सोमवार, 31 दिसंबर 2012

लड़ो की तुमको लड़ना है लड़ कर जीने का हक हासिल करना है . ये दुनिया जो तुमेह गर्भ से इस दुनिया में आने के लिए प्रतिबंधित करती है आने के बाद हर पल तुमसे तुम्हारे लड़की होने का हिसाब मांगती है। हिसाब देते -देते तुम्हारी जबान भले ही थक जाये , पर उनके प्रश्न नहीं रूकते . आओ इन प्रश्नों को बदल दे , इन प्रश्न करनेवालों को बदल दे . आओ लड़े कि तुमेह जीने का हक हासिल करना है अपने लिए अपने सुंदर कल के लिए। माधवी श्री 29/12/12

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

शहरी लडकियो या महिलाओ

आज शहरी लडकियो या महिलाओ का नाम सुनते ही दिमाग में एक ऐसी छवि आजाती है जो धाकड़ है, कसे हुए कपडे पहनती है, रुमाल से भी ज्यादा बॉय फ्रेंड बदलती है, जिसे ज़माने की कोई परवाह नहीं है,लिपे -पुते चेहरे, जो बिंदास है, कुछ भी कर सकती है...कुछ भी ...आपकी कल्पना से परे. पर हकीक़त हमेशा से कल्पना से परे होता है. शहरी लडकियों की जिंदगी में तीस की उम्र के बाद "ओले " क्रीम सेंध लगाती है या कई कंपनियों के विज्ञापन उनके दिमाग में छाने लग जाते है जो उसकी उम्र को कम कर के दिखाने की पूरी गारंटी देते है शहरी औरते भी पूरी कोशिश करती है कि उसे एक बहुत प्यार करनेवाला पति मिले (ये मेरे ख्याल से दुनिया से हर कोने में बसनेवाली औरत की पहली और आखरी खाविस हो , अपवाद यहाँ भी हो सकते है, उसकी गारंटी मै नहीं लेती . आदि काल से नियमो के अपवाद हमेशा रहे है ) ,शहरी औरत भी अपनी तलाक या उसके पति से अलगाव के बारे में बाते छिपाती फिरती है , वो कोई इसे सहजता से नहीं लेती है. उम्र बढ़ने के साथ अगर शहरी लडकियो की शादी नहीं होती है तो ताने उसे भी सुनने पड़ते है, उसकी भी उम्र छिपा कर दूबारा लड़के वालो को दिखाया जाता है. सजा -धजा कर उसे भी तैयार किया जाता है ताकि उसे कोई पसंद करले और उसकी शादी हो जाये . आज भी अक्षत वर्गिनिटी की चाह हर पुरुष को होती है खास कर शादी के मामले में . इस कारण देश से लेकर विदेशो में इस मेडिकल ट्रीटमेंट का कारोबार बहुत फल- फूल रहा है. चाहे ट्राफिकिग में फासी हुई लडकिया हो या विवाह बंधन में फसने के लिए तैयार लडकिया सभी जगह वर्जीन लडकियो की ही मांग है. इस लिए अगर कोई सोचता है शहरी लडकियो का जीवन बहुत उन्मुक्त और समस्यायों से मुक्त है तो उनेह ठहर कर अपने दिमाग को थोडा हिला कर झाड़ लेना चाहिए . आज भी शादी से इतर महिलाओ के लिए और कोई जीवन नहीं सोचा गया है. आम लडकियो की बात रहने दे , फ़िल्मी हिरोएनो पर भी बढाती उम्र के साथ शादी का दवाव बढ़ जाता है. अखबारों के आधे से ज्यादा पन्ने इन्ही खबरों से रंगे मिल जाये गे कि कौन सी हिरोएन किसको डेट कर रही है. अभी हाल में ही प्रीटी जिनता का ब्रेकअप जब नेश वाडिया से हुआ तो तमाम प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक प्रीटी के लिए सहानूभूति का भाव रखते हुए अपने दुखड़े लेकर बैठ गए. जैसे प्रीटी का जीवन अब समाप्त हो गया. ये सिर्फ प्रीटी का हाल नहीं है नरगीश ,हेमा मालिनी, रेखा, तीन मुनीम ,माधुरी दीक्षित से लेकर तमाम अभिनेत्रियों को इस सुलगते हुए सवालो से गुजरना पड़ा. इस शादी के बॉक्स से इतर आज भी महिलाओ का भविष्य नहीं है चाहे वो ग्रामीण हो या शहरी. अब इस