सोमवार, 31 अगस्त 2009

महिला आरक्षण बिल -क्या है हाल

अभी हाल में एक महिला पत्रकार सम्मलेन में संदीप दिक्षित, महिला आरक्षण बिल कमिटी के अध्यक्ष नाच्चिपा , वृंदा करात,अन्नू टंडन,मेबेल , नजमा हेप्दुल्ला ने अपने विचार रखे . कुल निचोड़ इन विचारों का यही निकल कर आया कि पुरुष संसद नहीं चाहते कि उनकी गद्दी की कीमत पर महिला आरक्षण बिल पास हो , और कांग्रेस इस मुद्दे को पंचायत में महिलाओ को ५०% आरक्षण दे कर ठंडे बस्ते में डाल देना चाहती है. संदीप दीक्षित , नाच्च्पा का मानना है कि "ऑन दी रिकॉर्ड " कोई पुरुष संसद अपने हाथ काट कर महिलाओ के लिए दरवाजे नहीं खोले गा . १८१ सीट का जो आरक्षण उनको मिल रहा है वह वे लेले और संसद के अन्दर आ कर फिर अपने लिए रास्ता बनाये. १८१ नए बनाये गए सीटो पर आरक्षण पाने के बाद महिलाओ कि स्थिति २५% वाली रह जाये गी. इस के लिए लालू और शरद यादव जैसे नेता भी तैयार हो जाये गे. अंत में स्थिति यह उभरती है कि महिलाओ को हमेशा "जो मिलता है वो लेलो वाली " ही रहती है. चाहे वो घर हो या संसद. महिलाओ को कभी भी गरिमा के साथ उनका हक नहीं मिला है.
वृंदा करात ने ठीक कहा - " बड़े परिवर्तन कभी भी आम सहमती से नहीं होते है , इन का विरोध हमेशा हुआ है . चाहे वो मंडल कमीशन रहा हो या महिलाओ का संपत्ति में अधिकार " वृंदा के अलावा मेबेल जूझारू एमपी लगी जो झारखण्ड से थी.
कुल मिला कर यह स्थिति है महिला आरक्षण बिल का यथार्थ में.
जानकारो का मानना है कि कांग्रेस अभी इस बिल को लटकाईगी और तीसरे साल में इसे लाकर इस पर तारीफ बटोरे गी.
इस सम्मलेन में नजमा जी संदीप दीक्षित के करीब जाने कि कोशिश करती दिखती गयी , क्या उनकी कांग्रेस में दुबारा जाने कि इच्छा है? क्या सोनिया जी सुन रही है? या उनके सलाहकार ?????????

शनिवार, 22 अगस्त 2009

जसवंत सिंह प्रकरण -बीजेपी : एक तीर दो शिकार

जसवंत सिंह का निष्कासन बीजेपी SE इतना सरल मुद्दा भी नहीं है. क्योकि इसी बहाने से बीजेपी नेहरु के मुद्दे को बहुत प्रभावी तरीके से उठा सकी है फिर से जनता के बीच में . आज से कई वर्षो पहले बीजेपी ने स्यूडो सेकुलर का मुद्दा जनता के बीच बड़े प्रभावी तरीके से उठाया था , आज वो फिर कांग्रेस- नेहरु की भूमिका विभाजन के वक़्त जनता KE बीच उठा रही है . पर इसकी कीमत जसवंत को बलि का बकरा बना कर दिया जारहा है. लोगो के मानस पटल पर नेहरु - गाँधी परिवार की छवी इतनी मजबूत है की कांग्रेस चुनाव के समय इस छवी को हमेशा भुनाने का काम करती है. बीजेपी की पूरी कोसिस है कि इस छवी पर सवाल खड़े किये जाये और वो जनता का रुख अपनी तरफ मोड़ सके.
देखे बीजेपी इस प्रयास में कितनी सफल होती है. कितना कांग्रेस उसे सफल होने से रोकती है, ये तो वक़्त ही बताये गा.

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

अक्स

"कमीने" सिनेमा देखने के बाद मुझे जिस फ़िल्म की सबसे ज्यादा याद आयी वो थी "अक्स" मूवी । इस सिनेमा में अमिताभ बच्चन ,रवीना टंडन, मनोज बाजपाई ने जो जानदार अभिनय किया था वो काबिले तारीफ था । ये मूवी मनोज बाजपाई के अभिनय के कारण मुझे ज्यादा यादगार लगती है। मुझे इस मूवी में मनोज अमिताभ से २० नजर आए । इसमे अमिताभ भी अपनी जबरदस्त भूमिका में थे पर रवीना बिल्कुल एक नयी अवतार में थी . ये सिनेमा आज भी मेरे यादगार सिनेमा लिस्ट में आता है । इसके बारे में कई लोगो की राइ थी की इसका कोई कहानी लाइन नही है, पर मानती हू कि जीवन का ही कोई एक सरल लाइन नही होता है। फिर कहानी का क्यो हो। ये कहानी हार न मानने की कहानी है, चाहे वो बुराई की हो या भलाई की , दोनों के बीच लडाई की कहानी भी है। बड़ी मजेदार कहानी है ये। सच क्या है, बुरा क्या है....... इसकी कहानी ...... हम सब इसी अक्स को प्रस्तुत करते है , इसी के साथ जीते है......

