शनिवार, 30 मई 2009

अल्पना की कहानी

कहानी : रहगुज़र की पोटली
# अल्पना मिश्र की कहानी आपके लिए जैसा मैंने वादा किया था। माधवी श्री ।

अंत के लिए शुरूआत का होना जरूरी नहीं है।
सड़क पर दुघZटनाएं हो सकती हैं
यह सड़क का विशय नहीं है
जिंदगी का विशय है
सिर्फ इसलिए सड़क पर चलने को नहीं रोका जा सकता
जिंदगी में चलने को भी नहीं।

बस अभी अभी मैं इस रेलवे स्टेशन पर पहंुची थी। एक हाथ में पानी की बड़ी सी दो लीटर वाली बोतल पकड़े हुए और उसी कंधे पर पर्स लटकाये थी। दूसरे हाथ में सामान ज्यादा था। एक बैग था, जिसे उस दूसरे हाथ वाले कंधे पर टंगे रहना था और एक परसाने की दुकान का बहुत चौड़े मुंह वाला झोला था, जो उसी दूसरे हाथ के साथ जैसे तैसे घसिट रहा था। इन्हीं दोनों हाथों से अदल बदल कर मैं मॉ को हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाती थी।
झोला थोड़ा भारी था। इसमें जमाने भर के इंतजाम चल रहे थे। इसमें सबसे नीचे पॉच छ: पुराने सलवार कुतेZ भी रखे थे, जो छोटी वाली बहन को देना था, इसे बीच वाली बहन जब एक बार अपनी ससुराल से घर आयी थी तो चुपके से छोड़ गयी थी। यह चुपके से छोड़ना ससुराल वालों के लिए था, हमें तो वह साफ बता कर गयी थी कि जब उधर जाने का मौका लगे तो ये सब छोटी को दे आना। वह थोड़ा धनी थी और कपड़े खरीदने के मामले में कुछ शौकीन भी। इसी सब में उसने अपना एक पुराना चप्पल, कोल्ड क्रीम की एक शीशी, बालों में लगाने वाले कुछ चमकीले बैकपिन और नकली सोने के चार कड़े भी चुपके से छोड़ा था। अपने बेटे की एक मोटी पुरानी जैकेट भी छोड़ गयी थी, जो जाड़ों में छोटी के किसी एक बच्चे के काम आ ही जाता। इसलिए उसे ले चलना भी जरूरी था। इन सबके उपर मॉ के तमाम सामान थे। एक गरम पानी का बैग भी रखा था। वहॉ बेवजह खरीदना पड़ जाता। यह बैग बहुत पुराना था और पानी भरनेवाली जगह पर मुड़ कर कटने लगा था, इसलिए इसे बहुत एहतियात से रखना पड़ा था। इस एक बैग को हम हगिZज गंवाना नहीं चाहते थे।
मॉ को हर मिनट पानी पिलाना पड़ता था। उनका गला अजीब तरह से सूखने लगता। गला जितना सूखता, घबड़ाहट उतनी ही बढ़ जाती। उनके गले में पिछले छ: सात महीने से दाने निकले हुए थे, जिसके कारण कुछ भी ठोस खाना मुिश्कल था। इन दानों का इलाज कर के इस शहर के डॉक्टर हार गए थे। अब जब कि महीनों न खा सकने की हालत में, मॉ के उठने बैठने की ताकत भी खत्म हो गयी थी तब डॉक्टरों ने उन्हें लखनउ ले जाने की सलाह दी थी। कायदे से मॉ को किसी व्हील चेयर में बैठा कर यहॉ तक लाना चाहिए था, पर मैं ऐसा कोई इंतजाम नहीं कर सकी। मॉ भरसक चल रही थीं। उन्हें अपने से ज्यादा मेरे झोले, बैग सहित उन्हें चलाए जाने की फि्रक थी। इसी फि्रक के कारण वे भरसक चलने जैसा चल रही थीं। उनके इस तरह चलने में चलने से ज्यादा मेरा