मामलो से जरा दो- चार हो कि महिलाओ को क्या उसके सेक्सुअलिटी और उम्र से इतर देखा जाता है या यू कहे कि समझा जाता है या उसके साथ एक इंसान की तरह पेश आया जाता है. अभी हाल में एक खबर आई कि दक्षिण भारत में टीचर जब ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिख रही होती है तब कुछ छात्रों ने मोबाइल से उसकी तस्वीरे उतार ली. इस कारण से महिला टीचरओ को निर्देश जारी किया गया कि वे " ढंग " के कपडे पहन कर आये. छात्रो को सभ्यता सिखाने की कोशिश नहीं की गयी. "लड़के तो मन चले होते ही है. " ये हमारे समाज की" आम और खास" धारणा है. उदारवाद का असर यह हुआ है कि लड़के /छात्र जो पहले कभी अपनी महिला टीचर को "गुरु " का दर्जा दे कर सम्मान दे दिया करते थे अब वे भी उसे "आइटम " समझाने लग गए है. पहले उनकी सहपठिया उनके दिमागी अय्याशी का सामान हुआ करती थी , अब दायरा बढ़ कर महिला टीचर तक जा पंहुचा है. ये है हमारे उदार शहरी जीवन का सच. अब इससे इतर जरा उन लडकियो के जीवन में झाके जो अपने घर से दूर बड़े शहरो में पढने आती है . यहाँ भी उनेह अपने पीजी में काम कर रहे पुरुष कर्मचारियो के " खोजी निगाहों " का सामना करना पड़ता है. कम तनख्वा में काम कर रहे इन कर्मचरियों का पैसा वसूल या यू कहे मेहनताना इन लडकियो को देख कर उसूल हो जाता है. पैसे देने के बावजूद भी अपने हक की सुविधाओ के लिए उनेह इन पुरुष कर्मचारियो की चिरौरी करनी पड़ती है. क्या कहे इसे शहरी जीवन की विडम्बना ? अभी हाल में मुंबई में एक वाचमैन द्वारा पल्लवी पुरकायस्थ नामक पच्चीस वर्षीया युवती की हत्या इसका जीता जगाता उदहारण है जहाँ निचले स्तर पर काम करनेवाले लोग भी लडकियो को काबू में करने के लिए "रेप " को हथियार बनाते है . खबरों के मुताबिक इस हत्या के पहले भी वाचमैन ने पल्लवी पुरकायस्थ के साथ शारीरिक छेड़- छड करने की कोशिश की थी.पल्लवी के पिता का आई ए एस होना भी उसकी रक्षा नहीं कर सका . " आम धारणा "है चाहे वो पढ़े लिखे पुरुषो की हो या अनपढ़ की - कम कपडे पहननेवाली , बिना शादी किये किसी पुरुष के साथ रहनेवाली लडकिया हर किसी के लिए उपलब्ध सामान है. वो ना कैसे कर सकती है किसी को अगर वो किसी और को "उपलब्ध " है तो. ये सिर्फ अनपढो की दस्ताn नहीं है . किसी भी महिला लेखिका या महिला पत्रकारों के बारे में जानना है तो जरा किसी भी मीडिया समाचार का वेब साईट खोल ले , उसमे महिला के बारे में जो यश गाथा लिखी आपको मिल जाये गी उसे पढ़ कर आप को लगेगा कि आप अनपढ़ गावर होते तो ज्यादा अच्छा था या साri महिला लेखिका / पत्रकार अपने मुकाम तक इन रास्तो से हो कर गुजरी है. कमोबेश ये हाल सभी पेशे का है - चाहे डॉक्टर हो नर्स हो , वकील हो , प्रवक्ता हो , राजनीती हो ...किस -किस क्षेत्र का नाम गिनाया जाये . महिलाओ के लिए सबसे सेफ समझे जानेवाले टीचर के पेशे में भी ये बात लागू होती है . पर सच्चाई इससे इतर भी है. बहुत सारी औरतो की फ़ौज है जो आज भी अथक परिश्रम करके अपने सफलता की उचइयो तक पहुची है.इन पर बाते करना कोई नहीं चाहता है. . क्यों कि इन बातो में "रस " नहीं है. आप चटकारे नहीं ले सकते , इन पर बाते करने के बाद आपको " चटकारे " जैसा स्वाद नहीं मिलता. दिमाग को भी सकूं नहीं मिलता तो क्या करे इन वे बजह कि बाते करके.

