प्रमी कहे जाने से । उसका कहना है वो उसका मित्र है । बस मित्र । अगर हम जिंदा है । मनुष्य है तो अपने परिवारवालों या मित्रों से ही मिलेगे। शादी के बाद रमा ने अपने परिवारवालों से कोई सम्पर्क नहीं रखा। इसलिये उसके परिवार उसके ये मित्रगण है। रमा के हिसाब से वह आदमी उसे बहुत अच्छी तरह समझता है। बस औरतों की यही बुराई है जहाँ भी उसे ये लगता है कि कोई उसे बहुत अच्छी तरह समझता है। वे बस उसी की हो लेती है।) फिर उसके उस मित्र द्वारा उसे अपना टिम्बर का माल कोलकत्ता के नीमतल्ला के काठगोदाम वाले इलाके में बिकवाने में थोड़ी मदद भी मिल जाती है। (हम्म ............ इसका मतलब रमा थोड़ी समझदार और चालाक भी है।) उसके मित्र के साथ दोपहर में उसका लंच था। इसके बाद शाम को उसे भारतीय भाषा परिषद में एक सेमिनार में जाना था। (रमा को थोड़ी बहुत साहित्य चर्चा की बीमारी है।)



यहीं से मेरे उपन्यास में टिविस्ट आता और रमा के जीवन में भी। जब वो सेमिनार हॅाल में पहुँची तो सेमिनार शुरू हो चुका था। कोई वक्त वहाँ अपना भाषण रख रही थी। रमा हॅाल में कुर्सियाँ टरोलते हुये एक खाली कुर्सी पर बैठ गई। कुछ मिनट के बाद उसे लगा यह आवाज तो जानी-पहचानी है। कौन है....कौन है..... अरे ये तो उसकी बचपन की सहेली उमा की आवाज है। माईक और उमा का नाता बहुत पुराना है। स्कूल के दिनों में भी डिबेट,आलोचना का कार्यक्रम क्यों न हो,उमा का नाम उसमें जरूर शामिल रहता था। सिर्फ नाम ही नहीं पुरस्कार पाने वालों में भी उसका नाम हमेशा शामिल रहता था। हमेशा की तरह आज भी उमा के भाषण पर लोग मंत्र-मुग्ध थे। मानों माँ सरस्वती का वरदान हो उसे। जब भी वो मुहँ खोलती सामने वाले की बोलती बंद कर देती।



आज भी वो महिलाओं के हक में बोल रही थी। वही बुलंद आवाज- कौन कहता है महिलाओं पर अत्याचार बंद हो गये है। अगर अत्याचार बंद हो जाते,उनकी दोयम दर्जे की स्थिति खत्म हो जाती तो आपके ही बंगाल में एक माँ को अपनी चार-चार बच्चियों की हत्या करके खुद को गमछे में बाँधकर पेड़ से लटकर आत्महत्या नहीं करनी पड़ती। लोग कहते है महिलायें हर क्षेत्र में आजकल काम कर रही है। मुझे बताइये महिलायें आजकल पहुँच तो हर जगह गई है पर वहाँ उन्हें शान्ति से काम कौन करने दे रहा है। सहकर्मियों के गंदे हरिकोण ईब्र्या, बॉस के गंदे मनसुबों का सामना इसे हर जगह करना पड़ रहा है। फिर घरवालों की अग्नि परिक्षा। सर्वोच्य न्यायालय ने भले यौन उत्पीड़न के खिलाफ सख्त कारवाई करने का प्रानधान बना दिया है। पर इनको लागू करने की जिम्मेवारी कौन लेगा। उस अत्याचार के विरूध्द कारवाई करने का माहौल कौन बनायेगा। पुरूष आज भी सिर्फ ऐसी सभाओं में मौन सम्मलित होकर अपने फर्ज की इति श्री कर लेते है। जो महिलायें अपने जीवन में एक मुकाम पर पहुँच गई है, उन्हें उन सब तकलीफों से कोई मतलब नहीं। हर स्त्री का संघर्ष वही शून्य से आरम्भ होता है।आगे की स्त्री ने जो रास्ता तय किया है उसका फायदा उसके बाद वाली पीढ़ी को उतना नहीं मिल रहा है जितना मिलना चाहिये। फिल्मों में महिलाओं के जिस्म को जरूरत से ज्यादा दिखाया जाता है। जैसे जिस्म दिखाना ही आजादी का पयार्य या एक मात्र सबूत हो। आर्थिक आजादी की बात कोई नहीं करता। सभी आजादी-आजादी चिल्लते है। आर्थिक आजादी के लिये भी महिलाओं को क्या-क्या करना पड़ता है। इस पर भी खुलकर बहस नहीं होती। प्रमोशन के नाम पर उसका मानसिक और दैहिक शोषण लगातार छलता रहता है। आज भी लिफ्ट के दरवाजों पर गंदे-गंदे अशोभनीय शब्द चमकते रहते है। जो महिलाओं के प्रति पुरूषों की आदिय सोच को प्रमाणित करते है। पुरूष आज भी महिलाओं को एक वस्तु समझता है। जो स्त्री पुरूषों की इन कमजोरियों को समझ जाती है। वे इसका इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाती है,तब ये इस्तेमाल हुये पुरूष चिल्लाते है कि महिलायें गलत तरीकों का इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाती है। जिस्म की नुर्माइश कर वे प्रतिस्पर्धा में पुरूषों को पछाड़ देती है। पर वे यह नहीं बताते उसी समूह में वो महिलायें जिसने अपने जिस्म की नुर्माइश नहीं की थी उसे उसने आगे क्यों नहीं बढ़ाया या बढ़ने दिया। तभी रमा को लगा उसकी पिछली सीर पर बैठा व्यक्ति धीरे से कुछ रह रहा है-साली,खुद पुरूषों का शोषण करती है, वो क्यों नहीं कहती। शब्द सुनकर रमा के कान गर्म हो गये। उसने पीछे मुड़कर उस आदमी की ओर देखकर कहा-अगर आप कुछ कहना चाहते है-तो क्रपया जोर से खड़े होकर कहिये।, इस तरह धीरे-धीरे बोलकर औरों को डिस्टर्ब न करे। रमा की बात सुनकर और अगल-बगल के आदमी चुप हो गया।