साथ देना महत्वपूर्ण था। उनका गला सूख रहा था, पर चलते चलते पानी मॉग कर मुझे परेशान करने से वे अपने को बचा रही थीं। आखिरकार एक झटके से मुझे कुछ खिंचा जैसा महसूस हुआ। मॉ स्टेशन पर क्रम से लगी आठ दस कुर्सियों में उलझी हॉफ रही थीं। मैंने तुरन्त सामान वहीं रखा और जल्दी से झोले में से गिलास निकाल कर उन्हें बोतल वाला पानी पिलाया। उन्होंने सिर्फ एक घूंट पानी पिया, फिर हॉफते हुए ही बोली- ``संतोश क्या बोला था तुमसे?´´
``कहा था, सीधा यहीं आ जाएगा।´´ मैंने कुछ झुंझलाकर कहा। मुझे संतोश का हाल पता था। मॉ को भी पता था। मॉ फिर भी चाहती थीं कि वह आ जाए। मतलब कि इस चाहने में भी मेरी परेशानी की चिंता ही थी। इसीलिए मैंने कुछ कहा नहीं। संतोश हमारी पॉचवीं बुआ का लड़का है। इसी शहरनुमा कस्बे में हमारे घर से दूर एक दूसरे छोर में रहता है। कल उससे फोन पर कहा था कि `अपनी चाय की दुकान बंद कर के सीधे यहीं आ जाना। सुबह छ: बजे की इंटरसिटी ट्ेन पकड़नी है। मॉ को इस बीमार हालत में मैं ट्ेन पर कैसे चढ़ा पाउंगी? सामान भी साथ में है।´ यही सब सोच कर फोन किया था। उसने कहा था कि `सुबह सीधे वहीं पंहुच जाएगा। मॉ को ट्ेन में चढ़वा देगा। मैं चिंता न करूं।´
ऐसा कुछ और भी कहा था। मॉ को रिक्शे में चढ़ा कर वहॉ तक पंहुचने की मुिश्कलें उससे बताने को होते हुए भी मैंने अपने को रोक लिया। नहीं बताया। उसी संतोश की राह मॉ की ऑखों में थी।
मैंने उन्हें फिर एक घूंट पानी पिलाया और फिर उसी क्रम में हल्के हल्के खींचते हुए आगे बढ़ी। एक कुली से अपनी वाली ट्ेन का प्लेटफार्म पूछा और वहॉ तक पंहुच कर मॉ को एक कुर्सी पर जैसे तैसे बैठाया। सीढ़ी पर नहीं चढ़ना पड़ा। इसी पहले नम्बर प्लेटफार्म पर ट्ेन आनी थी। सुबह का वक्त था। भीड़ कम होने की उम्मीद में मैं थी। पर नहीं, भीड़ खूब थी। लगता था सारी दुनिया इसी इंटरसिटी से आज लखनउ जाने को मचल उठी है। मैं परेशान थी। मॉ को बार बार कह रही थी कि सामान देख लेतीं तो मैं जल्दी से टिकट ले आती। मॉ `हॉ´ कह रही थीं। पर मैं ही जाने किस दुविधा में न जा कर इधर उधर देख रही थी। शायद मेरे देखने में संतोश के चले आने की एक बची उम्मीद थी। बगल में एक लड़की बैठी थी। उसने बड़ी चुस्त टॉप और घुटनों से कुछ नीचे तक का ट्ाउजर पहना था। गले में एक मोटी स्टील की कुत्ता बॉधने की जंजीर जैसी जंजीर थी और एक पैर में पतला सा एंकलेट था। बाल घुमा कर पीछे अटकाए गए थे और उन्हें एक छोटा सा लकड़ी का बैकपिन खुलने से रोके हुए था। यहॉ की सब लड़कियॉ आज कल ऐसे ही कपड़े पहनती थी। लड़की रह रह कर मुझे देख रही थी। मुझसे कुछ कहने को होती, फिर रूक जाती। वह मेरे कुछ कह पड़नेे की प्रतीक्षा में थी जैसे। मैं समझ नहीं पा रही थी। जैसे जैसे यह कस्बा शहर की सज घज में उतरता गया था, लोगों का विश्वास एक दूसरे पर घटता गया था। खासकर ऐसे कपड़े पहने लड़कियॉ जरूरत से ज्यादा चतुर, तेज तर्रार और अविश्वसनीय हो उठी थीं।
