सोमवार, 20 जुलाई 2009

इन दिनों मीडिया विनोद काम्बली को एक ग़लत आदमी - एक ग़लत दोस्त साबित करने पर तुली पड़ी है। बेचारे ने क्या कह दिया , यही न कि उसे अपने दोस्त से बुरे वक्त में ज्यादा उम्मीद थी । इसमे ग़लत क्या कहा ,क्या हम सब अपने दोस्तों से उम्मीद नही रखते, क्या मीडिया समाज से उम्मीद नही रखता या समाज मीडिया से। उम्मीद उसी से की जाति है जिस पर भरोसा हो। काम्बली को सचिन पर भरोसा था , इस लिए उम्मीद भी जयादा थी , इसमे उसे ग़लत दोस्त , धोके बाज यह सब साबित करने की क्या जरूरत थी।शब्द भी मीडिया ने ही काबली के मुह पर डाले थे।
यह सब हरकत मीडिया के दिमागी दिवालियेपन का सबूत है। जब मीडिया ख़ुद आलसी हो गया है तो दूसरो का दोष ढूड- ढूड कर अपना काम चला रही है।
इसे ही कहते है सूप दुसे चलनी को जेकरा बह्तर गो छेद ।

1 टिप्पणी:

मधुकर राजपूत ने कहा…

क्या होगा मीडिया को कोसकर? मुनाफे की जंग है, सिद्धांत हमेशा से प्राणिमात्र को पैसे के आगे छोटे ही लगे हैं। सेमिनारों के वक्त मीडिया के बहसबहादुर सिद्धातों को गहनों की तरह पहनकर आते हैं, और बाद में फिर उन्हें अगले मौके पर पहनने के लिए पैसों के पीछे वाली अलमारी में रख छोड़ा जाता है। जहां तक सवाल है दोस्ती का तो कांबली और सचिन जानें उनका आपसी मामला है। सवाल है कार्यक्रम निर्माताओं से, भई क्यों तुम कांबली-आंबली को परेशान कर रहे हो, किसी हाकिम को पकड़ के लाओ, उससे पूछो कितने रुपये खाए जनकल्याण की योजनाओं से। विधायकों, सांसदों से पूछो ये सवाल। जनता उन्हें भी देखेगी। इससे ज्यादा रेस्पॉन्स देगी।