तभी उमा का भाषण समाप्त हो गया,लोग तालियाँ बजाने लगे। रमा भी ताली बजाने लगी । नीचे उतरते हुये उमा को देखकर रमा सोचने लगी। उमा कितनी बदल गई है। बचपनवाली उमा की तेजी के साथ वक्त के अनुभव उसके साथ जुड़ गए है..उमा की धार और तेज हो गई है...। वो सोच रही थी कि वो उमा से मिले या नहीं.. यही सोचते-सोचते उमा उसके बगल से गुजरी.. अचालक क्या हुआ दोनों में किसी को कुछ पता नहीं चला उमा पलटी और रमा ने कहा- कैसी हो उमा, ..एक पल रुक कर उमे ने कहा रमा... हूँ.. वाट-ए-प्लीजेंट सरप्राइज.. इतने दिनों बाद भी याद रखा तुमने.. अरे बचपन के दोस्त है, कैसे भूल जांऊगी ... एक मिनट रुकना ..तुम अभी यही हो तो..रमा ने हाँ कहा..एक साथ चलेंगे ..जल्दी में नहीं हो तो ..ना.. बस ठीक है.. कह कर फिर उमा प्रशंसको से घिर गई...



करीब आधे घंटे बाद जब वो खाली हुई तो अपनी थुलथुल काया के साथ वो रमा की ओर बढ़ी .. अच्छा तुझे अगर जल्दी ना हो तो मेरे साथ मेरे गेस्ट हाउस चल..



वही रात गुजारना ,बातें करेंगे...



मुझे कोई जल्दी नहीं है, मैं यही पार्क होटल में ठहरी हूँ ... परसों हिमाचल चली जाऊंगी



एक सप्ताह वहाँ रहकर फिर बम्बई...वहीं रहती हूँ....



अरे ये तो अच्छी बात है कभी बम्बई आनाहुआ तो तेरे घर पर ठहरूंगी...

बता कितने अच्चे-बच्चे हैं तेरे...

एक भी नहीं.

आय, लेकिन मैंने जहां तक सुना है तूने शादी की थी की थी पर बच्चे नहीं हैं...



उसकी ओर उमा ने देखते हुए कुछ रुककर फिर कहा..अच्छा छोड़ किसी से तेरा अभी कोई संपर्क है...



है ना , पूनम से..



पूनम का नाम सुमकर उमा चहक पड़ी... उसी कबूतरी पूनम से ..कैसी है वो...अपने पँख खोले या नहीं अभी तक उसने...



बतांऊगी सब इतनी बेसब्र न हो.. पहले तेरे गेस्ट हाऊस चले...



हां,हां ,कहती हुई उमा और रमा लिफ्ट से नीचे उतरी और दोंनो गाड़ी में बैठ गई...



गाड़ी अलीपुर की तरफ चल पड़ी.. गेस्ट हाऊस पहुंच कर उमा ने रमा से कहा..



