सोमवार, 31 दिसंबर 2012
लड़ो की तुमको लड़ना है
लड़ कर जीने का हक हासिल करना है .
ये दुनिया जो तुमेह गर्भ से
इस दुनिया में आने के लिए
प्रतिबंधित करती है
आने के बाद हर पल
तुमसे तुम्हारे लड़की होने का
हिसाब मांगती है।
हिसाब देते -देते तुम्हारी जबान
भले ही थक जाये ,
पर उनके प्रश्न नहीं रूकते .
आओ इन प्रश्नों को बदल दे ,
इन प्रश्न करनेवालों को बदल दे .
आओ लड़े कि
तुमेह जीने का हक
हासिल करना है अपने लिए
अपने सुंदर कल के लिए।
माधवी श्री
29/12/12
गुरुवार, 27 दिसंबर 2012
शहरी लडकियो या महिलाओ
आज शहरी लडकियो या महिलाओ का नाम सुनते ही दिमाग में एक ऐसी छवि आजाती है जो धाकड़ है, कसे हुए कपडे पहनती है, रुमाल से भी ज्यादा बॉय फ्रेंड बदलती है, जिसे ज़माने की कोई परवाह नहीं है,लिपे -पुते चेहरे, जो बिंदास है, कुछ भी कर सकती है...कुछ भी ...आपकी कल्पना से परे.
पर हकीक़त हमेशा से कल्पना से परे होता है. शहरी लडकियों की जिंदगी में तीस की उम्र के बाद "ओले " क्रीम सेंध लगाती है या कई कंपनियों के विज्ञापन उनके दिमाग में छाने लग जाते है जो उसकी उम्र को कम कर के दिखाने की पूरी गारंटी देते है शहरी औरते भी पूरी कोशिश करती है कि उसे एक बहुत प्यार करनेवाला पति मिले (ये मेरे ख्याल से दुनिया से हर कोने में बसनेवाली औरत की पहली और आखरी खाविस हो , अपवाद यहाँ भी हो सकते है, उसकी गारंटी मै नहीं लेती . आदि काल से नियमो के अपवाद हमेशा रहे है ) ,शहरी औरत भी अपनी तलाक या उसके पति से अलगाव के बारे में बाते छिपाती फिरती है , वो कोई इसे सहजता से नहीं लेती है. उम्र बढ़ने के साथ अगर शहरी लडकियो की शादी नहीं होती है तो ताने उसे भी सुनने पड़ते है, उसकी भी उम्र छिपा कर दूबारा लड़के वालो को दिखाया जाता है. सजा -धजा कर उसे भी तैयार किया जाता है ताकि उसे कोई पसंद करले और उसकी शादी हो जाये .
आज भी अक्षत वर्गिनिटी की चाह हर पुरुष को होती है खास कर शादी के मामले में . इस कारण देश से लेकर विदेशो में इस मेडिकल ट्रीटमेंट का कारोबार बहुत फल- फूल रहा है. चाहे ट्राफिकिग में फासी हुई लडकिया हो या विवाह बंधन में फसने के लिए तैयार लडकिया सभी जगह वर्जीन लडकियो की ही मांग है. इस लिए अगर कोई सोचता है शहरी लडकियो का जीवन बहुत उन्मुक्त और समस्यायों से मुक्त है तो उनेह ठहर कर अपने दिमाग को थोडा हिला कर झाड़ लेना चाहिए .