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

खामोश अदालत जारी है

अभी हाल में मुझे मेरठ के एक मीडिया संस्थान Indian Institute of Film &Television में जाने का मौका पड़ा. वहां के छात्र - छात्रो द्वारा विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित और संदीप महाजन द्वारा निर्देशित नाटक " खामोश अदालत जारी है " देखने का मौका मिला. नाटक था तो मेरठ के मीडिया संस्थान के छात्रों द्वारा इस कारण मेरी अपेक्षा बहुत नहीं थी , पर चूकि विजय तेंदुलकर के नाम के आकर्षण ने मुझे वहा जाने पर मजबूर कर दिया. नाटक मध्यवर्गीय समाज और राजनीतिक जगत के दोहरी मानसिकता को रेखांकित करती हुआ समाज के असली चेहरे को परत दर परत उघरता चला जाता है. यह नाटक माना कई दसक पहले लिखा गया हो तेंदुलकर साहब ने पर यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय हुआ करता था. इस नाटक में एक शिक्षिका बेनारे बाई के माध्यम से समाज के ठेकेदारों का असली चेहरा धीरे - धीरे नाटक के साथ -साथ दर्शको के सामने खुलता जात है. नाटक में एक घूमंतू गैर पेशेवराना नाटक कंपनी के करता धर्ता और कलाकार एक धनी दम्पति मिस्टर और मिसेस कांशीराम है ,उनका दतक पुत्र , एक असफल वकील , एक असफल वैज्ञानिक ,एक नाटक निर्देशक और एक स्थानीय व्यक्ति के माध्यम से नाटक आगे चलता है अद्रश्य पात्र एक प्रोफेसर का है. मिस बेनारे एक स्वतंत्र विचार वाली महिला है जो जीवन अपने "मूल्यों" के हिसाब से जीना चाहती है. उसका खुलापन तो सबको भाता है "दिल बहलाने" के लिए पर समाज में उसकी स्वीकृति एक "सम्मानित स्त्री" के हिसाब से नहीं होती है. उसके परिचित लोगो को जब यह भनक पड़ती है कि उसने अपनी अस्मिता बचाने के लिए अपने बच्चे की भ्रूण हत्या कर दी है तो उससे यह उगलवाने के लिए वे एक नाटक रचते है नाटक के अन्दर. उस नाटक के जाल में वे मिस बेनारे को फंसा कर उससे कूबुलवाने की कोशिश करते है कि उसने भ्रूण हत्या कि है जो एक जघन्य पाप है. मिस बेनारे उनके चालो को भाप तो जाती है पर कही न कही एक इन्सान होने की कमजोरी के तहत वो नाटक में कही- कही टूटने लगती है , अपना बचाव करने लगती है. उस समय उसका " बेबस स्त्री" होने का रूप सामने आता है , जो बहुत दयनीय है. समाज के ठेकेदार और करीबी लोग किस तरह किसी का जखम उघाड़ कर देखने का मज़ा लेते है यह इस नाटक में हर वक़्त एहसास होता है. भले ही कोई अपने पेशे में सफल न हो उसका चरित्र बहुत बेहतर न हो पर दूसरे के चरित्र की कमिया निकलने में कोई पीछे नहीं हटता. मिस्टर काशीराम वैसे तो अपनी पत्नी को कही बोलने का मौका नहीं देते और मिसेस काशीराम जो हर वक़्त अपने पति की घुड़की खाती रहती है पर बात जब बेनारे बाई पर आती है तो दोनों एक हो कर मकसद को अंजाम देने के लिए एक जुट जाते है.