मंगलवार, 29 सितंबर 2009

शायद ये तस्वीरे आप को पसंद आये



आज चिठ्ठा जगत में घुमते फिरते यह ब्लॉग . महिला शक्ति (http://vishvmahilaparivar.blogspot.com/)
मुझे दिख गया . इस ब्लॉग में सबसे आकर्षक बात मुझे लगी इस ग्लेमर भरी दुनिया में एक सुंदर सी साडी पहने सादगी से भरी हुई एक प्यारी सी महिला की तस्वीर. सब से अच्छा लगा उस महिला का ब्लॉग. अगर समय मिले तो आप भी जरूर पढ़े इसे .


शनिवार, 26 सितंबर 2009

ज़िन्दगी और हम

हारना हमने सीखा नहीं , जीतने का मौका जिंदगी ने दिया नहीं
कुछ कमी रह गयी थी आपसी समझ में,
तभी तो हर मोड़ चौराहा सा नज़र आता है.

बुधवार, 23 सितंबर 2009

महिला मुक्ति संगठनो की सच्चाई

आज जहा महिलाये हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है वही उनपर दूसरी और लगातार जद्तियो- अत्याचार की खबरे भी लगातार आ रही है . २००९ में जहा आई ए एस की सर्विस में महिला ब्रिगेड ने अपना परचम लहराया है तो वही दूसरी और रास्ट्रीय महिला आयोग ,विभिन्न राज्यों की महिला आयोगों, महिला अपराध सेल के समक्ष महिलाओ के खिलाफ बढती जद्तियो के आकडे भारत में महिलाओ की स्थिति के दो पहलू उजागर करते है. एक और जहा महिलाओ के प्रति समाज ,माँ- बाप का रवैया बदला है वही समाज में पूरी तरह से अपेक्षित बदलाव नहीं आये है . इस कारण जिसतरह के कामो के लिए महिलाओ को चुना जा रहा है उससे समाज का जो जटिल चेहरा उभरता है वो यही कहता है कि महिलाओ को स्थान तो मिल रहे है पर निर्णय लेने वाले पदों के लिए नहीं .इसी कारण मिस मेरठ तो प्रियंका तो चुन ली जाती है पर अपने मनपसंद के काम के लिए घर से बहार निकल कर शोषण के अंत हीन दलदल में वो फस जात है अंत में सम्पति के अधिकार के लिए बोखालाई प्रियंका के हटो माँ- बाप का खून हो जाता है . प्रियंका की कहानी तथाकथित आधुनिक महिलाओ के शोषण और हार की कहानी है और निक्कमी व्यवस्था ,दोहरे माप दंड के समाज की कहानी है. ये उन तामम महिला संगठनो और महिला आयोगों के निकामेपन की कहानी है जो उदित नारायण, मटुक नाथ या यू कहे हाई प्रोफाइल टीवी में प्रर्दशित केसों के लिए समय तो निकल लेती है पर जरूरतमंद लड़कियो को सब्र का पाठ पढ़ने के अलावा इनके पास कोई काम नहीं रहता.
पंचायती राज में भले ही महिलाओ को आरक्षण मिलगये हो ३३% तक और बिहार में तो ५०% आरक्षण दे दिए गए है ,पर महिला सरपंच का काम उनके पति -बेटा -पिता या घर का कोई पुरुष संभालता है ऐसी खबरे प्राय आती रहती है. ऐसा नहीं है कि यह समाचार सिर्फ पंचायत के दरवाजे से आते है राजनितिक, व्यावसायिक , पत्रकारिता, फिल्म हर तरह के पेशो से इस तरह कि सूचना आती रहती है. महिलाओ की तरक्की के पीछे उसकी परवारिक पृष्ठ भूमि का होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. यही समाज का असली चेहरा है.
संसद में भी जो महिला आरक्षण की मांग पिछाले ११ वर्सो से टरकई जा रही है उसके पीछे भी पुरुष सांसदों की असुरक्षा की भावना काम कर रही है. वे सीट बढ़ने की बात मानने पर आरक्षण देने का इशारा तो कर रहे है पर जो सीटे अभी है उनमे से बटवारा नहीं चाहते. ये सिर्फ संसद की सच्चाई नहीं है वल्कि हमारे घरो की भी सच्चाई है. जहा हम अपनी बेटियो को अपने हिस्से से कुछ नहीं देना चाहते बल्कि अलग से कुछ देने पर विस्वास करते है. इसी कारण हम सहर्ष दहेज़ तो देना स्वीकार करते है पर सम्पति में उसका हक़ अभी तक अस्वीकार करते है.

यह लेख मेरा "ब्रेकिंग न्यूज़" नामक मासिक पत्रिका में "आइना" कालम में छपा था उसके पिछाले अंक में . उसी से साभार

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दिल बोले हदिप्पा - स्त्री विमर्श पर एक बेहतरीन फिल्म