``आप जाइए न टिकट लेने। मैं इन्हें देख रही हंू।´´ जैसे मेरी दुविधा भॉप कर लड़की ने एकदम से कहा।
``बार बार पानी पिलाना पड़ता है।´´
म्ेारे इतना कहते ही लड़की ने मेरे हाथ से बोतल और गिलास दोनों ले लिया।
अपने भीतर उपजा अविश्वास मैं कहॉ रखूं? मैं उसे ले कर ही चली। जल्दी टिकट मिले तो जल्दी लौटूं। जल्दी खत्म हो यह भय कि मेरे पीछे से लड़की, वह भी तेज तर्रार लड़की इधर उधर न चल दे, कोई सामान? सामान ऐसा था भी क्या? लड़की के लिए तो कचरा होगा शायद? पर सामान ऐसा भी नहीं था, यही सब दुबारा खरीदने में मेरी हालत पतली हो जाती।
ख्ौर जब मैं टिकट लेकर लौटी तो लड़की मॉ को पानी पिला रही थी। मैंने उसे कई बार `थैंकयू´ कहा। उसने किसी भी `थैंकयू´ का जवाब नहीं दिया। पहली बार हल्का सा मुस्कराई, फिर वह भी नहीं। एक चमकीली सी पत्रिका खोल कर उसमें डूब गयी।
समय हो ही रहा था कि तभी सामने से संतोश आता दिखा। उसे देख कर किसी अपने को देख लेने जैसी खुशी मुझे हुई।
अपने काले चश्में के भीतर से संतोश इधर उधर देख रहा था। बाल उसने इस बीच बहुत छोटे करवा लिए थे, जैसे अभी कुछ दिन पहले मुड़वाने के बाद उगे हों। वैसे कहते हैं कि आजकल यही फैशन है। इसी फैशन के तहत उसने काले रंग की पैंट के साथ सफेद रंग की फुल शर्ट पहना था। उसके गले में कई मोटी लोहे की जंजीरें आपस में उलझी लटकी थीं और उनमें बंधी ताबीजें खनखना रही थीं। एक हाथ में मोबाइल था, जिस पर किसी अज्ञात फोन के आ जाने की प्रतीक्षा में वह बार बार उसे देख लेता था।
``ट्ेन दो घंटा लेट है।´´ उसने आते ही सूचना दी।
ट्ेन के दो घंटा लेट हो जाने की सूचना अस्पश्ट से, घरघराते हुए बजनेवाले भोंपू जैसे किसी यंत्र से सुनाई पड़़ रही थी। उसने स्पश्ट सुन लिया होगा।
``तब तो उधर भी देर होगी।´´ मैंने चिंता से कहा।
``आज कौन सा दिखा ही पाओगी! जेा होगा कल ही होगा।´´
`` आज ही दिखाने को सोचा है।´´ मैंने पूरा बल दे कर कहा।
``गुड्डो ने अप्वाइंटमेंट ले रखा है?´´ उसने छोटी बहन के लिए पूछा।
``हॉ, आपको कल बताया तो था।´´
``हॉ, हॉ। वहॉ क्यों नहीं बैठ गयी, वेिंटंग रूम में?´´
``इस टिकट से नहीं बैठने देते। जनरल तो है नहीं यहॉ। ´´
``लड़कियॉ आजकल इतनी तेज तर्रार हैं और तुम हो कि डरपोक ही रहोगी। अरे, घुस जाती, कहती कि मॉ को बाहर बैठने में दिक्कत है। बीमार को कोई कैसे नहीं बैठने देगा? ´´ उसने यह बात अधिक जोश में, मॉ की बगल में बैठी लड़की की तरफ देखते हुए कही।
``कहो तो अभी ले चलें! कैसे कोई बैठने नहीं देगा? हम भी देखते हैं।´´ यह कहते हुए उसने अपनी फुल शर्ट की बाजू किसी फिल्मी अंदाज में मोड़ी। लगा कि बस, अभी कहीं, किसी युद्ध के लिए निकल पड़ेगा। इतने सब के बावजूद लड़की ने पत्रिका के भीतर चलना बंद नहीं किया।