क्या पियेगी.।कुछ खास नहीं। बस कुछ कोल्डउ ड्रिंक ही चलेगा। नौ बजे कोई गेस्ट आने वाला है मुझसे मिलने के लिये। अभी आठ बज रहे है। पौने नौ पर निकल जाऊँगी।



“बड़ी कैलकुलेटड़ हो गई है आजकल।“ वक्त ने बना दिया।



अच्छा चल कोल्ड ड्रिंक ही पीते है।दृ कह कर उमा फ्रिज खोल कर कोल्ड ड्रिंक लेने चल पड़ी।



कोल्ड ड्रिंक हाथ में लेकर लौटते हुए उसने रमा से पूछा दृ“पूनम कैसी है?, क्या उससे मिल सकती हूँ मैं?“



“हाँ-हाँ क्यों नहीं। आज रात वो किसी पार्टी में गई हुई है। साढ़े दस बजे लौटेगी। मेरी कल ही उससे बातचीत हुई है। अगर सबकुछ ठीक रहा तो कल हमलोग मिलते है। “



“ओ.के.। तू रात को मुझे कनफर्म कर देना। वर्ना कल सुबह कही मैं चली जाऊँगी।



पक्का।



कोल्ड ड्रिंक पीते पीते रमा ने कहा- मैं एक दो बार दिल्ली आई थी। तब तूझसे मिलने की कोशिश भी की। पर तुम विदेश गई । इसलिये मिलना नहीं हो पाया । ‘ अच्छ य कोल्ड ड्रिंक पीते-पीते उमा ने उत्सुकता वश रमा की और देखा , ‘तुने फिर अपना नम्बर क्यों नहीं दिया । मैं फोन कर लेती ।



मुक्षे ये सुजा ही नहीं । फिर मुक्षे लगा पता नहीं इतने दिनों बाद मुक्षे तुम पहचान पाओगी या नहीं । इसी उधेड़- बुन में मै वापस चली आई।



पागल इसमें न पहचानेने वाली क्या बात है। बचपन के दोस्तों को कोई भूलता है क्या ?



‘भूलने वाले’ भूलते ही है’ रमा ने कहा ‘किसकी बात कर रही है तू



‘तूझे याद है हमलोग के साथ सेनल नीम की एक लड़की पढ़ा करती थी।



जो परीक्षा के समय मेरे घर पर मुझसे नोट्स लेने के लिए आया करती थी। जब मेरे मां की मृत्यु अचानक हो गई थी। तब वो मुझे एक दिन रास्ते में मिली पर मुझे देखकर मुंह फेर कर चली गई जब नोट्स लेना रहता था। तो मेरे घर बार-बार आती थी उस समय उसकी सगाई तय हो चुकी थी। वो मेरे बिल्डिंग के बगल वाली बिल्डिंग में रहती थी ।



पर न तो मेरी तो मेरी माँ की मौत पर वो आई न ही उसने मुक्षे अपनी शादी तय होने की बात बताई।



‘ बडी बदतमीज थी वो।



छोडो यार ऐसे लोग होते है दूनिया मै। ऐसे ही लोग हम लोगों को स्पशल बनाते है। अगर सब हम जैसे हो जाये तो दुनिया अलग कहा रही ।



सही बात । अचानक उमा की नजर उसकी घडी़ पर पडी जो आठ- चालीस दिखा रहीं थी



। उमा बोली देख पौने नौ बज रहा है । तू उठ। पर रात को मुक्षे बता देना कल का क्या प्रोग्राम है । पूनम न भी मिली तो हम मिल लेगे।



नहीं नहीं वों जरुर मिलेगी । मुक्षसे ज्यादा तुक्षसे मिलने के लिएऐ वो उत्सुक रहती है। मैं रात के कब तक तुक्षे फोन कर सकती हुँ।



कभी भी । मेरा फोन खुला है। पर मैं मोबइल बंद कर देती हुँ । मेरा लैड लाइन नम्बर तू ले जा।



रमा चली गई । इतने दिनों बाद भी मिलने पर उन्हें अपने बीच कोई दीवार महसूस नहीं हो रही थी। पर उसे समक्ष भी नहीं आ कहा ता कि क्या बात करे।



उमा किताब लेकर बैढ गई। किताब पढते-पढते कब बारह बज गये उसे पता ही नहीं चला । इसी बीच उसके कुछ परिचितो के फोन आते- जाते रहै। जैसे ही वो बेड रुम की तरफ बढी फोन की घंटी बज उठी। उमा ने सोचा इतनी रात गये किसका फोन होगा?



