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BAKBAK
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
एक कविता- व्यवस्था
व्यवस्था के दरवाजे पर पंहुचा एक आदमी.
जो था व्यवस्ता का शिकार .
कुछ दिनों बाद खबर आयी
वो आदमी ,
व्यवस्था का
शातिर शिकारी बन गया
1 टिप्पणी:
बेनामी ने कहा…
बहुत शानदार,
व्यवस्था की व्यवहारिकता पर व्यंग की शानदार चोट .
बधाई
4 सितंबर 2009 को 6:54 pm बजे
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1 टिप्पणी:
बहुत शानदार,
व्यवस्था की व्यवहारिकता पर व्यंग की शानदार चोट .
बधाई
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