आज भी शादी से इतर महिलाओ के लिए और कोई जीवन नहीं सोचा गया है. आम लडकियो की बात रहने दे , फ़िल्मी हिरोएनो पर भी बढाती उम्र के साथ शादी का दवाव बढ़ जाता है. अखबारों के आधे से ज्यादा पन्ने इन्ही खबरों से रंगे मिल जाये गे कि कौन सी हिरोएन किसको डेट कर रही है. अभी हाल में ही प्रीटी जिनता का ब्रेकअप जब नेश वाडिया से हुआ तो तमाम प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक प्रीटी के लिए सहानूभूति का भाव रखते हुए अपने दुखड़े लेकर बैठ गए. जैसे प्रीटी का जीवन अब समाप्त हो गया. ये सिर्फ प्रीटी का हाल नहीं है नरगीश ,हेमा मालिनी, रेखा, तीन मुनीम ,माधुरी दीक्षित से लेकर तमाम अभिनेत्रियों को इस सुलगते हुए सवालो से गुजरना पड़ा. इस शादी के बॉक्स से इतर आज भी महिलाओ का भविष्य नहीं है चाहे वो ग्रामीण हो या शहरी.
अब इस मामलो से जरा दो- चार हो कि महिलाओ को क्या उसके सेक्सुअलिटी और उम्र से इतर देखा जाता है या यू कहे कि समझा जाता है या उसके साथ एक इंसान की तरह पेश आया जाता है. अभी हाल में एक खबर आई कि दक्षिण भारत में टीचर जब ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिख रही होती है तब कुछ छात्रों ने मोबाइल से उसकी तस्वीरे उतार ली. इस कारण से महिला टीचरओ को निर्देश जारी किया गया कि वे " ढंग " के कपडे पहन कर आये. छात्रो को सभ्यता सिखाने की कोशिश नहीं की गयी. "लड़के तो मन चले होते ही है. " ये हमारे समाज की" आम और खास" धारणा है. उदारवाद का असर यह हुआ है कि लड़के /छात्र जो पहले कभी अपनी महिला टीचर को "गुरु " का दर्जा दे कर सम्मान दे दिया करते थे अब वे भी उसे "आइटम " समझाने लग गए है. पहले उनकी सहपठिया उनके दिमागी अय्याशी का सामान हुआ करती थी , अब दायरा बढ़ कर महिला टीचर तक जा पंहुचा है. ये है हमारे उदार शहरी जीवन का सच.
अब इससे इतर जरा उन लडकियो के जीवन में झाके जो अपने घर से दूर बड़े शहरो में पढने आती है . यहाँ भी उनेह अपने पीजी में काम कर रहे पुरुष कर्मचारियो के " खोजी निगाहों " का सामना करना पड़ता है. कम तनख्वा में काम कर रहे इन कर्मचरियों का पैसा वसूल या यू कहे मेहनताना इन लडकियो को देख कर उसूल हो जाता है. पैसे देने के बावजूद भी अपने हक की सुविधाओ के लिए उनेह इन पुरुष कर्मचारियो की चिरौरी करनी पड़ती है. क्या कहे इसे शहरी जीवन की विडम्बना ?
अभी हाल में मुंबई में एक वाचमैन द्वारा पल्लवी पुरकायस्थ नामक पच्चीस वर्षीया युवती की हत्या इसका जीता जगाता उदहारण है जहाँ निचले स्तर पर काम करनेवाले लोग भी लडकियो को काबू में करने के लिए "रेप " को हथियार बनाते है . खबरों के मुताबिक इस हत्या के पहले भी वाचमैन ने पल्लवी पुरकायस्थ के साथ शारीरिक छेड़- छड करने की कोशिश की थी.