रीसिवर उठाकर उसने जैसे ही हैलो कहा। दूसरी ओर से आवाज आई-उमा ,रमा बोल रही हूँ। पूनम से बात हो गई। वो बहुत खुश हैं। तुझसे मिलने के लिये बेताब है। ऐसा करते है तेरे गेस्ट हाऊस में हम सुबह-सुबह पहुँच जाते है। फिर निश्चिंतता से बात होगी।“



-ठीक है। कह कर उमा ने फोन रख दिया। सुबह जब रमा उमा से मिलने उसके गेस्ट हाउस में घुसी तो उमा ने उसे ध्यान से देखा । साठ वर्ष की उम्र में भी वह आज की लडकियों को मात दे रही थी । इस उम्र में भी रमा काफी आकर्षक गढीले शरीर की स्वामिनी लग रही थी । रही कुची कसर उसके मँहगे कपडे तथा मेकअप ने पुरा कर दिया था । उसे देखकर उमा को अपने तोते पर कोफी दुख हुआ पर बिछड़ी हुई सहेली से इतने दिनों बाद मिलने की खुशी में वो उसे तुरंत भूल गई। उसने हाथ बढ़ा कर आती हुई रमा को अपने बाहौ में भर लिया।



-आओ बैठो। पूनम नहीं आई। उमा ने पूछा दृ आ रही होगी। मेरे मोबाइल पर उसने फोन तो किया था,निकलते वक्त।



तभी रमा का मोबाइल बज उठा। उसने मोबाइल रीसीव किया । पूनम दरवाजे पर खड़ी है बाहर दृमोबाइल रखत् हुये रमा ने कहा।



आजकल जब से मोबाइल आ गया है लोग कालबेल की जगह मोबाईल ही बजाने लग गये है। होलते हुये उमा वफ्लैट का दरवाजा खोलने के लिये आगे बढ़ी। दरवाजा खोलते ही उसे एक आक्रति नजर आई जो मोटी-थुल-थुल,गहनों से लदी,कीमती कपड़े पहने थी। पूनम ऐसी लग रही थी मानो पूरानी पूनम में किसी ने हवा भर दी हो। उमा इसके आगे कुछ सोचती तब तक पूनम खुशी के मारे “हाय उमा हाय मोटी”कहते हुये उससे लिपट गई।



उमा को लगा जैसे तीस-पैंतीस साल सिमट कर उसके वपास एक मिनट में चला आया हो। उसे लगा जैसे कल की ही तो बात है जब पूनम अपनी शादी का कार्ड देने आई थी। तब कितनी खुश थी अपने शादी के निर्णय से वहां पर शायद आज उतनी खुश नहीं लग रही थी। उमा को लगा ये उसका वहम हा। उसे हर किसी को देखकर सोचने की बीमारी हा। उसने तय कर लिया वो आज ये सब नहीं सोचेगी। आज तीनों सहेलियाँ खुल कर बात करेगी। खुल कर आज वो जियेगी। बहुत वर्षो तक वे भविष्य को जी रही थी । भविष्य के बीरे में सोच-सोचकर अन्होने अपना वर्तमान कई वर्षो तक बिगाड रखा था ।



तभी पूनम ने कहा दृइतनी बडी लेखिका हो । पाढकों को काबू में रख सकती हो।तूने क्यौ नहीं रखा । उमा ने उलटा प्रशन किया



अरे मेरा क्या ? मौ तो हाउस वाइफ हूँ । जो होना था होगया । यू तो पब्लिक लाइफ जीती है। मैने सुना है बहुत सारे पुरुष तुक्ष पर लटटू है। उसे कैसे सम्भालती है।



अच्छा पुरुष को काबू में रखने के लिये क्या तोदं काबू में रखना पडता है में बहुत सारी औरतों को जानती हुँ जिनका तोंद उसके काबू में है पर उसका पुरुष नहीं