हर पात्र बेनारे बाई को अपने तरीके से ठोक - बजा कर उससे दबी हुई सच्चाई को निकलना चाहता है. इस प्रक्रिया में इन्सान क्या -क्या रूप बदलते है यह इस नाटक में बखूबी जीवंत तरीके से दिखाया गया है. पूरे नाटक को Indian Institute of Film &Television मीडिया संस्थानों के छात्रों - छात्राओ ने बखूबी उकेरा है और अंत तक अपने अभिनय से दर्शको बांध कर रखा . कही से नहीं लगा कि मेरठ जैसे टू टायर शहर के होनहारो ने यह नाटक इतनी सहजता और जीवंत तरीके से किया है. इस नाटक में शैलजा टंडन ने मिस बेनारे के पात्र में जो जीवंतता डाली है उसे शब्दों में बंधना मुश्किल है.अगर मिस्टर काशीराम और मिसेस काशीराम के किरदार को राजेश भाटी और रुक्सार ने जान डाल दिया तो अन्य पात्रो को निशांत ,करण, मनीष , प्रांशु , अंशुल ,शिवान्सु , राजपाल, ललित , जोगिन्दर और राहुल ने बखूबी जिया. नाटक विभाग के अध्यक्ष प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता पेंटल का कहना था कि इस शहर के बच्चो में बहुत प्रतिभा है बस जरूरत है उसे उकेरने की. लाइट की व्यवस्था संजू गौतम , संगीत जीशान अहमद -विलायत हुसैन की देख -रेख में रहा है. इस संसथान के प्रबंधक विपुल सिंघल का कहना है कि उनकी टीम इस संसथान को उच्च स्तर की बनाने के लिए कटी बद्ध है. अभी हाल में मुझे मेरठ के एक मीडिया संस्थान Indian Institute of Film &Television में जाने का मौका पड़ा. वहां के छात्र - छात्रो द्वारा विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित और संदीप महाजन द्वारा निर्देशित नाटक " खामोश अदालत जारी है " देखने का मौका मिला. नाटक था तो मेरठ के मीडिया संस्थान के छात्रों द्वारा इस कारण मेरी अपेक्षा बहुत नहीं थी , पर चूकि विजय तेंदुलकर के नाम के आकर्षण ने मुझे वहा जाने पर मजबूर कर दिया. नाटक मध्यवर्गीय समाज और राजनीतिक जगत के दोहरी मानसिकता को रेखांकित करती हुआ समाज के असली चेहरे को परत दर परत उघरता चला जाता है. यह नाटक माना कई दसक पहले लिखा गया हो तेंदुलकर साहब ने पर यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय हुआ करता था. इस नाटक में एक शिक्षिका बेनारे बाई के माध्यम से समाज के ठेकेदारों का असली चेहरा धीरे - धीरे नाटक के साथ -साथ दर्शको के सामने खुलता जात है. नाटक में एक घूमंतू गैर पेशेवराना नाटक कंपनी के करता धर्ता और कलाकार एक धनी दम्पति मिस्टर और मिसेस कांशीराम है ,उनका दतक पुत्र , एक असफल वकील , एक असफल वैज्ञानिक ,एक नाटक निर्देशक और एक स्थानीय