शनिवार, 8 जनवरी 2011

मै जो भी हूँ

मै जो भी हूँ
मुझे बनाया मेरे जनून ने .
मेरे रास्तो को मुश्किलों से
भरने वालो ने !
मुझ पर वार करने वालो ने .
मुझे मेरी मंजिल की कीमत समझाई
मेरे मंजिलो पर रोड़ा
अटकानेवालो ने .

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

व्यवस्था

व्यवस्था के दरवाजे पर पंहुचा एक आदमी
जो था व्यवस्था का शिकार -
व्यवस्थापक बन कर.
कुछ दिनों बाद खबर आई
वो आदमी व्यवस्था का शातिर शिकारी बन गया

सोमवार, 3 जनवरी 2011

जनसंचार शिक्षाः चुनौतियां और अपेक्षाएं- आज का यथार्थ

जनसंचार शिक्षाः चुनौतियां और अपेक्षाएं- आज का यथार्थ

मीडिया शिक्षा के नाम पर अधिकतर मीडिया संस्थानों की दशा ठीक वैसी ही है जैसे कि मुंबई में एक्टिंग सिखानेवाले स्कूलों की. ये मीडिया संस्थान अपनी दुकान आम जनता के सपनो पर सजाते है . इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभाव से अधिकतर घरो में " मीडिया और पत्रकारिता" को लेकर महिमा मंडन और एक गजब का आकर्षण बैठ गया है . उनेह (अभिवावक और छात्रों को ) लगता है कि मीडिया में आते ही उनके बच्चे को नौकरी , पद, प्रतिष्ठा , रुतबा और पैसा तुरंत मिल जाये गा जैसे किसी सिविल अधिकारी या कि हिट फिल्म के हीरो को रातो -रात मिल जाती है. पर हकीकत यह है कि संस्थानों से निकलने के बाद संघर्ष का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है. जिसमे फँस कर अच्छे से अच्छे छात्रों के होश गुम हो जाते है.

