एक लड़की सम्पत्ति से बेदखल कर दिये जाने पर अपने मां-बाप का खून कर देती है। यह समाचार पढ़ कर लोगों को लगेगा, ऐसी संतान को जन्म देकर क्या फायदा जो संपत्ति के लिए अपने मां-बाप का कत्ल कर दे! क्या मां-बाप इसी दिन के लिए बच्चों को पैदा करते हैं! बच्चों की शिक्षा-दीक्षा लालन-पालन पर फिर इतना खर्च करके क्या फायदा? सिक्के का दूसरा पहलू- क्या कभी किसी ने सोचा कि एक बच्चे की अपने माता-पिता से क्या अपेक्षाएं होती हैं? उसके भी कुछ मूलभूत अधिकार होते हैं। उन मूलभूत अधिकारों से वंचित करने का हक उनके माता-पिता को भी नहीं है, जो बच्चों को कानून और देश के संविधान के अंतर्गत प्राप्त होते हैं।
हमारे देश में एक अवधारणा बन गई है कि लड़कियों पर ससुरालवाले ही अत्याचार करते हैं। पर दूसरा सच यह भी है कि लड़की अपने माता-पिता-भाई द्वारा घर पर भी शोषित होती है। लेकिन इस सच्चाई को स्वीकार करके भी कोई जल्दी नहीं स्वीकारता। अत: इस पर कार्रवाई भी नहीं के बराबर होती है। सरकार और ढेरों महिला-बाल जनकल्याण मंत्रालय सिर्फ विज्ञापनों द्वारा महिला और स्त्रियों को उनका अधिकार दिलवाने के लिये कृत संकल्प दिखते है।
महिला-बाल कल्याण मंत्रालय सिर्फ कानून पास करवाकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग सिर्फ केस दर्ज करके, आंकड़े दिखा कर और अपने कोरिडोर में अखबारों की कतरनें सजा कर महिला उद्धार कर डालती है। उनके कर्मचारियों से अगर जा कर मिलें तो लगेगा कि न्याय मांग कर हम उनका काम बढ़ा रहे हैं। उनकी जद्दोजहद सिर्फ एक नौकरी पाने तक की होती है।पीड़िता को न्याय दिलाना उनके लिये सिरदर्द होता है। अगर मिस मेरठ प्रियंका की कहानी पर ध्यान दिया जाये तो प्रश्न उभरकर सामने आते हैं- क्या राष्ट्रीय महिला आयोग ने उसकी शिकायत पर समय रहते समुचित कारवाई की? पुलिस और समाज ने प्रियंका के पिता-भाई के बुरे बर्ताव पर अगर समय रहते कारवाई की होती तो बात नहीं बिगड़ती। वह लड़की घरवालों- समाज के हाथों बुरी तरह शोषित हुई, सिर्फ अपनी 'गलती' के कारण कि वह कुछ बनना चाहती थी। प्रियंका ने क्या चाहा था- एक मनपसंद पेशा अपनाना चाहा था। यह हक हम सबको है। पूरा अख़बार आज कैरियर के टिप्स से भरा रहता है। युवाओं पर इतना दबाव बना दिया गया है कि बिना कैरियर के वे अपने अस्तित्व की कल्पना तक नहीं कर सकते। न ही कोई साधारण बन कर रहना चाहता है। इस असाधारण बनने की लड़ाई समाज और मीडिया ने ही शुरू की है। अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करना गलत नहीं है, उसके लिये गलत रास्ते अपनाना गलत है।
प्रियंका को अंजू का साथ भाया क्योंकि माता-पिता विहीन अंजू भी बचपन से अपने घरवालों द्वारा शोषण का शिकार रही है। अंजू-प्रियंका को एक-दूसरे में मां-बाप-भाई-बहन-सखी मिल गईं। हाथ पकड़ने का मतलब यह नहीं होता कि दोनों समलैंगिक हैं। यह भी हो सकता है कि लोगों को दिखाना चाहती हैं कि बुरे वक्त में भी एक-दूसरे के साथ हैं। माता-पिता और परिवार से प्यार सहयोग की उम्मीद करना गलत नहीं है। यह एक स्वाभाविक अपेक्षा है। यही स्वाभाविक चीज अंजू-प्रियंका को नहीं मिली। देश भर में हजारों महिला एनजीओ महिला अधिकारों के लिये समर्पित हैं। पर सहायता के वक्त एक भी आपके पास खड़ा नहीं मिलता। ये एनजीओं अपने ताम-झाम में इतना रुपया खर्च कर डालते हैं लेकिन जिस मकसद के लिए ये बने होते हैं