व्यक्ति के माध्यम से नाटक आगे चलता है अद्रश्य पात्र एक प्रोफेसर का है. मिस बेनारे एक स्वतंत्र विचार वाली महिला है जो जीवन अपने "मूल्यों" के हिसाब से जीना चाहती है. उसका खुलापन तो सबको भाता है "दिल बहलाने" के लिए पर समाज में उसकी स्वीकृति एक "सम्मानित स्त्री" के हिसाब से नहीं होती है. उसके परिचित लोगो को जब यह भनक पड़ती है कि उसने अपनी अस्मिता बचाने के लिए अपने बच्चे की भ्रूण हत्या कर दी है तो उससे यह उगलवाने के लिए वे एक नाटक रचते है नाटक के अन्दर. उस नाटक के जाल में वे मिस बेनारे को फंसा कर उससे कूबुलवाने की कोशिश करते है कि उसने भ्रूण हत्या कि है जो एक जघन्य पाप है. मिस बेनारे उनके चालो को भाप तो जाती है पर कही न कही एक इन्सान होने की कमजोरी के तहत वो नाटक में कही- कही टूटने लगती है , अपना बचाव करने लगती है. उस समय उसका " बेबस स्त्री" होने का रूप सामने आता है , जो बहुत दयनीय है. समाज के ठेकेदार और करीबी लोग किस तरह किसी का जखम उघाड़ कर देखने का मज़ा लेते है यह इस नाटक में हर वक़्त एहसास होता है. भले ही कोई अपने पेशे में सफल न हो उसका चरित्र बहुत बेहतर न हो पर दूसरे के चरित्र की कमिया निकलने में कोई पीछे नहीं हटता. मिस्टर काशीराम वैसे तो अपनी पत्नी को कही बोलने का मौका नहीं देते और मिसेस काशीराम जो हर वक़्त अपने पति की घुड़की खाती रहती है पर बात जब बेनारे बाई पर आती है तो दोनों एक हो कर मकसद को अंजाम देने के लिए एक जुट जाते है.हर पात्र बेनारे बाई को अपने तरीके से ठोक - बजा कर उससे दबी हुई सच्चाई को निकलना चाहता है. इस प्रक्रिया में इन्सान क्या -क्या रूप बदलते है यह इस नाटक में बखूबी जीवंत तरीके से दिखाया गया है. पूरे नाटक को Indian Institute of Film &Television मीडिया संस्थानों के छात्रों - छात्राओ ने बखूबी उकेरा है और अंत तक अपने अभिनय से दर्शको बांध कर रखा . कही से नहीं लगा कि मेरठ जैसे टू टायर शहर के होनहारो ने यह नाटक इतनी सहजता और जीवंत तरीके से किया है. इस नाटक में शैलजा टंडन ने मिस बेनारे के पात्र में जो जीवंतता डाली है उसे शब्दों में बंधना मुश्किल है.अगर मिस्टर काशीराम और मिसेस काशीराम के किरदार को राजेश भाटी और रुक्सार ने जान डाल दिया तो अन्य पात्रो को निशांत ,करण, मनीष , प्रांशु , अंशुल ,शिवान्सु , राजपाल, ललित , जोगिन्दर और राहुल ने बखूबी जिया. नाटक विभाग के अध्यक्ष प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता पेंटल का कहना था कि इस शहर के बच्चो में बहुत प्रतिभा है बस जरूरत है उसे उकेरने की. लाइट की व्यवस्था संजू गौतम , संगीत जीशान अहमद -विलायत हुसैन की देख -रेख में रहा है.