अब यार तुम लोग बहस करना बद करो । रमा ने कहा दृइतने वर्षो के बाद



मिले है। कुछ अच्छी बातें करो। ये क्या तोदे दृपुरुष औरते लगा रखा है



अरे इसी तीन चीज पर तो दुनिया टिकी है । पेट की आग स्त्री दृपुरुष के



बीच आकर्षण- विकर्षण और राजनीति । उमा ने कहा ।



उमा को तो दो तोदं संभालने बोल रही है । पर अपना क्या हाल बना रखा



है रमा पूनम की और मुखातिब होते हुऐ बोली



अरे मेरी तोद क्या पूरा जीवन ही आऊट आफ कटोल हो गया तुम लोगो नो



तो जीवन के कई रंग देखे खुब नाम कमाया पैसा और शोहरत भी पर क्या



पाया कुछ भी नहीं । पुनम ने रुआसे स्वर में कहा ।



ऐसा क्यो कहती हो । इतने प्यारे प्यारे बच्चे है तुम्हारे । रिंकी जीतू तुने



फोटो भेजी थी ना पिछली बार मुक्षे। रमा ने पूनम की पीठ पर हाथ फेरते



हुऐ कहा ।



हाँ हाँ तो आज कल के बच्चों को माँ बाप की परवाह कहाँ होती है। उन्हे



तो बस पैसों से मतलब रहता है। उनके मामलों में कोई दखल मत



डालो । जब जरुरत पडें तो पैसा दे दो । बस माँ दृबाप का फर्ज पूरा ।



उनका तो जैसे कोई फर्ज ही नहीं बनता । लडका अमेरीका पढने चला गया



कहता है वही बस जाऊँगा। वही किसी अमेरिकन लडकी से शादी कर लूगा



ताकि ग्रीन कार्ड आसनी से मिल जाऐ । रिंकी तो एक विदेश बैक में काम



करती है । देर रात आती है कुछ बोलो तो कहेगी दृमाँ तुम तो दकियानूस



हो उमा और रमा आँटी से कुछ सीखो। खुद भी जीओ और दुसरों को भी जी



ने दो कहते कहते पुनम का गला भर आया । उमा ने उसकी तरफ



पानी का गिलास बढाते हुऐ कहा- ठीक ही तो कहती है जब तुमने उसे इतना



पढाया लिखाया है तो उसे खुद जीने दो । आजदी दो । अपने निर्णय खुद



लेने दो । वो कोई बच्ची तो नहीं है भगवन ने उसे एक अदद सा



दिमाग दिया है । उसे उसरा अस्तेमाल करने दो । तुम अपना दिमाग



अपने लिये इस्तेमाल करो



उमा तुम भी । पूनम ने लाचार नजरौं से उसे देंखा।



तभी रमा बोली दृठीक- कह रही है । उमा । तुमने अपने अपने दिमाग का



इस्तेमाल कब किया है । अंकल ने तुम्हरे लिये लडका देख दिया



तुमने उससे शादी कर ली । स्कूल पास करने के बाद हमने आर्टस लिया तुमने भी ले लिया जिस कालेज में हमलोग गये वही पीछे दृपीछे तुम हो ली । तुमनें कभी विरोध और



सहनति के स्वर ही नहीं रहे। मुक्षे लगता है इन तीस सीलों में भी नहीं रहा होगा ।



तभी फ्लेट का केयर टेकर वहाँ आया वो सावधान की मुदा में दोनों हाथ आगे करके उमा के समाने खडा हो गया । उसे देख कर उमा सपक गई दृये नाशते का आर्डर लेने आया है। उमा ने कहा दृजो भी अच्छी चीजै मिलती है । ले



आओ । पर ढेर सारे बंगाली सदेशे काँचा गोल्ला और ढोकला जरुर लाना



नमकीन में कुछ खास दृ केयर टेकर ने पूछ ।



ऐसा कुछ खाज नहीं । दही दृकचैडी पापडी आलू- टिकिया



मटर पैटीस यही सब । उमा ने जैसे अपने घर से भार उतारते हुये कहा । केयट टेकर से बात करके उमा की



नजर जब पूनप परल गई तो उसे लगा पुमम गुमशुम बैठी है । लगता है रमा की बात उसे चुब गई । उधर पुनम अंदर सोच रही थी इससे अच्छा तो घर पर ही थी । अपनी खोल मैं । पता नहीं आज कल उसे क्या होगया है । उसे किसी की बात बर्दाशत नहीं .