उसके लिए ये कितना खर्च करते हैं? क्यों एक एनजीओ तभी हरकत में आता है जब अखबारों में किसी पीड़िता के बारे में खबर छपती है। किसी एनजीओ का केस डिसपोजल रेट किसी सरकारी महकमें के केस डिसपोजल रेट से कम लम्बा और खिचांऊ नहीं होता। सिर्फ सरकारी महकमे को दोष देने से नहीं चलेगा। यही कारण है कि एक बच्चे की मां पूजा को अपनी पीड़ा समाज के ठेकेदारों तक पहुंचाने के लिये अंतरवस्त्रों में उतर कर रास्तों में निकलना पड़ा। तब भी यह मीडिया और बुद्धिजीवियों के लिये सिर्फ चर्चा और अपनी बौद्विक क्षमता को प्रदर्शित करने का जरिया बना था।
अब पुलिस की बात करें। अगर पुलिस अपने सामाजिक दायित्व को ढंग से पूरा करे तो बात पहली नजर मे ही सुधर जाये। पुलिस के लोग अगर खुद के संवेदनशील और सामाजिक दायरे का विस्तार करें तो उसकी छवि सुधरेगी। तभी पीड़ित, चाहे वो लड़का हो या लड़की, बिना झिझक उससे सहायता लेने पहुंचेंगे। प्रियंका के केस में अगर पुलिस-समाज-महिला संगठन समय रहते उचित कार्रवाई करते तो आज यह हादसा नहीं होता। इसका दर्द किसी पीड़ित से ज्यादा बेहतर कोई नहीं समझ सकता। ढेरों कानून बना लें जब तक उसे ठीक से लागू नहीं किया जाएगा तब तक उसका कोई मतलब नहीं।
आम जनता भी इस बात को स्वीकारती है कि घर पर भी परिवार-रिश्तेदारों द्वारा लड़कियों का शोषण होता है। हम उन हाथों को रोकने का प्रयास नहीं करते। अंजू-प्रियंका पर जायदाद लेने की मंशा से हत्या के आरोप भी लग रहे हैं। पर हममें से कितने हैं जो अपने जायदाद का हिस्सा आसानी से छोड़ देते हैं? प्रश्न यह उठना चाहिये कि जायदाद और नौकरी का स्वाभाविक हक हासिल करने के लिए प्रियंका-अंजू को इतना शोषित-प्रताड़ित क्यों होना पड़ा कि उन्हें हत्या जैसा संगीन रास्ता अपनाना पड़ा? क्यों उन्हें सहायता के लिए बढ़ने वाले हाथ उनका शोषण कर के आराम से समाज में घूम रहें हैं? उन्हें क्यों नहीं दंड मिलना चाहिये? उन मीडियाकर्मियों का जवाब-तलब क्यों नहीं किया जाना चाहिये जो इनमें सेंसेशन तलाश रहे हैं, बजाए मानवीय संवेदना और मनुष्यता प्रदर्शित करने के? प्रियंका-अंजू को प्यार और दिशा-निर्देश चाहिये, अपमान नहीं।
क्या कभी किसी बलात्कार के आरोपी से उसके घरवाले, मुख्यत: उस घर की औरतों ने नाता-रिश्ता तोड़ा है! पर किसी लड़की पर आरोप लगनें पर उससे उसके परिजन ने केवल रिश्ते तोड़ लेते हैं बल्कि कोशिश होती है कि उसे ही गलत साबित किया जा सके ताकि परिवार का सु-नाम बचाया जा सके। उनके हिसाब से लड़की तो बदनाम हो गई, अब थोड़ी और सही। पर घर की रही सही इज्जत तो बचनी चाहिए। इसी नजरिये से अगर देखे तो पाएगे कि प्रियंका की बुआ का बयान अपने परिवार के बचाव में खड़ा है।
क्या एक पिता को यह हक है कि वह अपनी बेटी को लगातार नाजायज औलाद कहे? क्या ऐसा व्यक्ति पिता बनने लायक है जिसे अपनें बच्चों से बात करने की तमीज न हो? अगर प्रियंका एक नाजायज औलाद थी तो इसमें उसका क्या दोष? उसके पिता को उसकी मां से बात करनी चाहिए थी। क्या ऐसे मौके पर प्रियंका की बुआ को अपने भाई को नहीं डांटना चाहिए था, उसके अभद्र व्यवहार के लिए? ये तमाम बातें समाज के रूढ़िवादी और दोहरे सोच को दर्शाते हैं और ग्लोबल इमेज को बट्टा लगाते हैं। क्या एक भाई अपना फर्ज बहन को पीटकर अदा करता है? क्या कभी प्रियंका के भाई ने किसी लड़की को देखकर कमेंट पास नहीं किया होगा? क्या तब वो सही था?