शाहरुख़ और महारास्ट्र के किसान

परसों रविवार को टाईम्स ऑफ़ इंडिया या कहे सभी बड़े अखबारों और न्यूज़ चंनेलो की ख़बर थी कि शाहरुख़ के साथ अमेरिका में एअरपोर्ट पर बदसलूकी हुई जाँच के दौरान । अभी तीन दिनों में भी मीडिया का बुखार नही उतरा शाहरुख़ के साथ बदसलूकी पर। ४०%-२०% कवरेज शाहरुख़ को मिल रही है सभी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर ,पर ४० किसानो की आत्महत्या पर किसी मीडिया कर्मी ने इतना कागज नही रंगा। टाईम्स में यह स्टोरी शाहरुख़ वाली न्यूज़ के साथ थी पर एक-दो कालम में ख़तम कर दी गयी वही शाहरुख़ वाली न्यूज़ अन्य पन्नो पर भी चली फोटो के साथ प्रमुखता से , हर किसी की राय ली जा रही है कि क्या शाहरुख़ के साथ जो बरतओ हुआ वो सही था या ग़लत , उचित या अनुचित .किसी ने किसानो की अत्महत्यावाला मुद्दा इतनी तीव्रता से नही उठाया जितनी तीव्रता से शाहरुख्वाला मुद्दा उठाया । क्या ४० किसानो की जान इतनी सस्ती है कि किसी मीडिया कर्मी को इससे जुड़े सरकार की ग़लत नीतियों, अफसरों की लापरवाही ,किसानो की अज्ञानता , आम जनता की संवेदनहीनता पर ऊँगली रख सके । कोई सवाल - जवाव का सिलसिला इस पर सुरु क्यो नही होता की इतनी कर्ज माफ़ी बाद भी क्यो इतने किसान आत्महत्या करे चले जा रहे है। जिस स्वाइन फ्लू बीमारी पर रोज इतने पन्ने रंगे होते है है रोज उससे मरनेवालों की संख्या भी किसानो की आत्महत्या की संख्या से कम है। २७ लोग स्वाएन फ्लू से मरे है ।
मेरा यह कहना है की कही हम आउट ऑफ़ प्रोपोसन हो कर इस लिए तो नही सोच रहे है कि फ्लू के साथ होस्पिटालो का लंबा चौडा कारोबार जुडा है पर किसानो के साथ अभी तक मीडिया की कोई मिलीभगत नही हुई है, न शाहरुख़ की तरह उनका कोई पीआरओ है, ना वो शाहरुख़ की तरह उनेह चाय पिला सकते है , न गिफ्ट दे सकते है। न ही उन गरीब किसानो से जुड़ कर कोई स्टेटस सिम्बल का अहसास किसी मीडिया कर्मी को होगा। वो तो बिचारा घरपर डींग भी नही मार सकेगा की वो किसी सुपर स्टार से मिल कर आया है।
हां एक बात और : क्या राजीव शुक्ला इतनी आसानी से किसी आम नागरिक का फ़ोन उठा ते जो मुसीबत में फसा हो और उसकी मदद के लिए किसी अफसर तो ताबड़तोड़ फ़ोन करते। नही कभी नही। क्या यही जनतंत्र है। क्या यही आम जनता का राज है। सच कहते है शाहरुख़ " थोड़ा और विश करो , डिश करो"
हम आम जनता विश ही नही करती तो लातम -जूतम तो खायेगे ही। शाहरुख़ के साथ बद्सलोकी और ४० किसानो की जान क्या एक ही मुद्दा है? ६२ साल की आज़ादी के बाद हमने जो चुना वो सामने है । मरता गरीब आदमी जो पत्रकारों के लिए उतना अहम् नही है पर सुपर स्टार के साथ अमेरिका का सलूक देश के लिए चिंता का विषय है। गहन चिंता का विषय है।
मजे की बात ये है कि शाहरुख़ अमेरिका जाते रहेगे , सारे सुपर स्टार जाते रहे गे , बेचारे किसानो का हाल वही का वही रहेगा ............