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

"कहानी "

"कहानी " फिल्म कई कारणों से लोगो के जहन में कई दिनों तक रहेगी. कुछ इसे विद्या बालन की एक्टिंग के कारण याद रखेगे, कुछ सुजोय घोष के निर्देशन के कारण , कुछ कोलकाता को नए सिरे से दर्शको के सामने पेश किये जाने के कारण याद करेगे . बहुत वर्षो के बाद कोलकाता को केंद्र में रख कर कोई फिल्म पूरी तरह से फिल्माई गई है. इस फिल्म के शुरुआत में कहानी जितनी सरल दिखती है दर्शको को , आगे बहते -बहते कहानी एक थ्रिलर बन जाती है. हर लम्हा कहानी का एक नया सिरा दर्शको के सामने खोलता है. कैसे एक साधारण सी लगने वाली एक कंप्यूटर इंजिनीयर गर्भवती स्त्री अंत में अपने पति की मौत का बदला लेनेवाली एक आर्मी ऑफिसर की विधवा निकलती है .यह दर्शको को अंत में चौका देता है .सिस्टम द्वारा इस्तेमाल होते होते सिस्टम को ही इस्तेमाल कर जानेवाली एक साधारण सी औरत की ये असाधारण कहानी है. विद्या बालन की दमदार एक्टिंग के कारण इस फिल्म को चलने में काफी मदद मिलेगी. पूरी फिल्म विद्या अपने कंधे पे ले कर चलती है. इस फिल्म में बंगाल के कलाकारों को दर्शको के सामने अपना हुनर दिखने का काफी मौका मिला. कोलकाता पुलिस अधिकारी की भूमिका में राना ( परमब्रता चटर्जी ) और बोब (सास्वत चटर्जी ) एक कांट्रेक्ट किलर की भूमिका में दर्शको के दिल में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गए है. एक बंगाली पुलिस बाबु की भूमिका को परमब्रता चटर्जी ने जिस सहजता के साथ निभाया है वह काबिले तारीफ है. बोब ने भी एक कांट्रेक्ट किलर की भूमिका को बिना किसी लाउडनेस के निभाया है उससे उसकी एक्टिंग क्षमता का परिचय तो मिलता ही है. साथ ही साथ दर्शको को एक नए तरह का किलर देखने को मिलता है जो आम हिंदी सिनेमा के क्रिमिनल से बहुत अलग है.निर्देशक सुजय घोष ने फिल्म के साथ काफी एक्सपेरिमेंट किया है जैसे बेकग्राउंड में बागला गानों का रेडियो में बजना , शूटिग नए कोलकाता की जगह पुराने कोलकाता में करना , दुर्गा पूजा को बेकग्राउंड में रख कर कहानी को आगे बढ़ाना सब कुछ एक शहर के मिजाज़ को ध्यान में रख कर किया गया है. ट्राम ,टैक्सी , रिक्शे का इस्तेमाल करना . विद्या बालन का राना को पाव मरना और राना का उसे नमस्कार करना ये कोलकाता की सभ्यता का एक महत्वापूर्ण अंग है जो अब ख़तम होता जा रहा है.
कुछ लोगो को विद्या और राना के बीच में पनपे हुए प्रेम को समझना अटपटा लगा हो. पर प्यार एक भावनात्मक निर्णय है और शादी एक प्रक्टिकल. हम किसी को उसके साहस , बुद्धिमानी और कोम्मित्त्मेंट के कारण भी प्यार कर सकते है. जरूरी नहीं है की प्यार किसी khoobsurat लड़की के साथ ही किया जाये जो अपनी बाली उम्र में हो. यह भी जरूरी नहीं है कि जिसे आप प्यार कर उसे बाहों में लेकर झूमे और पेड़ के आगे- पीछे चक्कर काटे . प्यार का मतलब चुप- चाप एक दूसरे की मदद करना भी हो सकता है बिना किसी शारीरिक प्रतिबधता के . इस फिल्म के बाद शायद इस विषय पर एक बहस छिड सकती है कि "आत्मिक प्रेम" जो आज के समाज बे एक outdated विषय बन गया है वो शायद इस फिल्म के बाद फिर से जीवित हो जाये. राना और विद्या का प्रेम भी कुछ इस तरफ दौड़ता नज़र आ ta है इस फिल्म में , तभी तो विद्या जब भाष्करण के खिलाफ सबूत छोड़ कर जाती है राना के नाम तब खान उसके इस कार्य को समझने में असफल रहता है. इंटेलीजेन्स अफसर ए खान की भूमिका में नवाज़ुद्दीन छा गए . एक काम से काम रखनेवाले इंटेलीजेन्स अफसर की भूमिका में खान जो एक गर्भवती औरत को भी अपना मकसद पूरा करने के लिए इस्तेमाल करने में जरा सा भी नहीं चूकता है और राना को सलाह देता है कि "प्यार अच्छी चीज है पर इसका इस्तेमाल सही जगह किया जाना चाहिए" नवाज़ुद्दीन हर जगह अपने कद से उचा दिखे .