``नहीं भइया, यहीं ठीक है।´´ मैंने घबड़ा कर कहा।
``देखा, डर गयी तू भी।´´
इस पर मैंने कुछ नहीं कहा।
मैं खड़ी थी और मॉ बैठी थीं और वह मेरे और मॉ के सामने खड़ा था। वह थोड़ा थोड़ा उस लड़की के सामने भी खड़ा था।
``ऐसा करता हूं कि दुकान खुलवा कर आता हंू। अभी तो दो घंटा है, तब तक छोटू कुछ काम शुरू कर देगा।´´ उसने कहा। छोटू चाय की दुकान पर काम करता था। बरतन मॉजने स ेले कर चाय बनाने तक का।
वह गया। हमारे `हॉ´, `न´ की जरूरत वहॉ थी भी नहीं।
मैं मॉ को फिर एक घूंट पानी पिला कर उन्हें बॉथरूम ले जाने लगी। फिर मुझे लड़की से सामान देखने के लिए कहना पड़ा।
``यहॉ तो गंदा होगा। लेडीज वेटिंग रूम में ले चलते हैं।´´ लड़की ने कहा।
``पर वहॉ?´´
``एक मिनट रूकना!´´ कह कर लड़की, अपना बैग मेरे सामान के साथ सटा कर, महिला विश्रामालय की दिशा में चल दी।
``एक मिनट रूक जाओ।´´ मैंने मॉ से कहा।
``संतोश को रूकना चाहिए।´´मॉ ने धीरे से कहा।
``चाहिए तो बहुत कुछ।´´ मैंने भी धीरे से कहा।
मैं संतोश का नहीं, लड़की का इंतजार कर लेना चाहती थी।
मॉ बेचैनी से उठ कर चलने को हुईं। यह और भी मुिश्कल है। लड़की कहॉ रह गयी? अपना सामान तो है ही, उपर से एक वह भी अपना बैग छोड़ गयी है। मॉ एक हाथ से मुझे और एक हाथ से कुर्सियों को कुछ झुक कर, रूक रूक कर ,पकड़ते हुए दो चार कदम चलीं, फिर वापस अपनी जगह पर बैठ गयीं। ताकत तो है नहीं। शरीर कांटे की तरह सूख गया है। जहॉ से छूओ, चुभता है।
``चलिए।´´
अचानक मेरे कंधे पर हाथ से थपक कर लड़की ने पुकारा। वह कब, किस फुर्ती से आयी, मुझे दिखा तक नहीं। उसी फुर्ती से झुक कर अपना बैग और मेरा झोला उठा कर चल पड़ी। `अरे, अरे, मेरा झोला भी´ पर कहा मैंने कुछ नहीं। अपना बैग, पानी की बोतल, पर्स और मॉ को संभाले मैं एकदम आज्ञाकारी की तरह उसके पीछे पीछे चलती हुई वेिंटंग रूम में पहंुची।
``इन्हें यहॉ लिटा दीजिए।´´ जब मैं मॉ को बॉथरूम स ेले कर लौटी तो लड़की ने संकेत से एक लम्बी चौकी जैसी जगह दिखाया।
लड़की वेटिंग रूम के एक कोने की कुर्सी में धंस कर अपनी उसी चमकीली पत्रिका में घूमने लगी, जबकि मैं मॉ को लिटाने के बाद उससे बात करना चाहती थी।
``आप लखनउ....?´´
``हॉ।´´
``गाड़ी बादशाह नगर रूकेगी?´´
``हॉ।´´
``मैं पहली बार जा रही हंू। बादशाह नगर उतरना है।´´
``बता दूंगी।´´
``मॉ को ट्ेन में चढ़ाने में दिक्कत हो सकती है।´´ मैंने मॉ की तरफ देख कर कहा।
वह कुछ नहीं बोली। `मैं हंू न´, `मदद कर दूंगी´, `मैं सामान देख लूंगी, आप चढ़ा देना´ ऐसा कोई भी वाक्य, जिसकी मैं उम्मीद कर रही थी, नहीं फूटा, तो मुझे अच्छा नहीं लगा। यह `अच्छा न लगना´ में न जाने किस अधिकार से कह रही हंूं।