थाईलैंड का तोता वाला फूल

यह फूल थाईलैंड में पाया जाता जो देखने में तोते जैसा लगता है । इसके निर्यात पर प्रतिबन्ध है , इसलिए हम-आप इसे केवल यहाँ तस्वीरों में देख सकते है। इसे संग्रक्षित फूलो कि श्रेणी में रखा गया है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कमीने


कल कमीने सिनेमा का प्रिविऊ देखनोको मिला। जैसा सोचा था वैसी ही मूवी निकली - विशाल भरद्वाज की : एक दम धासु , खालिस देशी। विशाल की मूवी हमेशा से मिटटी से जुड़े होते है, उसमे सेक्स , हिंसा ,देसी- विदेशी गानों का खुबसूरत और जबरदस्त तालमेल होता है।
कहानी एक जुड़वाँ भाई यूपी के जो मुंबई में पाले बड़े होते है , एक भाई- बहन जो मराठी होते है के अलावा एक माफिया गैंग , पुलिस , रेस के घोडे -रेस का मैदान और उसमे तीन बंगाली बाबूओ का किरदार कुल मिला कर कहानी
इतने सुंदर तरीके से गुथी गयी है कि एक मिनट के लिए आप का मन उसे छोड़ कर जाने के लिए नही होगा ।
विशाल ख़ुद एक संगीतकार है ,इसलिए उनमे संगीत की समझ और पकड़ बहुत मजबूत है। मिटटी से जुड़े देशी संगीत का जादू उनकी फिल्मो में भरपूर मिले गा। वैसे भी मकडी,मकबूल,ओमकारा जैसी फिल्मे देने के बाद विशाल के बारे में कुछ नया लिखना मुश्किल ही है। कुछ फिल्मे हीरो-हेरोइनो के नाम से जानी जाती है कुछ निर्देशक के नाम से जानी जाती है .विशाल उन निर्देशकों में है जिनकी फिल्मे उनके निर्देशन -संगीत के लिए जानी जाती है।
इस फ़िल्म में मुझे प्रियंका चोपडा जितनी अच्छी लगी उतनी किसी फ़िल्म में नही लगी। शहीद का तो कोई जबाब नही, जिस तरह से हकलाने का अभिनय उसने किया है इससे पता चलता है अभिनय उसके खून में है।
इस फ़िल्म को तीन कारणों से जन जाए गा - पहला इसमे यू पी - मराठी विवाद को बहुत सुंदर तरीके से उठाया गया है, दूसरा - इसमे एक लड़की की बगावत अपने भाई के खिलाफ दिखायी गई है, जो उसके चंगुल से निकल अपना जीवन जीना चाहती है। (वैसे - गुलाल फ़िल्म में एक बहन का इस्तेमाल उसके भाई द्वारा अपनी सत्ता हासिल करने के लिए बखूबी दिखाया गया है ,पर इसमे बहन की बगावत सफल रहती है , गुलाल में तो बहन परिस्थितियों से समझोता करते हुए दिखायी गयी है। )
तीसरा- क्षेत्रीय भाषा का जबरदस्त प्रयोग इस में दिखाया गया है। जैसे बंगला में जब बुकी भाई लड़ते है तो "फज्लामी" शब्द का प्रयोग किया गया है आज कल जब बंगला फ़िल्म जगत मुम्बैया फ़िल्म के प्रभाव से ग्रसित है और इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल बंद हो गया है , उस समय हिन्दी सिनेमा में इस शब्द का इस्तेमाल विशाल की भाषा और स्क्रिप्ट पर जबरदस्त पकड़ दर्शाती है।

सोमवार, 10 अगस्त 2009

लड़कियो की खरीद- फरोद सेक्स बाजार में

एक एनजीओ ने अभी एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया था जिसमे एक बच्ची को बांग्लादेश से छुड़ाया गया था और उसे उसके माँ -बाप को सौपा दिया गयाथा जो कि पंजाब के थे। ये प्रयास काबिले तारीफ है,पर सवाल उठता तक कि इतने सारे एनजीओ मिलकर कितना ,सुधर ला सके है। क्या मीडिया ने इस पर अब तक कोई खोज पूर्ण रपट बनाई है।अबतक कोई रिपोर्ट मीडिया में क्यो नही आयी किकितने रुपये इन एनजीओ को मिलते है और कितना ये अपने तामझाम में खर्च करते है और कितना ये उन मदों या कामो पर खर्चा करते है जिनके लिए उनेह ये मोटी रकम मिलती है। ये जो आकडे पेश करते है वो कितना विश्वसनीय है। अगर ये विश्वसनीय नही है तो इनकी बातें हम क्यो सुने? उनेह तवज्जो क्यो दे? एनजीओ एक बहुत बड़ा मध्यम है जनतंत्र में सुधार लाने का इसलिए इसे ढंग से मोनिटर करने की जरूरत है ।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