गाना लोगो को पसंद आ रहा है चाहे वो "आमी सोत्ती बोल्ची " या " एकला चोलो रे " अभिताभ बच्चन की आवाज़ में लोगो को काफी पसंद आ रहा है. बिना किसी आइटम नंबर के या बिदेशी लोकेशन के यह फिल्म दर्शको को अपनी ओर खीच रहा है. कोलकाता की संस्कृति ,गालिओ और उसके मिजाज़ को समझने में यह फिल्म दर्शको को बहुत मदद करेगा . डर्टी पिक्चर, इश्किया और पा की सफलता के बाद यह फिल्म विद्या बालन को अग्रिम पंक्ति की हेरोइन में लाकर खड़ा कर के रख देगा . खाटी देशी लुक के साथ विद्या जो अपील रखती है उससे लगता है वो आज की माडर्न विदेशी लुक रखनेवाली हेरोइने को वो लबे समय के लिए टक्कर देगी आनेवाले दिनों में . "अल्लादीन "," होम डेलिवेरी" और झंकार बीट जैसी फिल्मो के बाद "कहानी" फिल्म की सफलता के बाद सुजय घोष को लम्बे समय तक के लिए याद किया जाये गा. विशाल -शेखर का संगीत जानदार है . कोलकाता के लिए भी लोग इसे वर्षो याद रखेगे .


माधवी श्री

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

DIRTY PICTURE

फ्रायड ने कभी कहा था कि एक औरत की कीमत तब तक होती है जब तक वो एक आदमी की कल्पना को झंझोरती रहे . अगर इस बात को माना जाये तो कह सकते है विद्या बालन जो प्राय ४० के करीब होने जा रही है या सकारत्मक शब्दों में अपने ३० के अंतिम पड़ाव में है पूरे भारतवंशियो को अपने एक फिल्म से हिलाने की ताकत रखती है. सिल्क स्मिता से विद्या बालन तक फिल्म - समाज - दर्शक सब कुछ बदल चुका है.हेरोइएन की स्क्रीन लाइफ भी बढ़ गयी है. अपने उम्र के ३० के अंतिम दौर पर एश्वर्या राय बच्चन भी अपना दर्शक वर्ग रखती है और २० वर्ष की युवा हेरोइएनो को कड़ी टक्कर दे रही है. जो समाज सिल्क स्मिता के "बगावत" को सिर्फ अपने फायदे के लिए , दिल को सकून देनेवाला मान कर इस्तेमाल कर के छोड़ देता है , जिसकी माँ भी उसके मुहं पर दरवाजा बंद कर देती है. आज उसी " आज़ादी " के लिए लिए विद्या बालन की हर जगह तारीफ हो रही है , उसके पिता भी उसके साथ है, परिवार - फिल्म उद्योग का भी भरपूर साथ - सहयोग मिल रहा है उसे.
फिल्म के चयन के लिए एकता कपूर की जितनी तारीफ की जाये वो कम है. ये यकीन के साथ कहा जा सकता है कि अगर एकता ने इस फिल्म को प्रडूयूस नहीं किया होता तो शायद ये फिल्म इतनी चुस्त - दुरुस्त नहीं होती संबाद हो , या स्क्रीन प्ले हो, हेरोइएन का चयन हो . फिल्म के डायलोग इसकी जान है. शेर को सवा शेर की अंदाज़ में लिखा गया है. चाहे वो - दर्शक सामान देखती है दुकान नहीं, मेरे अलावा सब शरीफ है यहाँ, तुम रातो का वो राज हो ,जिसे दिन में कोई नहीं खोलता है,हमेशा से मर्दों का जमाना रहा है और औरतो ने आफत की है ,जब उपरवाला जिंदगी एक बार देता है तो दुबारा सोचना क्या, कुछ लोगो का नाम उसके काम से होता है , मेरा बदनाम हो कर हुआ.