शुक्रवार, 11 जून 2010

भोपाल गैस कांड -कुछ सवाल

भोपाल गैस कांड से कुछ सवाल उठाते है - जैसे कि क्या किसी भारत के आम आदमी के सहायता हेतु भारत का कोई भी मुख्य मंत्री अपनी प्लेने दे सकता है ? कोई मुख्य सचिव सीधे फ़ोन उठा कर किसी आम जनता की रवानगी के लिए कदम उठा सकते है, कोई पुलिस अधीक्षक किसी आम जनता के लिए इतनी तत्परता से काम कर सकता है जैसा कि ANDERSON के केस में हुआ. हमारे देश में DM सीधे -मुंह तो आम जनता से बात नहीं करती पर ANDERSON के केस में उसे अपनी गाड़ी ही पकड़ा दी....इसे कहते है बिजली की गति से काम करना . कौन कहता है हमारे नौकरशाह और नेता ढीले ढाले है......?
फिर हम संप्रभुता सम्प्पन देश है , जिसके मुंह में तमाचा मार कर ANDERSON पूरी चाक- चौबंद भारतीय पुलिस सुरक्षा में नेताओ की अत्यधिक तत्परता में भाग गया या भगा दिया गया . हमसे अच्छे तो अमेरिकी है जिसकी सरकार अपने आदमी / नागरिक को बचाने के लिए हमारे नेताओ की कान पकड़ कर काम करवा लेते है और हम है कि अपने ही देश के २० हजार आम जनता के कातिल की भागने में मदद करके बाद में कोर्ट - कचहरी में २५ साल से नाटक कर रहे है इंसाफ दिलवाने का....पता नहीं मीडिया बंधू इस पर क्यों इतना भिड़े हुए है... आज की तारीख में उसपर भी भरोसा करने का मन नहीं करता ... पर फिर भी उन्ही के कारण यह मुद्दा लोगो तक फिर से जिन्दा हुआ है... कही मीडिया बंधू अपनी ताकत जातवा कर सरकार से कुछ ऐठने के चक्कर में तो नहीं है ....बिना भाव के तो तरकारी भी नहीं बिकती यहाँ पर फिर ये तो मीडिया की ताकत की बोली है....जितनी ताकतवर मीडिया उतनी बड़ी उसकी बोली....गुलाम है हम आज भी तभी वर्दी में खड़ा पुलिसवाला भगवा देता है अपने ही देशवाशियो के कातिल को ....ये सोच कर कि कातिल सफ़ेद चमड़ी वाला है जिसने हम पर वर्षो शासन किया....हाय रे आजादी ....मेरा भारत महान....

सोमवार, 7 जून 2010



अभी हाल में मैंने महिला पत्रकारों के क्लब में एक मीडिया वोर्कशोप का आयोजन किया यहाँ मीडिया के विद्यार्थियो को जमीनी पत्रकारिता से दो- चार करवाने की कोशिश की . इस काम में मेरा साथ वरिष्ठ पत्रकार प्रीति बजाज ने दिया. यहाँ वरिष्ठ पुलिस डॉ आदित्य आर्य ने छात्रों को मीडिया और पुलिस की जमीनी सच्चाई से अवगत करवाया जो आगे जा कर उनके पत्रकारिता के काम में काफी मददगार साबित होगा.उनोह ने उनसे नैना सहनी मडर केस से ले कर अध्यात्म पर बात की और उनके सभी प्रश्नों का जबाब दिया. मेरी यही कोशिश रहेगी की आने वाले दिनों में मै मीडिया के छात्रों को जमीनी पत्रकारिता से अवगत कराती रहू.

बुधवार, 24 मार्च 2010

जागरूक जनता और नए राज्य

राज्य बनाना आसान है पर न्याय दिलाना कठिन. राज्यों की संख्या बढा कर हम अशंतुष्ट को संतुष्ट तो कर सकते है पर पीडितो को न्याय तभी मिलेगा जब नए राज्यों में भी भ्रष्टाचार , भाई- भतीजावाद ,बईमानी पाव नहीं पसरेगी . जागरूक जनता ही भ्रष्टाचार को फैलाने से रोक सकती है .भ्रष्टाचार को अगर रोकना है तो हमे जनता को जागरूक करना पड़ेगा .
जनता नए छोटे राज्यों की मांग इसलिए करती है कि उनेह छोटे राज्यों कि मांग इसलिए करती हिया कि उनेह छोटे-मोटे कामो के लिए अपने दूरदराज गाँव - कस्बो से राज्य की राजधानी में आना पड़ता है अपना छोटा -छोटा काम करवाने के लिए भी. अगर वे अपने ही गाँव -कस्बो से कम दूरी पर अपना काम करवा ले तो उनेह इतनी दूर पर अपना काम करवाने के लिए राजधानी के चक्कर नहीं लगाने पड़ेगे .इसके लिए सरकार को सरकारी काम - काज का विकेन्द्रीयकरण करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए ताकि जनता को सुविधा मुहैया हो सके . न कि एक जगह सारी शक्ति को केन्द्रित करके रख देना चाहिए . राज्यों कि राजधानी में ठहरने , खाने -पीने ,यातायात की समस्या से लेकर बिचौलियो ,सरकारी बाबुओ के नखरे तक उनेह झेलने पड़ते है . अगर सरकार ग्रामीण जनता की इन समस्यायों का समाधान कर दे तो जनता राज्यों के बटवारे की मांग को खुद ख़ारिज कर देगी .
जनता को यह भी समझाना होगा कि जो नए गठित राज्य है क्या इससे वहां के निवासियो का क्या भला हुआ है, विकास हुआ है ?जमीनों के लगातार बेहताशा बढ़ते दाम विकास का सूचक नहीं है, न ही नए -नए मॉल कपड़ो की दुकाने . स्कूल , कालेज , अस्पताल , बेहतर जीवन - शैली , पर्यावरण को कम नुकसान होना आदि ये विकास के सूचक है . क्या ये किसी नव गठित राज्यों में पुराने राज्यों की तुलना में जनता को बेहतर तरीके से उपलब्ध हो सका है? अगर हाँ तो नए राज्यों का गठन सही हिया वर्ना गलत . झारखण्ड जैसे नए राज्य के गठन से वहां की जनता को क्या मिला
सिवाय कोड़ा जैसे मुख्यमंत्री के वर्ना खनिज सम्पदा से भरा यह राज्य अपने राज्यवासियो के साथ और बेहतर हो सकता था . वही बिहार जैसा राज्य अच्छे नेतृत्व क्षमता के कारण आज प्रगति की राह पर चल रहा है . मायावती के आने से दलितों का कितना भला हुआ या विकास हुआ ? दलितों के लिए स्कूल , कालेज ,अस्पताल खुलवाने की बजाय इस महिला ने इतने पार्क और मुर्तिया बनवा दी कि आनेवाले समय में लोग मायावती को " मुर्तिवती " या "पार्कवती " कहा करेगी . एक अध्यापिका होकर भी मायावती ने शिक्षा की जगह केक काटने और पार्क जैसे विलासिता पूर्ण चीजो को को महत्व दिया . जनता द्वारा दिए गए अवसर को उनोहने सही उपयोग नहीं किया .
इस कारण जनता को आनेवाले दिनों में सही नेतृत्व के लिए प्रयासरत होना चाहिए और उनेह समर्थन देना चाहिए बजाय कि नए राज्यों की मांग को . इसके लिए मीडिया को जनता को तैयार करना पड़ेगा सही रास्ता दिखाकर.