समुद्र की लहरों जैसी उमड़ती चली आती अपार भीड़ में मैं सामान सहित मॉ को ले कर एक बोगी से दूसरी बोगी तक बढ़ती, पर लगता कि किसी में भी चढ़ नहीं पाउंगी।
``किसी में भी चढ़ जाओ! सब इंटरकनेक्टेड है।´´ लड़की ने मेरा बैग मुझसे छीनते हुए कहा और एक झटके में अपने बैग के साथ मेरा बैग भी ट्ेन में चढ़ गए लोगों के बीच फेंक दिया। वह कूद कर अंदर चढ़ी और इशारे से मुझसे मेरा झोला मॉगने लगी।
``जरा एक मिनट अपने को संभालिए।´´
हंलाकि वे नींद, बीमारी, थकान से जूझते हुए खड़ी नहीं रह पा रही थीं, पर फिर भी मुझे उन्हें सिर्फ एक क्षण के लिए छोड़ना पड़ा। उसी एक क्षण में मैंने अपना झोला, पानी की बोतल वगैरह लड़की की तरफ उछाल दिया। फिर मॉ को।
मॉ एक गेंद थीं, जिन्हें उछाला गया था, पर जो पृथ्वी के पार नहीं जा सकती थींं।
कोई भी गेंद पृथ्वी के पार नहीं जा सकती थी।
``अंदर जा कर जगह देखो!´´
मैं जगह के लिए दौड़ी। लेकिन हमसे तेज दौड़ने वाले थे। अंदर जगह ठसाठस भरी थी। प्लेटफार्म पर जगह खाली हो गयी थी। भयानक असन्तुलन। जब बाहर भरा था, अंदर खाली था। अंदर भरते ही बाहर खाली हो गया था। यही जीवन था। एक साथ अंदर और बाहर भरा भरा नहीं चल सकता था।
मुझे जगह नहीं मिली तो बड़ी शिZर्मन्दगी लगने लगी। मैं लड़की से कैसे कहंू कि एक जगह खोज पाना मेरे लिए संभव न हुआ।
``यहीं रूकते हैं।´´
इस तरह मुझे रूकने का निर्देश देकर वह लोगों को लांघती, फलाZंघती आगे निकल गयी।
``ऐ बुचिया, तनि पानी देव...´´ एक बर्थ का किनारा पकड़ कर मॉ पानी मॉगने लगीं। ट्ेन चलने चलने को थी। भीड़ धक्का मुक्की कर के आगे पीछे आ जा रही थी। इसी धक्का मुक्की में मेरा बैग और झोला खिसक कर कभी आग,े कभी पीछे और कभी किसी अदृश्य जगह तक चला जाता। मैं सामान टिकाने की कोिशश करने लगी और लड़की थी कि आगे जा चुकी थी।
``अभी देती हंू, बस, अभी।´´ मैं मॉ से कह रही थी और लड़की थी कि जगह की उम्मीद का एक तिनका पकड़े भीड़ में तैर गयी थी।
``जाती है तो जाए।´´ मैंने मन में सोचा। वो होती कौन है मुझे ऐसी जगह रूक जाने का निर्देश देने वाली? उसकी मर्जी से चलूंगी क्या मैं? और वह भी, जब उनकी मर्जी होगी, बोलेंगी, आदेश दे कर निकल लेंगी और मैं? बेवकूफ समझ रखा है मुझे? गंवार समझती है? मुझसे ज्यादा बड़ी तो नहीं होगी? होगी भी तो मुझे क्या? तेज तर्रार लड़की कहीं चल दी होगी, क्या ठिकाना? और मैं? ऐसी जगह हंू, जहॉ एक बच्चा खिड़की से पेशाब कर रहा है, एक आदमी के हाथ की चाय छूट कर किसी समय गिर गयी होगी, उसका चिपचिपाता गीलापन सतह पर फैला है। एक बूढ़ा बूढ़ी इसी में मूंगफली छील कर खा रहे हैं। तीन लड़कियॉ इसीमें अड़सती हुई हंस रही हैं। चार पॉच बच्चे इसी में उपर से नीचे चढ़ उतर रहे हैं। अनगिनत सामान के साथ अनगिनत आदमी इसी में अपनी जिंदगी को ठीक कर ले जाने को अड़े हुए हैं। इसी में तमाम तिलचट्टे सपरिवार आना जाना लगाए हुए हैंं एक बहुत छोटा सा सुन्दर चूहा भागा है अभी अभी। एक बच्चा उसके चलने की दिशा में खुशी से चीखते हुए चलना चाहता है, लेकिन बच्चा गिर गया है, रो रहा है और उसके रोने को उसकी मॉ रोक लेना चाहती है। इसी में मैं पानी लेकर मॉ तक पहंुचने की कोिशश कर रही हंू।
अचानक एक आठ नौ साल की लड़की किसी को दांत काट कर भागी है। किसको? यह नहीं दिखा। केवल धड़ाधड़ थप्पड़ खाती लड़की दिखाई पड़ी। इससे एक अजीब हलचल मच गयी। लोग लड़की को देख लेना चाहते थे।
``पागल है।´´ किसी ने कहा। मुझे लगा कि मुझे कहा है! या कि किन्हीं लोगों ने मेरी मॉ को कहा है! मुझे संतोश का ध्यान आया। तुरंत ही उस बीती हुई सात आठ साल की उम्र का भी। बीती हुई उम्र में लड़की उस दिन जब घर में घुसी तो उसने देखा कि दो औरतें गाली बकती हुई उसकी मॉ को मार रही थींं। मॉ फटे गले से उन्हें ऐसी ऐसी गालियॉ दे कर अपने को बचाने की कोिशश कर रही थी, जो लड़की की याददाश्त में कभी नहीं थीं। मॉ पूरी तरह घिर गयी तो लड़की ने उसे छुड़ाने के लिए अपने नन्हें हाथों से दोनों औरतों को खींचा, पर औरतें उसके बल के उपर थीं। औरतों के हाथों जब लड़की छिटका दी गयी तो वह मुड़ कर दुआर तक गयी और उसने वहॉ पड़ा अपनी दादी के साथ रहने वाला ठिगना, चिकना और ठंडा डंडा उठाया और पूरे वेग से अंदर आयी। ले दनादन....उसने दोनों औरतों की पीठों, पैरों पर और डंडा जिस भी तरफ गया, चला दिया। मॉ छूट गयीं। लड़की नहीं छूट पायी।
मॉ को बचा ले जाने का कुछ गर्व भी था लड़की को।
गर्व का हर्जाना तुरंत भरना था।
लड़की दो औरतों के हाथों पिट रही थी। इसमें एक पॉचवें नम्बर वाली बुआ थीं।
``मन्ना, भाग!´´ संतोश ने तब जोर से कहा था और बाहर जा कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा था। उसके रोने से लोग जुट गए थे। तब मुझे लगा था कि संतोश मेरी तरफ है।