पल्लवी के पिता का आई ए एस होना भी उसकी रक्षा नहीं कर सका . " आम धारणा "है चाहे वो पढ़े लिखे पुरुषो की हो या अनपढ़ की - कम कपडे पहननेवाली , बिना शादी किये किसी पुरुष के साथ रहनेवाली लडकिया हर किसी के लिए उपलब्ध सामान है. वो ना कैसे कर सकती है किसी को अगर वो किसी और को "उपलब्ध " है तो. ये सिर्फ अनपढो की दस्ताn नहीं है . किसी भी महिला लेखिका या महिला पत्रकारों के बारे में जानना है तो जरा किसी भी मीडिया समाचार का वेब साईट खोल ले , उसमे महिला के बारे में जो यश गाथा लिखी आपको मिल जाये गी उसे पढ़ कर आप को लगेगा कि आप अनपढ़ गावर होते तो ज्यादा अच्छा था या साri महिला लेखिका / पत्रकार अपने मुकाम तक इन रास्तो से हो कर गुजरी है. कमोबेश ये हाल सभी पेशे का है - चाहे डॉक्टर हो नर्स हो , वकील हो , प्रवक्ता हो , राजनीती हो ...किस -किस क्षेत्र का नाम गिनाया जाये . महिलाओ के लिए सबसे सेफ समझे जानेवाले टीचर के पेशे में भी ये बात लागू होती है . पर सच्चाई इससे इतर भी है. बहुत सारी औरतो की फ़ौज है जो आज भी अथक परिश्रम करके अपने सफलता की उचइयो तक पहुची है.इन पर बाते करना कोई नहीं चाहता है. . क्यों कि इन बातो में "रस " नहीं है. आप चटकारे नहीं ले सकते , इन पर बाते करने के बाद आपको " चटकारे " जैसा स्वाद नहीं मिलता. दिमाग को भी सकूं नहीं मिलता तो क्या करे इन वे बजह कि बाते करके.
सोमवार, 10 दिसंबर 2012
खामोश अदालत जारी है
अभी हाल में मुझे मेरठ के एक मीडिया संस्थान Indian Institute of Film &Television में जाने का मौका पड़ा. वहां के छात्र - छात्रो द्वारा विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित और संदीप महाजन द्वारा निर्देशित नाटक " खामोश अदालत जारी है " देखने का मौका मिला. नाटक था तो मेरठ के मीडिया संस्थान के छात्रों द्वारा इस कारण मेरी अपेक्षा बहुत नहीं थी , पर चूकि विजय तेंदुलकर के नाम के आकर्षण ने मुझे वहा जाने पर मजबूर कर दिया.
नाटक मध्यवर्गीय समाज और राजनीतिक जगत के दोहरी मानसिकता को रेखांकित करती हुआ समाज के असली चेहरे को परत दर परत उघरता चला जाता है. यह नाटक माना कई दसक पहले लिखा गया हो तेंदुलकर साहब ने पर यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय हुआ करता था. इस नाटक में एक शिक्षिका बेनारे बाई के माध्यम से समाज के ठेकेदारों का असली चेहरा धीरे - धीरे नाटक के साथ -साथ दर्शको के सामने खुलता जात है. नाटक में एक घूमंतू गैर पेशेवराना नाटक कंपनी के करता धर्ता और कलाकार एक धनी दम्पति मिस्टर और मिसेस कांशीराम है ,उनका दतक पुत्र , एक असफल वकील , एक असफल वैज्ञानिक ,एक नाटक निर्देशक और एक स्थानीय व्यक्ति के माध्यम से नाटक आगे चलता है अद्रश्य पात्र एक प्रोफेसर का है.
मिस बेनारे एक स्वतंत्र विचार वाली महिला है जो जीवन अपने "मूल्यों" के हिसाब से जीना चाहती है. उसका खुलापन तो सबको भाता है "दिल बहलाने" के लिए पर समाज में उसकी स्वीकृति एक "सम्मानित स्त्री" के हिसाब से नहीं होती है. उसके परिचित लोगो को जब यह भनक पड़ती है कि उसने अपनी अस्मिता बचाने के लिए अपने बच्चे की भ्रूण हत्या कर दी है तो उससे यह उगलवाने के लिए वे एक नाटक रचते है नाटक के अन्दर. उस नाटक के जाल में वे मिस बेनारे को फंसा कर उससे कूबुलवाने की कोशिश करते है कि उसने भ्रूण हत्या कि है जो एक जघन्य पाप है.