शनिवार, 13 मार्च 2010

PAID NEWS- POLITICAL PARTIES FIRST TIME CHEATED BY MEDIA HOUSES.

There was a seminar today on MALPRACTICE OF ADVERTISMENTS BEING PURVYED AS NEWS in Speaker’s Hall, of Constitution Club, Panel were Election Commissioner Mr. S.Y. Qureshi,Leader of the Opposition: Ms. Sushma Swaraj ,CPI (M) General Secretary: Mr. Prakash Karat ,Congress spokesman: Mr. Manish Tewari ,Prasar Bharati Chairperson: Ms. Mrinal Pande ,Editorial Director: Mr. T.N. Ninan ,& politician Mr.Ansari were there.
The whole debate was that this is the first time the corruption of media has pinched the political parties interests otherwise corruption was there also but at that time it was managed by political parties in their interest . But now political parties are paying money but the media houses are taking money from both the parties and praising & accusing both- opposition & ruling party . So it is hurting political parties interests . What I feel that political parties are demanding principle in dishonesty.
This is not that political parties are not aware of dishonesty of media houses, they are very much aware of the media houses malpractices toward their employees either in terms of paying them less, making them working late, throwging their story in dustbin if it is harming the interest of owners. But time non of the political parties are interested in raising this issues.
This time they are raising the issues because media’s marketing managers are making fool out of them by taking money from all the parties so they are feeling victimized. Look at the mind track of media baron they feel that till now politician has used the country to make money and served their own purpose but now this marketing managers of media houses & media owners are becoming more smart then politician so thay are fooling them and making money out of them. Might be our political bosses are not liking it so they want to control media so that media can work accourding to their wishes.
In democracy opinion force the people to take a decision - “which party to vote or not” so the role of media is very important over here .Now media houses are able to realize its power and (mis)using it.Now their powers heat is hurting the political bosses’s interest so they are worried.
When I asked Sushma Swaraj that in our country a media student who is coming out of media education institution after paying 1lacs fees and after working for six month- one year are not able to fetch a job , how he/ she afford to be honest for how long.How long his/her family is going to make them support. She said – is this a place for the empowerment of stringers and Manish Tiwari of Congress also replied in the same tone. It shows that political parties are not interested in the exploitation of the small journalists or younger lot they are more interested in controlling media for their own interest.
Ms Swaraj has complain that media call politician corrupt , now how corrupt they have became?
But who will tell her few smart people in media has learned the corruption from them only .
Has anyone asked these rich editors- how many farm houses they are owning?
The big question is who is going to put a bell in the neck of a cat!!!!!!!!
One good point raised by my fellow journalist friend that when in the era of everyone from sports person , film stars to businessmen paying the media houses to get their published why bashing politician alone…..!!!!!!!!!!!!