मैं तीन लड़कियों, चार औरतों और एक बूढ़ा बूढ़ी को प्राणायाम के बारे में बता रही थी, जब लड़की आ कर मेरे पीछे खड़ी हो गयी।
``मुझसे भस्त्रिका नहीं होता?´´ बूढ़ी ने कहा।
``माता जी आप भस्त्रिका, कपालभाति क्यों करेंगी? आप तो बस अनुलोम विलोम करिए। देखिए मेरी मॉ को, अनुलोम विलोम के कारण अब तक जीवित बची हैं।´´ मैंने ऐसा कहते ही सोचा कि मेरी मॉ के जीवित बचे रहने का वाकई क्या कारण है?
``एक बार तुम ठीक से कर के हमें सिखा दो बेटा! टी वी में देख कर सीखा था।´´ बूढ़े ने कहा।
लड़कियॉ मचल उठीं- ``हमें करना चाहिए या नहीं?´´
``सब कर सकते हैंं। लेकिन यहॉ कैसे बताउं?´´
``अरे, इनकी माता जी बीमार हैं, उन्हें बैठाओ तो।´´ साइड बर्थ पर अड़सेे किसी आदमी ने जोर से कहा और उठ कर खड़ा हो गया। उसने सोचा होगा कि उसके उठ जाने से माता जी के लिए जगह बन जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ, उसके उठते ही अड़ी हुयी जगह खुल कर बगल की जगहों में विलीन हो गयी।
``आइए, माता जी आइए।´´ उसने माता जी को अड़साने की कोिशश की, पर विलीन हुई जगह वापस नहीं आ रही थी और माता जी घबराहट के मारे बेहाल थीं।
``सब बच्चों को उपर भेजों, जगह बनाओ।´´
``आप बताते रहो जी।´´ आदमी ने कहा।
``अभी आपके लिए जगह बनाते हैं।´´एक और आवाज आयी।
बच्चे उपर ही थे। लड़कियॉ भी उपर चढ़ गयीं, मॉ को बैठा लिया गया।
``आप भी बैठ जाओ।´´ एक औरत ने अपने पास जगह बना कर कहा।
``हॉ, बैठ जाइए।´´ मैंने अपने कुछ पीछे खड़ी लड़की से कहा।
``आप बैठिए।´´ लड़की ने ऑखों से कहा।
``मेरी बहन।´´ मैंने लड़की का हाथ पकड़ कर औरतों की तरफ देखा।
``अरे, आओ, आओ, इसी में अंट जाओगी। तुम तो दुबली पतली हो।´´ औरतों ने उसे अपनी जहग में समेट लिया।
``और तुम?´´ लड़की की ऑखों में प्रश्न था।
``इन्हें जाते ही ऑफिस ज्वाइन करना पड़ेगा। इसीलिए।´´
``तुम्हें कैसे पता?´´ लड़की ने चौंक कर मुझे देखा।
आधा गिरती हुई मैं भी बर्थ के किनारे अटक सी गयी, अनुलोम विलोम सिखाते हुए।