इस विषय को समझने के लिए हमे दो पहलुओ पर गौर करना होगा . पहला क्या मीडिया संस्थान अपने किये गए वादों को पूरा करते हुए पूरी ईमानदारी से छात्रों को प्रशिक्षित करने का काम कर रहा है या इस पेशे को महज थोड़े दिनों के लिए पैसा बनाने का एक साधन मात्र समझ रहा है. जैसा कि आज के अधिकतर मीडिया घरानों के मालिक समझ रहे है. दूसरा , इस पेशे में आने वाले छात्र क्या मीडिया की बहारी चमक- दमक देख कर इस पेशे में आ रहे है या उनमे सच में एक जूझारू पत्रकार बनाने के गुण मौजूद है . मेरे प्रश्न का कुल निचोड़ यही है कि क्या मीडिया और मीडिया संस्थान ऐसी स्थिति का शिकार तो नहीं हो गयी जहाँ हर कोई उसे दूहना चाहता है . कोई भी पेशा उसको चलनेवालो की काबिलियत और नीयत पर फलता - फूलता है . अगर इस पेशे में उनलोगों कि भरमार होजये जो इसका फायदा उठाने के लिए सिर्फ आयए है तो इस पेशे को बदनाम होने में ज्यादा वक्त नहीं लगे गा.
आज हालत यह है कि बिना किसी बुनियादी सुविधा के हर कोई मीडिया संस्थान की दुकान खोल कर बैठ गया है , और उसे चलाने के लिए अथिति लेक्चरार की भरमार कर लेते है . इससे मीडिया संस्थान का लेक्चरार रखने का स्थयी खर्च भी बच जाता है और अथिति लेक्चरार की औकात भी नहीं होती है कि वह मीडिया संस्थान के मालिको से छात्रों और खुद के लिए वाजिव सहूलियतो के लिए मुह्जोरी कर सके . नतीजा, मीडिया संस्थान के मालिको का मुनाफा और छात्रों और शिक्षक का घाटा. पर दोनों (छात्रों और शिक्षक)को नहीं मालूम कि वे क्या करे इस स्थिति से उबरने के लिए. या यू कहे शिक्षक को तो थोडा बहुत मालूम भी हो. पर इस घनी आबादी वाले देश में जहा बेरोजगारों की संख्या इतनी ज्यादा है वहां उसका मुहं खोलना अपने पेट में लात मारने जैसीवाली बात होगी और जो अच्छे मीडिया घरानों में नौकरी कर रहे है वो अथिति लेक्चरार का निमंत्रण इसलिए स्वीकार कर लेते है ताकि उनके रोजमर्रा के जीवन से थोडा बदलाव मिल जाता है और थोड़ी आमदनी भी हो जाती है साथ ही साथ बच्चो पर थोडा रोब मरने का मौका भी मिलजाता है . सभी की बल्ले- बल्ले . छात्रों का क्षणिक मनोरंजन हो जाता है और थोड़े देर के लिए वे दूसरी दुनिया में खो जाते है . मीडिया संस्थान की दुकानदारी थोड़े समय के लिए और चल जाती है.
मीडिया संस्थान की कही -कही हालत तो ऐसी है कि कंप्यूटर प्राय ख़राब रहते है या इन्टरनेट काम नहीं कर रहा होता है , कभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया पढ़ने के लिए पूरे संसाधन मौजूद नहीं रहते है , प्रक्टिकल बस हवा में करवा दिया जाता है. छात्रों को व्यावहारिक पत्रकारिता की जगह किताबी ज्ञान बाटा जाता है . उनमे जिज्ञासा को बढ़ावा देने के बजाय उनेह "चुप रहो" सिखाया जाता है .जब कि एक पत्रकार का मूल गुण ही जबाब-तलब करने वाला होता है. जिरह करना कोई आसान काम नहीं है और आसान भी है . बेबजह तो सभी जिरह करते है पर "वजह के साथ जिरह करना" और अपनी बात निकलवा लेना एक कला है . इसे सीखने में वक्त लगता है .ये सब चीजे इन प्रशिक्षुको को नहीं सिखाये जाते है , या यू कहे कि उनेह "गहरे पैठने" नहीं सिखाया जाता है . कई छात्र तो ऐसे है कि उनेह 'कि' और 'की' मात्रा का प्रयोग तक नहीं आता , शब्दों और व्याकरण की गलतिय तो आम बात है. पर फिर भी उनका दाखिला हो जाता है और वो पास भी हो जाते है , डिग्रीधारी पत्रकार भी बन जाते है और बेरोजगार पत्रकारों की संख्या में वृद्धि करते है . ये एक ऐसा अंतहीन सिलसिला है जो आज के सभी क्षेत्र के शिक्षा जगत की कडवी सच्चाई है. ऐसा नहीं की इसका निदान मौजूद नहीं है. निदान है और सरकार -समाज से लेकर बुध्धिजीवी सभी को मालूम है पर सभी भारतीय परंपरा के अनुसार भगवान भरोसे बैठना पसंद करते है और अचानक किसी क्रांति की उम्मीद लगाये रहते है .
लाखो- लाखो की फीस दे कर कितने गरीब माँ- बाप अपने नौ- निहालो को कुछ बंनने बड़े शहर भेजते है . पर यहाँ बेचारे माकन -मालिक ,दोस्तों ,मीडिया संस्थान की दुकानदारी और अपने मासूम सपनो द्वारा ही छल लिए जाते है. दुःख की बात यह है कि मार्ग दर्शन के बजाए इनेह भटकाव ही हाथ लगता है .कितने ऐसे छात्र मिलेगे जिनेह सही मार्ग दर्शन अगर दिया जाये तो एक अच्छे पत्रकार साबित होगे और कुछ इस पेशे में जीवन यापन कर लेगे और कुछ को तो वक्त रहते पहले ही बता दिया जाना चाहिए कि आप माँ- बाप का पैसा इसमें बर्बाद न करके कोई अच्छी जगह अपनी क्षमता के अनुसार काम ढूढ़ ले. वक्त रहते सही सलाह पा कर इन किशोर-किशोरियो के जीवन में भटकाव कम आएगा .पर हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था और लोगो का लालच इस बात की गूंजईश हमारे जीवन में कम रखता है. कई बेचारे एक दमदार पत्रकार बनने के सपने लेकर जब मीडिया की दुनिया में कदम रखते है तो मीडिया की जमीनी सच्ची से जब इनका साबका पड़ता है तब कोई भी पढाया गया किताबी आदर्श इनको दिखी नहीं पड़ता , तब तिलमिला कर रह जाने के आलावा और दिशा भ्रम होने के अलावा इनके पास कोई चारा नहीं रहता . माँ- बाप का इतना रुपया फूक कर जब ये मीडिया में उतर चुके होते है तब घर जाना इनेह बेमानी सा लगता है. घर वालो से आंख मिलाने की हिम्मत इनमे नहीं होती. कुछ दूर चल कर शायद सफलता हाथ लग जाये, तरह -तरह के किस्से कहानिया इनका संबल बनजाते है जो थोड़ी दूर चलने का तो सहारा तो इनेह देते है पर पूरे तरीके से जीवन जीने की सीख इनेह नहीं दे पाते है. एक भटकाव में इनकी जिंदगी पहुच जाती है. जो देश , समाज और मीडिया के भटकाव की कहानी भी है. और आज का यथार्थ भी. इस समय नवमी कक्षा में पढ़ी आचर्य विनोभा भावे की एक लेख मुझे बहुत याद आती है जो यह कहता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जो पढ़ते वक़्त किसी छात्र को न्यूटन , बड़े नेता ,बड़ा इन्सान बनने का सपना तो दिखाता है पर जैसे ही उसका सामना यथार्थ के धरातल से होता है वो नून - तेल ,लकड़ी के जुगाड़ में पंड जाता है. तब सारे सपने हवा में उड़ जाते है . यही हाल आज के पत्रकारिता के छात्रों का है . बेचारे पढ़ते वक़्त दुनिया -देश बदलने के सपने देखते है और हकीक़त में अपने काम करने की जगह और नौकरी के हालत को ही नहीं बदल सकते . यही आज की सच्चाई है .
आज की मीडिया शिक्षण संस्थान न तो स्थाई शिक्षक की व्यवस्था रखती है न शोध की व्यवस्था करती है . जिससे न तो छात्रों का विकाश होता है ,न ही शिक्षक का, न ही मीडिया शिक्षण का . बिना स्थाई शिक्षक व्यवस्था के मीडिया शिक्षण बेमानी है. बिना शोध के कोई व्यवस्था कैसे प्रगति कर सकती है. यही हाल मीडिया शिक्षण संस्थान और व्यवस्था का हाल है. जो आगे जाकर पुरानी या अप्रासंगिक हो जानेवाली है.


माधवी श्री