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

स्वयाम्बर राहुल महाजन का

मीडिया की स्थिति कार्यक्रम के चयन के मामले में दिनोदिन उसके सोच के दिवालियेपन का धोतक होती जा रही है. पहले राखी सावंत का स्वयाम्बर अब राहुल महाजन का . राखी का स्वयाम्बर तो समझ में आता भी है पर राहुल महाजन . राहुल किस दृष्टि से एक योग्य वर नज़र आते है यह तो किसी भी साधारण समझ वाले आदमी की समझ में न आये . पर टीआरपी के इस दौर में सही -गलत की पहचान लगता है मीडिया में क्षीद होती जा रही है. पहले स्वयाम्बर उस व्यक्ति या स्त्री का होता था जिसके गुडो की चर्चा दूर -दूर तक होती थी. राहुल महाजन के गुडो (?) की भी चर्चा मीडिया में पिछले कुछ वर्षो से खूब रही है . चाहे वो ड्रग लेने से लेकर जेल जाने सम्बंधित हो या शादी के बाद पत्नी की मार-पिटाई फिर तलाक़ से सम्बंधित हो. राहुल के गुडो का बखान यही नहीं रुकता है ,बिग बॉस में महिला कलाकारों से उनकी नजदीकियो को लेकर रोज अख़बार रंगे रहते थे. इतनी जानकारियो के बाद भी अगर कोई परिवार अपनी लड़की की शादी राहुल से करना चाहेगा तो कहना पड़ेगा कि आज के बाज़ार में सब कुछ संभव है.बाज़ार इस लिए कि आज पूरा समाज एक बाज़ार में तब्दील हो गया है जो बिक रहा है वो टिक रहा है. चाहे गलत या सही. क्या जीवन मूल्यों के ये माप- दंड हमे सही रास्ते पर ले जाये गे दूर तक. अर्थशास्त्र में दो तरह के फायदे होते है- छोटे समय के लिए और दूसरा लम्बे समय के लिए . अर्थशास्त्र कहता है कि लम्बे समय के फायदे के लिए छोटे समय के फायदे को दरकिनार कर देना चाहिए . पर आज समाज और मीडिया का हर कदम यह बतलाता है कि छोटे समय का फायदा अपनाओ , आगे किसने देखा है तो लम्बे समय के फायदे भी किसने देखे है .क्या ये सोच हमे आगे तक ले जायेगी ? एक और सोच यह हो सकती है कि मीडिया किसी गरीब -काबिल , हुनरमंद ,जूझारू लड़के को इस कार्यक्रम के माध्यम से समाज के सामने लाये .इस कवायत से समाज,चैनल और उस लड़के का भी भला हो सकता है और समाज के सामने एक सुन्दर - स्वस्थ आदर्श भी स्थापित हो सकेगा. इससे समाज यह सोचने पर मजबूर हो सकता है कि इस ज़माने में संघर्ष ,मेहनत से भी आकाश की बुलंदिया छुई जा सकती है बजाय कि केवल किसी नामी पिता के नाम के सहारे अपने हिलते डुलते वजूद को समाज में खडा करना . पर समाज -मीडिया क्या यह करने के लिए तैयार है ? अगर नहीं तो आनेवाले दिनों में मीडिया समाज का प्रहरी होना का हक भी खो देगा. वह दिन दूर नहीं कि जब लोग मीडिया , नेता , नौकरशाह सभी को एक साथ खडा कर के कोसना शुरू कर देगे. अभी तक तो जनता मीडिया के माध्यम से नेता , नौकरशाह और समाज की बुरईयो का मुकबला करती आयी है. जिस दिन वो इस अंतर में फर्क करना बंद कर देगी उस दिन मीडिया समाज में खुद को कहा खडा पायेगा. मीडिया को आनेवाले दिनों में इस पर जल्दी कुछ ठोस सोचना चाहिए वरना कही देर न हो जाये और फिर " का वर्षा जब कृषि सुखानी ...."

शनिवार, 23 जनवरी 2010

आज 26 जनवरी का फुल ड्रेस रिहर्सल देखा , देख कर शरीर में एक गर्माहट , एक रोमांच , एक गर्व की अनुभूति होती है .अपने भारतीय होने पर ... गणतंत्र दिवस की सभी को बधाई

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

पत्रकार मित्र को कुछ लिखना हो शीला दीक्षित पर

अगर किसी पत्रकार मित्र को कुछ लिखना हो शीला दीक्षित की बाहरवालों को दिल्ली में आने की सलाह पर तो यह बता दे शीला जी को कि दिल्ली को विकाश के लिए देश का कितना प्रतिशत बजट मिलता है और गरीब गाँव को कितना. अगर देश के गरीब गाँव को भी अगर इतना मिलना शुरू हो जाये और उसका विकाश शुरू हो जाये तो कोई दिल्ली नहीं आना चाहेगा.
जब देश का पैसा लगा हो किसी जगह तो हर देशवासियो का अधिकार होता है उस जगह पर.