``आगे कहॉ के लिए जाना है?´´ बादशाह नगर उतरने के बाद लड़की ने पूछा।
``इंद्रानगर के लिए। कोई ऑटो रिक्शा मिलेगा यहॉ से?´´
``हॉ, इधर आइए।´´ लड़की अपने बैग के साथ मेरा बैग ले कर चल रही थी।
सड़क पार कर के हम खड़े हो कर ऑटो रिक्शे का इंतजार करने लगे। इतने में एक मोटर साइकिल आ कर हमारे पास रूकी।
``अरे, आ गए तुम।´´ लड़की ने कहा।
``यहॉ आ गयी अैार मैं वहॉ ढूंढ रहा था। थैंक गॉड! तुम बैगन बैगेज के साथ दिख गयी।´´ लड़के ने िशकायत की।
``सुनो, पहले एक ऑटो ले कर आओ!´´
लड़के ने अब हैल्मेट के भीतर से झॉकती हैरान सी ऑखों से हमारी तरफ देखा।
``मेरी आंटी। बीमार हैं।´´
``ओह। अभी लाया।´´ मोटर साइकिल मुड़ गयी।
``वहॉ कोई दिक्कत तो नहीं होगी? मतलब डॉक्टर .....´´
``नहीं, गुड्डो है, मेरी छोटी बहन। अप्वाइंटमेंट लिया हुआ है।´´
मैं मॉ को ले कर मोटर साइकिल के साथ आए ऑटो रिक्शे में बैठ गयी।
``ऐसी ही होती हैं आज कल की लड़कियॉं ।´´ मॉ बड़बडाने लगीं। लड़के का आना उन्हें नागवार गुजरा था।
``चुप रहो, मॉ!´´ मैंने गुस्सा कर कहा।
लड़की कहीं उनका बड़बड़ाना सुन न ले। मुझे चिंता हुई। मैंने ऑटो से झॉक कर देखा। वह हाथ हिला रही थी। मैंने खुश हो कर हाथ लहरा दिया। विदा, एक अजनबी अपनी।

