गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

शहरी लडकियो या महिलाओ

आज शहरी लडकियो या महिलाओ का नाम सुनते ही दिमाग में एक ऐसी छवि आजाती है जो धाकड़ है, कसे हुए कपडे पहनती है, रुमाल से भी ज्यादा बॉय फ्रेंड बदलती है, जिसे ज़माने की कोई परवाह नहीं है,लिपे -पुते चेहरे, जो बिंदास है, कुछ भी कर सकती है...कुछ भी ...आपकी कल्पना से परे. पर हकीक़त हमेशा से कल्पना से परे होता है. शहरी लडकियों की जिंदगी में तीस की उम्र के बाद "ओले " क्रीम सेंध लगाती है या कई कंपनियों के विज्ञापन उनके दिमाग में छाने लग जाते है जो उसकी उम्र को कम कर के दिखाने की पूरी गारंटी देते है शहरी औरते भी पूरी कोशिश करती है कि उसे एक बहुत प्यार करनेवाला पति मिले (ये मेरे ख्याल से दुनिया से हर कोने में बसनेवाली औरत की पहली और आखरी खाविस हो , अपवाद यहाँ भी हो सकते है, उसकी गारंटी मै नहीं लेती . आदि काल से नियमो के अपवाद हमेशा रहे है ) ,शहरी औरत भी अपनी तलाक या उसके पति से अलगाव के बारे में बाते छिपाती फिरती है , वो कोई इसे सहजता से नहीं लेती है. उम्र बढ़ने के साथ अगर शहरी लडकियो की शादी नहीं होती है तो ताने उसे भी सुनने पड़ते है, उसकी भी उम्र छिपा कर दूबारा लड़के वालो को दिखाया जाता है. सजा -धजा कर उसे भी तैयार किया जाता है ताकि उसे कोई पसंद करले और उसकी शादी हो जाये . आज भी अक्षत वर्गिनिटी की चाह हर पुरुष को होती है खास कर शादी के मामले में . इस कारण देश से लेकर विदेशो में इस मेडिकल ट्रीटमेंट का कारोबार बहुत फल- फूल रहा है. चाहे ट्राफिकिग में फासी हुई लडकिया हो या विवाह बंधन में फसने के लिए तैयार लडकिया सभी जगह वर्जीन लडकियो की ही मांग है. इस लिए अगर कोई सोचता है शहरी लडकियो का जीवन बहुत उन्मुक्त और समस्यायों से मुक्त है तो उनेह ठहर कर अपने दिमाग को थोडा हिला कर झाड़ लेना चाहिए . आज भी शादी से इतर महिलाओ के लिए और कोई जीवन नहीं सोचा गया है. आम लडकियो की बात रहने दे , फ़िल्मी हिरोएनो पर भी बढाती उम्र के साथ शादी का दवाव बढ़ जाता है. अखबारों के आधे से ज्यादा पन्ने इन्ही खबरों से रंगे मिल जाये गे कि कौन सी हिरोएन किसको डेट कर रही है. अभी हाल में ही प्रीटी जिनता का ब्रेकअप जब नेश वाडिया से हुआ तो तमाम प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक प्रीटी के लिए सहानूभूति का भाव रखते हुए अपने दुखड़े लेकर बैठ गए. जैसे प्रीटी का जीवन अब समाप्त हो गया. ये सिर्फ प्रीटी का हाल नहीं है नरगीश ,हेमा मालिनी, रेखा, तीन मुनीम ,माधुरी दीक्षित से लेकर तमाम अभिनेत्रियों को इस सुलगते हुए सवालो से गुजरना पड़ा. इस शादी के बॉक्स से इतर आज भी महिलाओ का भविष्य नहीं है चाहे वो ग्रामीण हो या शहरी. अब इस मामलो से जरा दो- चार हो कि महिलाओ को क्या उसके सेक्सुअलिटी और उम्र से इतर देखा जाता है या यू कहे कि समझा जाता है या उसके साथ एक इंसान की तरह पेश आया जाता है. अभी हाल में एक खबर आई कि दक्षिण भारत में टीचर जब ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिख रही होती है तब कुछ छात्रों ने मोबाइल से उसकी तस्वीरे उतार ली. इस कारण से महिला टीचरओ को निर्देश जारी किया गया कि वे " ढंग " के कपडे पहन कर आये. छात्रो को सभ्यता सिखाने की कोशिश नहीं की गयी. "लड़के तो मन चले होते ही है. " ये हमारे समाज की" आम और खास" धारणा है. उदारवाद का असर यह हुआ है कि लड़के /छात्र जो पहले कभी अपनी महिला टीचर को "गुरु " का दर्जा दे कर सम्मान दे दिया करते थे अब वे भी उसे "आइटम " समझाने लग गए है. पहले उनकी सहपठिया उनके दिमागी अय्याशी का सामान हुआ करती थी , अब दायरा बढ़ कर महिला टीचर तक जा पंहुचा है. ये है हमारे उदार शहरी जीवन का सच. अब इससे इतर जरा उन लडकियो के जीवन में झाके जो अपने घर से दूर बड़े शहरो में पढने आती है . यहाँ भी उनेह अपने पीजी में काम कर रहे पुरुष कर्मचारियो के " खोजी निगाहों " का सामना करना पड़ता है. कम तनख्वा में काम कर रहे इन कर्मचरियों का पैसा वसूल या यू कहे मेहनताना इन लडकियो को देख कर उसूल हो जाता है. पैसे देने के बावजूद भी अपने हक की सुविधाओ के लिए उनेह इन पुरुष कर्मचारियो की चिरौरी करनी पड़ती है. क्या कहे इसे शहरी जीवन की विडम्बना ? अभी हाल में मुंबई में एक वाचमैन द्वारा पल्लवी पुरकायस्थ नामक पच्चीस वर्षीया युवती की हत्या इसका जीता जगाता उदहारण है जहाँ निचले स्तर पर काम करनेवाले लोग भी लडकियो को काबू में करने के लिए "रेप " को हथियार बनाते है . खबरों के मुताबिक इस हत्या के पहले भी वाचमैन ने पल्लवी पुरकायस्थ के साथ शारीरिक छेड़- छड करने की कोशिश की थी.पल्लवी के पिता का आई ए एस होना भी उसकी रक्षा नहीं कर सका . " आम धारणा "है चाहे वो पढ़े लिखे पुरुषो की हो या अनपढ़ की - कम कपडे पहननेवाली , बिना शादी किये किसी पुरुष के साथ रहनेवाली लडकिया हर किसी के लिए उपलब्ध सामान है. वो ना कैसे कर सकती है किसी को अगर वो किसी और को "उपलब्ध " है तो. ये सिर्फ अनपढो की दस्ताn नहीं है . किसी भी महिला लेखिका या महिला पत्रकारों के बारे में जानना है तो जरा किसी भी मीडिया समाचार का वेब साईट खोल ले , उसमे महिला के बारे में जो यश गाथा लिखी आपको मिल जाये गी उसे पढ़ कर आप को लगेगा कि आप अनपढ़ गावर होते तो ज्यादा अच्छा था या साri महिला लेखिका / पत्रकार अपने मुकाम तक इन रास्तो से हो कर गुजरी है. कमोबेश ये हाल सभी पेशे का है - चाहे डॉक्टर हो नर्स हो , वकील हो , प्रवक्ता हो , राजनीती हो ...किस -किस क्षेत्र का नाम गिनाया जाये . महिलाओ के लिए सबसे सेफ समझे जानेवाले टीचर के पेशे में भी ये बात लागू होती है . पर सच्चाई इससे इतर भी है. बहुत सारी औरतो की फ़ौज है जो आज भी अथक परिश्रम करके अपने सफलता की उचइयो तक पहुची है.इन पर बाते करना कोई नहीं चाहता है. . क्यों कि इन बातो में "रस " नहीं है. आप चटकारे नहीं ले सकते , इन पर बाते करने के बाद आपको " चटकारे " जैसा स्वाद नहीं मिलता. दिमाग को भी सकूं नहीं मिलता तो क्या करे इन वे बजह कि बाते करके.

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