मिस बेनारे उनके चालो को भाप तो जाती है पर कही न कही एक इन्सान होने की कमजोरी के तहत वो नाटक में कही- कही टूटने लगती है , अपना बचाव करने लगती है. उस समय उसका " बेबस स्त्री" होने का रूप सामने आता है , जो बहुत दयनीय है. समाज के ठेकेदार और करीबी लोग किस तरह किसी का जखम उघाड़ कर देखने का मज़ा लेते है यह इस नाटक में हर वक़्त एहसास होता है. भले ही कोई अपने पेशे में सफल न हो उसका चरित्र बहुत बेहतर न हो पर दूसरे के चरित्र की कमिया निकलने में कोई पीछे नहीं हटता. मिस्टर काशीराम वैसे तो अपनी पत्नी को कही बोलने का मौका नहीं देते और मिसेस काशीराम जो हर वक़्त अपने पति की घुड़की खाती रहती है पर बात जब बेनारे बाई पर आती है तो दोनों एक हो कर मकसद को अंजाम देने के लिए एक जुट जाते है.हर पात्र बेनारे बाई को अपने तरीके से ठोक - बजा कर उससे दबी हुई सच्चाई को निकलना चाहता है. इस प्रक्रिया में इन्सान क्या -क्या रूप बदलते है यह इस नाटक में बखूबी जीवंत तरीके से दिखाया गया है.
पूरे नाटक को Indian Institute of Film &Television मीडिया संस्थानों के छात्रों - छात्राओ ने बखूबी उकेरा है और अंत तक अपने अभिनय से दर्शको बांध कर रखा . कही से नहीं लगा कि मेरठ जैसे टू टायर शहर के होनहारो ने यह नाटक इतनी सहजता और जीवंत तरीके से किया है. इस नाटक में शैलजा टंडन ने मिस बेनारे के पात्र में जो जीवंतता डाली है उसे शब्दों में बंधना मुश्किल है.अगर मिस्टर काशीराम और मिसेस काशीराम के किरदार को राजेश भाटी और रुक्सार ने जान डाल दिया तो अन्य पात्रो को निशांत ,करण, मनीष , प्रांशु , अंशुल ,शिवान्सु , राजपाल, ललित , जोगिन्दर और राहुल ने बखूबी जिया. नाटक विभाग के अध्यक्ष प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता पेंटल का कहना था कि इस शहर के बच्चो में बहुत प्रतिभा है बस जरूरत है उसे उकेरने की. लाइट की व्यवस्था संजू गौतम , संगीत जीशान अहमद -विलायत हुसैन की देख -रेख में रहा है. इस संसथान के प्रबंधक विपुल सिंघल का कहना है कि उनकी टीम इस संसथान को उच्च स्तर की बनाने के लिए कटी बद्ध है.
अभी हाल में मुझे मेरठ के एक मीडिया संस्थान Indian Institute of Film &Television में जाने का मौका पड़ा. वहां के छात्र - छात्रो द्वारा विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित और संदीप महाजन द्वारा निर्देशित नाटक " खामोश अदालत जारी है " देखने का मौका मिला. नाटक था तो मेरठ के मीडिया संस्थान के छात्रों द्वारा इस कारण मेरी अपेक्षा बहुत नहीं थी , पर चूकि विजय तेंदुलकर के नाम के आकर्षण ने मुझे वहा जाने पर मजबूर कर दिया.
नाटक मध्यवर्गीय समाज और राजनीतिक जगत के दोहरी मानसिकता को रेखांकित करती हुआ समाज के असली चेहरे को परत दर परत उघरता चला जाता है. यह नाटक माना कई दसक पहले लिखा गया हो तेंदुलकर साहब ने पर यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय हुआ करता था. इस नाटक में एक शिक्षिका बेनारे बाई के माध्यम से समाज के ठेकेदारों का असली चेहरा धीरे - धीरे नाटक के साथ -साथ दर्शको के सामने खुलता जात है. नाटक में एक घूमंतू गैर पेशेवराना नाटक कंपनी के करता धर्ता और कलाकार एक धनी दम्पति मिस्टर और मिसेस कांशीराम है ,उनका दतक पुत्र , एक असफल वकील , एक असफल वैज्ञानिक ,एक नाटक निर्देशक और एक स्थानीय व्यक्ति के माध्यम से नाटक आगे चलता है अद्रश्य पात्र एक प्रोफेसर का है.