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- अल्पना मिश्र

मो. 09412055662





गुरुवार, 28 मई 2009

मेरी दोस्त चैताली

प्यारे दोस्तों , ये मेरी दोस्त चैताली है। हमारी दोस्ती को एक दसक हो जाए गे। चैताली बड़े- बड़े फेमिन्स्तो की तरह भाषण बाजी नही करती , वो चुप- चाप अ संख्य आम महिलाओ की तरह अपने दोस्तों की मदद करती है। बिना किसी नाम या तारीफ के आइवाज में।
आज अगर मेरी लेखनी जिन्दा है तो उसमे चैताली का बहुत बडा योगदान है। चैताली कोलकता में रहती है और बच्चो को पद्धति है। चैताली के बारे में यही कहुगी कि मेरी लेखनी पर मुझसे ज्यादा भरोसा उसे है। चैताली के एक बेटा ही और वो क्लास नवमी में पढ़ रहा है। चैताली के पति तमाल दा र्म्किशानन स्कूल में शिक्षक है।
हमारी दोस्ती लाभ- फायदे कि सप -सीढी ऐ नही गुजर ती । चैताली से मिलकर कैसा लगा जरूर बताये।

शनिवार, 9 मई 2009

प्रियंका -अंजू -२

इस आलेख के लिए परमजीत सिंह जी का धन्यवाद।क्योंकि इसकी प्रेरणा मुझे उनकी चिट्ठी से मिली जो उन्होंने मेरे पोस्ट मेरठ की प्रियंका-अंजू पर डाली थी।
परमजीत का कहना था -बालिग होने पर बच्चों के किसी भी कार्य के लिए मॉ-बाप को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। दूसरी बात संपत्ति का अधिकार मॉ-बाप के पास ही सुरक्षित रहना चाहिए क्योंकि ऐसा देखने में आया है कि संपत्ति का बंटवारा होते ही मॉ-बाप दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं।
परमजीत जी के पहले वक्तव्य का जबाब- हमारे भारतीय समाज में बच्चे बालिग होकर भी पूरी तरह बालिग नहीं हो पाते क्योंकि उनके प्रत्येक फैसले में मॉ-बाप की दखलअंदाजी रहती है। चाहे वो पढाई से संबधित हो या दोस्त बनाने से या कपड़े चुननें से हो। मेरे यह बिंदु उठाने का आशय यह है कि हम बच्चों के निर्णय लेने की क्षमता और अपनें फैसले खुद भुगतनें की क्षमता का विकास बचपन, टीनऐज युवावस्था में ही नहीं होने देते है और अचानक उनसे एक दिन कुछ गलती हो जानें पर हम यह कह देते है कि अपनें फैसलों को खुद भोगो।
दूसरी बात बच्चों को बचपन से ही मॉ-बाप यही कहते है कि उनका कमाया बच्चों के लिए ही है। इससे बच्चा अपनें माता-पिता की संपत्ति को अपना समझने लगता है। वैसे माता-पिता ये बात बच्चे के मन में इसलिए डालते है कि लालच में बच्चा उन्हें छोड़कर बुढापे में न जाए। मेरी यह बात आंशिक रूप से सच हो सकती है पर सच तो है ही। फिर बच्चों में यह बात हम बचपन में नही डालते कि तुम खुद कमाओ और अपनी सम्पत्ति खुद अर्जित करो। तीसरी बात हमारे भारतीय अर्थव्यवस्था में इमानदारी और बिना सिफारिस के युवाओं के विकास के इतने कम साधन है कि उनका अपने पांव पर खड़े होना जल्दी,बड़ा मुिश्कल है।
यह भी सच है कि बच्चे मॉ-बाप की संपत्ति लेकर उन्हें निकाल देते है दाने-दाने के लिए मोहताज कर दे सके जो माता-पिता की यथा संभव देखभाल न करते हो।उसके लिए कानून कड़े करने चाहिए , मेर मतलब कानून को ढंग से किरिय्न्वित करना चाहिए बजाये की नए कानून बनने के.
तली दोनों हाथ से बजती है। मेरे ख्याल से प्रियंका-अंजू जैसे अनेकों केस है जो हमारे सामने नहीं आ पाते। कई लड़कियां घर से विद्रोह करके बदनामीं के गुमनाम अंधेरों में छिप जाती है।उनके बारे में किसी ने कोई सुध ली क्या? तब तो मॉ-बाप मरा मानकर उन्हें छोड़ देते है। क्या ऐसे में मॉ-बाप को दंडित किया जाना चाहिए?
चलिए सोच का दायरा अलग-अलग होता है, पर जब हम किसी को स्वतंत्रता नहीं दे सकते तो उसका भार भी हमें ही उठाना होगा और स्वतंत्रता एक दिन में नहीं आ जाती यह अभ्यास की चीज है। धीरे-धीरे आती है।
आशा है आप मेरी राय से इस बार सहमत हों।
माधवी श्री