यह भी सच है कि समाज चाहे जितना बोल्ड होने का दिखावा करे पर उसे स्वतंत्र सोच वाली लड़कियां पसंद नहीं हैं। स्वतंत्र दिमागवाली लड़कियां बिगड़ी लड़कियां मानी जाती हैं। समाज उन्हें चुनौती के रूप में लेता है जबकि स्वतंत्र दिमागवाले लड़के समाज में सम्पत्ति के तौर पर लिए जाते हैं। समाज उन्हें अगुआ मानता है। बिगड़े हुए लड़के को समाज-घरवाले शादी करके बसाने की सोचते हैं। इस घर बसाने के चक्कर में एक और लड़की उजड़ जाती है। पर स्वतंत्र दिमागवाली लड़की (या सोकाल्ड बिगड़ी लड़की) को घरवाले अगर अपने हिसाब से नहीं चला सके तो सजास्वरूप उसे घर से निकाल देते हैं या सम्पत्ति से बेदखल कर देते हैं ताकि वो शोषण के अंतहीन दौर में फंस जाए और घरवालों की बात न मानने के दंड़स्वरूप समाज के हाथों लगातार शोषित होती रहे और पल-पल अपनी महत्वाकांक्षा के लिए खुद को कोसती रहें।
कही प्रियंका के माता-पिता-भाई ने भी उसे समाज में शोषित होने के लिए तो नहीं फेंक दिया था, उसे सम्पत्ति और घर से वंचित करके। अगर ऐसा है तो प्रियंका-अंजू को न्याय मिलना चाहिए क्योंकि किसी भी समाज की सार्थकता और सफलता उसकी न्याय व्यवस्था और अन्याय को रोकनें की क्षमता में होती है।
अपने विचार बताने के लिए आप shree.madhavi@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
|
---|
3 टिप्पणियां:
badhiyaa aalekh likhaa hai aapne, ye wo katu satya hai shaayad jiske liye is yug ko kalyug kaa naam diya gaya
जहा तक मेरी निजि सोच है कि बालिग होने के बाद बच्चों के किसी भी कार्य के लिए, मां-बाप को दोषी नही ठहराया जाना चहिए। दूसरी बात संपत्ति का अधिकार मां-बाप के पास ही सु्रक्षित रहना चाहिए।क्यो कि ऐसा देखने मे आया है कि संपत्ति का बटँवारा होते ही मां -बाप दाने दाने को मोहताज हो जाते हैं।जरूरी नही है कि आप मेरी सोच से सहमत हो। इस लिए इसे अन्यथा न लें।
paramjit ji maine kahi nahi kaha hai ki maa- baap ke sampati ke adhikar ka hanan hona chahiye. par aisa bhi na ho ki aap bachcho ke adhikaro ka hanan kar dale apne fayde ke liye.
samasaya ye hoti hai ki hamare samaj me bachcho ko balig hone ke baad bhi maa- baap apne par nirbhar rakhte hai. kya kabhi kisi maa- baap ne bachpan se apne kisi bachche ko kaha hai ki tumeh sampatti me hissa nahi milega. nahi wo hamesa yahi kahte hai meri sampatti tumhari hai.isliye hamare samaj me bachcha kya maa- baap ke marne ka intajar kare kya sampatti ke istemal ke liye. rukiye, mai is is visay par ek lekh likh kar deti hu tab aap apni raay dijiye ga. apki ray mere liye bahumulya hai.
Madhavi Shree
एक टिप्पणी भेजें