मिस बेनारे एक स्वतंत्र विचार वाली महिला है जो जीवन अपने "मूल्यों" के हिसाब से जीना चाहती है. उसका खुलापन तो सबको भाता है "दिल बहलाने" के लिए पर समाज में उसकी स्वीकृति एक "सम्मानित स्त्री" के हिसाब से नहीं होती है. उसके परिचित लोगो को जब यह भनक पड़ती है कि उसने अपनी अस्मिता बचाने के लिए अपने बच्चे की भ्रूण हत्या कर दी है तो उससे यह उगलवाने के लिए वे एक नाटक रचते है नाटक के अन्दर. उस नाटक के जाल में वे मिस बेनारे को फंसा कर उससे कूबुलवाने की कोशिश करते है कि उसने भ्रूण हत्या कि है जो एक जघन्य पाप है.
मिस बेनारे उनके चालो को भाप तो जाती है पर कही न कही एक इन्सान होने की कमजोरी के तहत वो नाटक में कही- कही टूटने लगती है , अपना बचाव करने लगती है. उस समय उसका " बेबस स्त्री" होने का रूप सामने आता है , जो बहुत दयनीय है. समाज के ठेकेदार और करीबी लोग किस तरह किसी का जखम उघाड़ कर देखने का मज़ा लेते है यह इस नाटक में हर वक़्त एहसास होता है. भले ही कोई अपने पेशे में सफल न हो उसका चरित्र बहुत बेहतर न हो पर दूसरे के चरित्र की कमिया निकलने में कोई पीछे नहीं हटता. मिस्टर काशीराम वैसे तो अपनी पत्नी को कही बोलने का मौका नहीं देते और मिसेस काशीराम जो हर वक़्त अपने पति की घुड़की खाती रहती है पर बात जब बेनारे बाई पर आती है तो दोनों एक हो कर मकसद को अंजाम देने के लिए एक जुट जाते है.हर पात्र बेनारे बाई को अपने तरीके से ठोक - बजा कर उससे दबी हुई सच्चाई को निकलना चाहता है. इस प्रक्रिया में इन्सान क्या -क्या रूप बदलते है यह इस नाटक में बखूबी जीवंत तरीके से दिखाया गया है.
पूरे नाटक को Indian Institute of Film &Television मीडिया संस्थानों के छात्रों - छात्राओ ने बखूबी उकेरा है और अंत तक अपने अभिनय से दर्शको बांध कर रखा . कही से नहीं लगा कि मेरठ जैसे टू टायर शहर के होनहारो ने यह नाटक इतनी सहजता और जीवंत तरीके से किया है. इस नाटक में शैलजा टंडन ने मिस बेनारे के पात्र में जो जीवंतता डाली है उसे शब्दों में बंधना मुश्किल है.अगर मिस्टर काशीराम और मिसेस काशीराम के किरदार को राजेश भाटी और रुक्सार ने जान डाल दिया तो अन्य पात्रो को निशांत ,करण, मनीष , प्रांशु , अंशुल ,शिवान्सु , राजपाल, ललित , जोगिन्दर और राहुल ने बखूबी जिया. नाटक विभाग के अध्यक्ष प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता पेंटल का कहना था कि इस शहर के बच्चो में बहुत प्रतिभा है बस जरूरत है उसे उकेरने की. लाइट की व्यवस्था संजू गौतम , संगीत जीशान अहमद -विलायत हुसैन की देख -रेख में रहा है.
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