सोमवार, 20 जुलाई 2009

इन दिनों मीडिया विनोद काम्बली को एक ग़लत आदमी - एक ग़लत दोस्त साबित करने पर तुली पड़ी है। बेचारे ने क्या कह दिया , यही न कि उसे अपने दोस्त से बुरे वक्त में ज्यादा उम्मीद थी । इसमे ग़लत क्या कहा ,क्या हम सब अपने दोस्तों से उम्मीद नही रखते, क्या मीडिया समाज से उम्मीद नही रखता या समाज मीडिया से। उम्मीद उसी से की जाति है जिस पर भरोसा हो। काम्बली को सचिन पर भरोसा था , इस लिए उम्मीद भी जयादा थी , इसमे उसे ग़लत दोस्त , धोके बाज यह सब साबित करने की क्या जरूरत थी।शब्द भी मीडिया ने ही काबली के मुह पर डाले थे।
यह सब हरकत मीडिया के दिमागी दिवालियेपन का सबूत है। जब मीडिया ख़ुद आलसी हो गया है तो दूसरो का दोष ढूड- ढूड कर अपना काम चला रही है।
इसे ही कहते है सूप दुसे चलनी को जेकरा बह्तर गो छेद ।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

चंडीगड़ से एक मुलाकात

अभी हाल में चंडीगड़ जाने का मौका मिला । बड़ा ही ख़ूबसूरत शहर है। चारो तरफ़ हरियाली, सब कुछ हरा- हरा। साफ सुथरा, आपको भ्रम होगा कि आप किसी विदेश में है। चंडीगढ़ में इन्सान को एक बार जरूर जाना चाहिए।
चडीगढ़ प्रेस क्लब कि तो बात ही और है उनका अपना स्वीमिंग पूल है। मेरे ख्याल से यही एक समृद्ध प्रेस क्लब होगा पूरे भारत वर्ष में। चंडीगढ़ का सेक्टर १७ का मार्केट बहुत बड़ा और प्रसिद्ध है। काफी लंबा फैला हुआ है।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

देश और जनसँख्या कि समस्या

आप ने कभी सोचा है कि हमारी सरकार आज- कल जनसँख्या के बारे में बिल्कुल नही सोच रही है । जनसँख्या पर उसके पास कोई ठोस नीति नही है। सड़क पर बच्चे भटक रहे है ,भीख मांग रहे है, ढाबे पर काम कर रहे है , सड़क पर रेड लाइट पर किताब बेच रहे है, नागे भूके घूम रहे है। पर सरकार एक कानून पास कर के खुश - बाल मजदूरी निरोधक कानून। मानों कानून पास हुआ नही कि बच्चो कि स्थिति में सुधर अपने आप हो जाए गा। दिल्ली जैसे शहर में जब ये हाल है जहा कानून पास होता है, पत्रकार, नेता , नौकरशाह भरे पड़े है तब तो दिन दहाड़े बाल मजदूरी चल रही है। तो सोचिये गरीब जनता कि स्थिति गाव में कैसी होगी।
अंधी सरकार - अंधी जनता।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

पुलिस इन दिल्ली

दोस्तों , परसों मै अपनी एक परिचिता के साथ इंडिया गेट पर टहलने गयी थी । हमने सैर के बाद भुट्टा खाया । तभी
एक पुलिस की गाड़ी रुकी । उनमे से दो पुलिसवाले उतरे , एक कोल्ड ड्रिंक वाले के पास गया और दो कोल्ड ड्रिंक उठा लाया , दूसरा हमारे सामने वाले भुट्टे वाले से तीन- चार भुट्टा सेकवा कर ले लिया वो भी प्लास्टिक की थैली में , जब दिल्ली में प्लास्टिक की थैली बैन है। भुट्टे ले कर उसने रूपये नही दिए, ये आम बात हो शायद रोज मर्रा की जिंदगी में , पर मुझे अच्छा नही लगा। शायद मै भी डरपोक थी जो उस समय उन पुलिसवालों को कुछ नही बोली।
अब मन में बात कचोट रही है , इस लिए आप सब से बाट रही हु ताकि मन का बोझ हल्का हो। इन पुलिस वालो की तनख्वाह २० हजार रुपये है , कांस्टेबल रैंक पर फिर भी उस दो टेक के भुट्टे वाले का २०- ३० रुपये मार कर उनेह क्यामिला मुझे समझ में नही आ रहा है।
आप अपनी राय जरूर लिखिए गा