इस फिल्म ने समाज के कई परतो को उधेडा है. सिल्क स्मिता का जन्म पर्दों पर पुरुष दर्शको के लिए हुआ था , पर वही दर्शक उसे " सी " ग्रेड की मानते थे. उस बेरहम फिल्म इंडस्ट्री में सिल्क का भला चाहनेवाले कुछ लोग मिल ही जाते है. उसका धूर विरोधी फिल्म डायरेक्टर इब्राहीम भी अंत में उसकी और उसकी फिलोसफी का कायल हो जाता है. इमरान हासमी ने इस किरदार को बहुत खूबी से निभाया है. क्यों जो समाज सिल्क की एक्टिंग को गन्दा मानता था , वही समाज रुपये खर्च करके उसे देखने जाता था बड़े शौक से. डारेक्टर से लेकर वितरक , पत्रकार , फिल्म उद्योग के सभी वर्ग जब उससे कमा रहे थे तो उसके कमाने के अंदाज़ को लेकर इतनी नैतिकता भरे सवाल क्यों उठाये जा रहे थे?
ये फिल्म अगर मै २० साल पहले देखी होती तो मेरी उम्र और उस समय के हिसाब से मेरे सोच में भी बहुत परिवर्तन होता. तब मै शायद इसे एक गन्दी फिल्म ही मानती . पर अब उम्र के साथ सोचने का तरीका बदल गया है. दुनिया को समझाने का एक नया अनुभव विकसित हुआ है. उसी हिसाब से सोचने और लिखने का तरीका भी बदल गया है. समाज , अति युवा वर्ग ने भी सोचने और जीने के मायने बदल दिए है. आज डर्टी पिक्चर उतनी डर्टी नहीं लगती है. फिल्म ने ८० के दशक की जीतेन्द्र और श्रीदेवी की फिल्मो की यादे ताजा कर दी. कलशे , मटके - लटके झटके , बप्पी दा की आवाज़ सभी मिल कर इस पिक्चर को एक नया लुक दे कर जाती है. सिल्क को अपनी कीमत मालूम था ,समाज के दोहरे मानदंड और खुद को कैसे इस्तेमाल कर के उचाई पर पहुचना पड़ता है ये भी. ये सब कुछ उसे वक़्त ने सीखा दिया , कुछ उसके अन्दर के आग ने. जिस तरह से सिल्क महिला पत्रकार से बदला लेती उसपर आपत्तिजनक लेख लिखने के लिए उससे उसके दबंग होने का असास तो होता है. और उसकी यही दबगाई उसकी दुश्मन पत्रकार को भी उसका कायल बना जाती है. सिल्क का बिंदासपन जहा उसे असमान तक पहुचता है वही बिंदासपन उसका दुश्मन भी हो जाता है. कहते है दाव तभी खेलना चाहिए जब आपके पास खोने को कुछ न हो , जब सब कुछ हो तो दाव नहीं खेलते. सिल्क इस बात को समझ नहीं पाई. वैसे भी उसे समझनेवाला कोई नहीं था उस वक़्त उसका अपना , आज फिल्म उद्योग में हेरोइनो के परिवारवाले बहुत सहयोगी हो गए है, चाहे वो नेहा धूपिया हो, विद्या बालन हो या कोई और .
फिल्म को मिलन लुथरिया के निर्देशन का पूरा लाभ मिला है .नशरूदीन शाह के साथ अपनी पहली फिल्म "इश्किया " का कम्फर्ट जोन
इस फिल्म में विद्या और नशरूदीन शाह के बीच पूरा दिख रहा था. तुषार कपूर ने भी इस फिल्म में अपनी छाप छोड़ी,इमरान हस्स्मी ने भी अपने किरदार को पूरी ईमानदारी से जिया ज्यादा कर उस वक़्त जब वो कहता है - तुम ऐसी लड़की हो जिसे पीने के बाद पसंद किया जा सकता है, फिर आखिर में - शराब भी उतर गयी फिर भी तुम अच्छी लग रही हो. फिल्म में सिल्क का शिखर से गिरना और ख़तम होना सब कुछ बखूबी दिखाया गया है. उसके धुर विरोधी दुश्मन भी कैसे वक़्त के साथ उसके दोस्त बन जाते है. ये सब बाते हमारे जीवन का हिस्सा ही है. कुछ अलग नहीं....
माधवी श्री