फ्रायड ने कभी कहा था कि एक औरत की कीमत तब तक होती है जब तक वो एक आदमी की कल्पना को झंझोरती रहे . अगर इस बात को माना जाये तो कह सकते है विद्या बालन जो प्राय ४० के करीब होने जा रही है या सकारत्मक शब्दों में अपने ३० के अंतिम पड़ाव में है पूरे भारतवंशियो को अपने एक फिल्म से हिलाने की ताकत रखती है. सिल्क स्मिता से विद्या बालन तक फिल्म - समाज - दर्शक सब कुछ बदल चुका है.हेरोइएन की स्क्रीन लाइफ भी बढ़ गयी है. अपने उम्र के ३० के अंतिम दौर पर एश्वर्या राय बच्चन भी अपना दर्शक वर्ग रखती है और २० वर्ष की युवा हेरोइएनो को कड़ी टक्कर दे रही है. जो समाज सिल्क स्मिता के "बगावत" को सिर्फ अपने फायदे के लिए , दिल को सकून देनेवाला मान कर इस्तेमाल कर के छोड़ देता है , जिसकी माँ भी उसके मुहं पर दरवाजा बंद कर देती है. आज उसी " आज़ादी " के लिए लिए विद्या बालन की हर जगह तारीफ हो रही है , उसके पिता भी उसके साथ है, परिवार - फिल्म उद्योग का भी भरपूर साथ - सहयोग मिल रहा है उसे.
फिल्म के चयन के लिए एकता कपूर की जितनी तारीफ की जाये वो कम है. ये यकीन के साथ कहा जा सकता है कि अगर एकता ने इस फिल्म को प्रडूयूस नहीं किया होता तो शायद ये फिल्म इतनी चुस्त - दुरुस्त नहीं होती संबाद हो , या स्क्रीन प्ले हो, हेरोइएन का चयन हो . फिल्म के डायलोग इसकी जान है. शेर को सवा शेर की अंदाज़ में लिखा गया है. चाहे वो - दर्शक सामान देखती है दुकान नहीं, मेरे अलावा सब शरीफ है यहाँ, तुम रातो का वो राज हो ,जिसे दिन में कोई नहीं खोलता है,हमेशा से मर्दों का जमाना रहा है और औरतो ने आफत की है ,जब उपरवाला जिंदगी एक बार देता है तो दुबारा सोचना क्या, कुछ लोगो का नाम उसके काम से होता है , मेरा बदनाम हो कर हुआ.
इस फिल्म ने समाज के कई परतो को उधेडा है. सिल्क स्मिता का जन्म पर्दों पर पुरुष दर्शको के लिए हुआ था , पर वही दर्शक उसे " सी " ग्रेड की मानते थे. उस बेरहम फिल्म इंडस्ट्री में सिल्क का भला चाहनेवाले कुछ लोग मिल ही जाते है. उसका धूर विरोधी फिल्म डायरेक्टर इब्राहीम भी अंत में उसकी और उसकी फिलोसफी का कायल हो जाता है. इमरान हासमी ने इस किरदार को बहुत खूबी से निभाया है. क्यों जो समाज सिल्क की एक्टिंग को गन्दा मानता था , वही समाज रुपये खर्च करके उसे देखने जाता था बड़े शौक से. डारेक्टर से लेकर वितरक , पत्रकार , फिल्म उद्योग के सभी वर्ग जब उससे कमा रहे थे तो उसके कमाने के अंदाज़ को लेकर इतनी नैतिकता भरे सवाल क्यों उठाये जा रहे थे?
ये फिल्म अगर मै २० साल पहले देखी होती तो मेरी उम्र और उस समय के हिसाब से मेरे सोच में भी बहुत परिवर्तन होता. तब मै शायद इसे एक गन्दी फिल्म ही मानती . पर अब उम्र के साथ सोचने का तरीका बदल गया है. दुनिया को समझाने का एक नया अनुभव विकसित हुआ है. उसी हिसाब से सोचने और लिखने का तरीका भी बदल गया है. समाज , अति युवा वर्ग ने भी सोचने और जीने के मायने बदल दिए है. आज डर्टी पिक्चर उतनी डर्टी नहीं लगती है. फिल्म ने ८० के दशक की जीतेन्द्र और श्रीदेवी की फिल्मो की यादे ताजा कर दी. कलशे , मटके - लटके झटके , बप्पी दा की आवाज़ सभी मिल कर इस पिक्चर को एक नया लुक दे कर जाती है. सिल्क को अपनी कीमत मालूम था ,समाज के दोहरे मानदंड और खुद को कैसे इस्तेमाल कर के उचाई पर पहुचना पड़ता है ये भी. ये सब कुछ उसे वक़्त ने सीखा दिया , कुछ उसके अन्दर के आग ने. जिस तरह से सिल्क महिला पत्रकार से बदला लेती उसपर आपत्तिजनक लेख लिखने के लिए उससे उसके दबंग होने का असास तो होता है. और उसकी यही दबगाई उसकी दुश्मन पत्रकार को भी उसका कायल बना जाती है. सिल्क का बिंदासपन जहा उसे असमान तक पहुचता है वही बिंदासपन उसका दुश्मन भी हो जाता है. कहते है दाव तभी खेलना चाहिए जब आपके पास खोने को कुछ न हो , जब सब कुछ हो तो दाव नहीं खेलते. सिल्क इस बात को समझ नहीं पाई. वैसे भी उसे समझनेवाला कोई नहीं था उस वक़्त उसका अपना , आज फिल्म उद्योग में हेरोइनो के परिवारवाले बहुत सहयोगी हो गए है, चाहे वो नेहा धूपिया हो, विद्या बालन हो या कोई और .
फिल्म को मिलन लुथरिया के निर्देशन का पूरा लाभ मिला है .नशरूदीन शाह के साथ अपनी पहली फिल्म "इश्किया " का कम्फर्ट जोन
इस फिल्म में विद्या और नशरूदीन शाह के बीच पूरा दिख रहा था. तुषार कपूर ने भी इस फिल्म में अपनी छाप छोड़ी,इमरान हस्स्मी ने भी अपने किरदार को पूरी ईमानदारी से जिया ज्यादा कर उस वक़्त जब वो कहता है - तुम ऐसी लड़की हो जिसे पीने के बाद पसंद किया जा सकता है, फिर आखिर में - शराब भी उतर गयी फिर भी तुम अच्छी लग रही हो. फिल्म में सिल्क का शिखर से गिरना और ख़तम होना सब कुछ बखूबी दिखाया गया है. उसके धुर विरोधी दुश्मन भी कैसे वक़्त के साथ उसके दोस्त बन जाते है. ये सब बाते हमारे जीवन का हिस्सा ही है. कुछ अलग नहीं....
माधवी श्री
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