एक यादगार यात्रा

अभी हाल -फिलहाल मुझे भाखरा -नागल बाँध करीब से देखने का मौका मिला। . वहा जा कर लगा कि पंडित नेहरू ने कितना बड़ा कार्य देश के लिए किया था। चूकि वहा सुरक्षा कारणों से कैमरा ले जाना मना था ,इस कारण वहा की तस्वीरे हम नही ले पाए। बाँध के ऊपर से गुजरे , उसके नीचे तक गए । क्या लोमहर्षक दृश्य था ,वर्णन करना मुश्किल है। लिफ्ट से बाँध के नीचे तक गए १४० फीट नीचे एक मिनट से भी कम समय में । जब तन्नेल के अन्दर चल रहे थे तो पानी का दबाव
महसूस कर रहे थे। बाहर आयी तो लगा कितनी खुबसूरत जगह है।बिजली जहा बन रही थी वहा भी गयी । इस बाँध से दिल्ली , यूपी ,हिमांचल, अगल- बगल के कई राज्यों को बिजली - पानी की सप्लाई होती है। पंजाब की कहानी इस बाँध के निर्माण के बाद से बदल गयी। इस के बाद मै उस जगह गयी जहा पंडित नेहरू ने चीन के तत्कालिन प्रधान मंत्री के साथ "पंचशील संधि " पर हस्ताक्षर किया था । हालाकि वह कमरा बंद करदिया गया है आम जनता के लिए ऐतिहासिक कारणों से। पर इस जगह की खूबसूरती इसके ऐतिहासिक महत्व को और बढ़ा देती है।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

एक परी थी !


ये कविता रजनीश ने मुझे भेजी थी पड़ने के लिए ,मुझे बहुत पसंद आयी आप सब से बटना चाहू गी - माधवी श्री


एक परी थी,
हाँ वो परी ही तो थी!
मुझे वो सोनू कहा करती थी,
और में भी उसका शोनू ही तो था !
हमारी मिली जुली खनकती ,
हँसी आज भी मेरे कानों में गूंजती है,
जिसकी आवाज सुनकर मेरी आँखें बंद होती थी !
और सुबह जिसकी आवाज सबसे पहले सुनता था,
हाँ वो परी ही तो थी!
जीवन का सफ़र जारी है,
मेरा भी उसका भी,
बस नहीं है तो इतना कि,
हम हमसफ़र नहीं हैं !
परी हमसफ़र होती भी नहीं है,
सच वो परी ही तो थी !
क्या परी फिर से किसी को भी सोनू पुकारेगी ?
फिर से किसी को शोना बनाएगी ?

एक अनुभव


अभी हाल में एक सेमिनार के सिलसिले में मुझे पंजाब जाना पड़ा . वहा से हमें आनंद
पुर साहब लेजाया गया । काफी वर्षो से आनंद पुर साहब के बारे में सुना था , वहा जा कर एक अलग सा स्वर्णिम अनुभव हुआ। मेरे साथ जो खड़े है वो है इबुग गोचुबी । इबुग इम्फाल में पत्रकार है। पुरे यात्रा के दौरान हमलोगों ने इबुग को सेपरिस्ट (अलगाववादी) कह- कह कर चिढाया , पर इबुग ने जरा भी बुरा नही माना। उल्टा उसने कहा - बन्दूक दे दो मुझे। ऐसा है इबुग का सेंस ऑफ़ हूमर।
मेरे साथ जो महिला है , वो है वरिष्ट पत्रकार अशोक मालिक की पत्नी .बचपन में वो ट्रेन के डिब्बे में बैठ जाया करती थी और एक स्टेशन से दुसरे स्टेशन तक उतर जाने का खेल खेला करती थी । पूछने पर पता चला कि उनके पिता रेलवे में थे इस लिए सभी रेलवे कर्मचारी उनेह जानते थे। कोई कुछ नही कहता था । मासूम बचपन उनका ऐसे ही हँसते खेलते बीता। हम सभी का बचपन इतना ही सुंदर था। मेरा बचपन भी डंगा- पानी , कित- कित , इलास्टिक, गट्टा, गिल्ली- डंडा सभी खेलते बीता। आज वो दिन कल्पना की उडान लगते है। कभी- कभी लगता है वो हिस्सा मेरे जीवन का क्या मेरा था , क्या मैंने जिया था?