"दिल बोले हदिप्पा" - यश राज प्रोडक्शन की यह फिल्म एन आर आई , क्रिकेट,भारत - पाकिस्तान की दोस्ती , पंजाब ,एक प्रेमी युगल की कहानी से कही दूर तलक आगे जाती है. फिल्म के दो सीन पूरी फिल्म को भीड़ से बिलकुल अलग खडा कर देता है . एक- जब वीरा ( रानी मुकर्जी ) को क्रिकेट खेलने से स्टेडियम का गॉर्ड रोकता है , तभी दुर्गा माता की सवारी जाती है - जब सब माता की सवारी देख कर शीश झुकते है तब वीरा कहती है, फोटो में बिठा कर जिसे पूजते हो इन्सान में उसे पा कर कुचलते हो . दूसरी - तुम लड़कियो को क्रिकेट खेलने से रोक सकते हो ,पर उसे सपने देखने से नहीं रोक सकते. खेल देखो ,खिलाडी का नाम मत देखो.अगर मै अच्चा खेलती हू तो लड़को के साथ खेलने में बुराई क्या है? आप कहते हो लड़कियो के साथ जा कर खेलो पर लड़कियो की टीम कहा है....?
वीरा के ये सवाल आज की प्रतिभा सम्प्पन ग्रामीण लड़कियो की सच्ची कहानी है और स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो आज भी यक्ष की तरह हमारे - आपके बीच खडा है...
इस फिल्म को अगर इस द्रिस्तिकोन से आप देखेगे तो पूरी फिल्म एक अलग सी दीख पड़े गी...फिल्म में रानी मुखर्जी उतनी फ्रेश नहीं लगी , अंत के कुछ दृश्यों में वो जबरदस्त लगी... लड़के की भूमिका में वो बिलकुल लड़का लग रही थी. शहीद कपूर मेरे पसंदीदा कलाकारों में है इसलिए मै उसके बारे में भेदभाव पूर्ण हो जाती हू. पर वो भी एक बेहतरीन कलाकार बन कर उभरे है इस फिल्म में. अनुपम खेर ,पूनम ढिल्लों ने अपनी भूमिका के साथ इंसाफी की है.

अंत में एक बात - इस फिल्म के निर्देशक अनुराग सिंह आई आई एम् सी , दिल्ली के २००५ बैच के पास आउट है ( विश्वस्त सूत्रों ने यह जानकारी दी है..) अब पत्रकार दूसरे पेशे में जयादा सफल होने लगेहै.

बुधवार, 16 सितंबर 2009

अप - यानि ऊपर : ऊपर की सैर


कल मैंने एक और पिक्चर देखी. पिक्चर "एनिमेटेड सिनेमा" थी. इस कारण लग रहा था कैसी होगी. पर जब देखी तो लगा इस सिनेमा में दो - तीन बाते जो हमे आम जीवन से जोड़ती है वो है हम सभी के अन्दर एक घुमक्कड़ आदमी रहता है जो वक़्त और जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों के पीछे दौड़ - दौड़ कर थक जाता है. पर उसे अपने मन की मुराद पूरी करने की भी इच्छा रहती है .जब हमे मौका मिलता है तो हम उस मुराद को पूरी करने की कोशिश भी करते है.पर उम्र के ढलान पर यह जज्बा थोडा कमजोर हो जाता है. ऐसे समय पर जब हम किसी बच्चे से टकराते है तो उसका उत्साह हमे फिर से तरो- ताजा कर देता है. हम फिर से जीवन जीना शुरू कर देते है. छोटी सी मूवी में बहुत बड़ा सन्देश छिपा था. कभी- कभी छोटे बच्चे हमे ज्यादा कुछ सीखा देते है और गलत - स्वार्थ पूरण जीवन मूल्यों को वापस सही कर देते है .यह इस फिल्म में बहुत बेहतर तरीके से दिखाया गया है. मुझे एक बात खल रही थी - हमारी मुम्बैया फिल्म इंडस्ट्री ऐसी मूवी क्यों नहीं बनती जब कि ऐसे बहुत सारी कहानिया हमारे पास मौजूद है . हम बस नकलची की तरह नक़ल करते रहते है. बच्चो के लिए फिल्म डिविजन है पर वो बच्चो के लिए कितनी फिल्मे बनाते है? यह सिनेमा बच्चो को जितनी पसंद आयेगी बडो को भी उतनी ही पसंद आयेगी .बलून के सहारे पूरा घर लेकर उड़ना और हर नए चुनौतियो का मुकाबला करना इस फिल्म के खूबसूरत दृश्य है.

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

ब्लू ओरंजेस " यानि - नीले संतरे .

कल एक फिल्म देखी " ब्लू ओरंजेस " यानि - नीले संतरे . ये फिल्म राजेश गांगुली की है. ये राजेश की पहली फिल्म है. राजेश ने ये अच्छा प्रयास किया है " कम बजट सिनेमा "में जो हमे "चस्मेबद्दुर", "नरम -गरम ", "गोलमाल " जैसी फिल्मो की याद दिला जाती है. हलाकि यह एक डिटेक्टिव फिल्म है पर आप पूरे तौर पर इस फिल्म से जुड़े रहते है शुरू से लेकर अंत तक. कुछ एक बात जो इस फिल्म का प्लस पॉइंट है और कमजोर भी. यह फिल्म कम बजट की फिल्म है और हमारी आँखों को बड़ी बजट की फिल्मो की आदत हो गयी है. दूसरी स्टार कास्ट में प्राय सब नए है सिर्फ राजित कपूर उर्फ़ ( ब्योमकेश बक्शी ) ;शिशिर शर्मा को छोड़ कर. नए आये कलाकारों में अहम् शर्मा काफी उम्मीद से भरे कलाकार लगे. अगर इस बन्दे को अच्छी फिल्मे मिलती है तो आने वाले दिनों में ये लम्बी रेस का घोड़ा होगा. पूजा कँवल "हम लोग " टीवी सीरियल की लजोजी (अनीता कँवल ) की बेटी है. पूजा की पहली फिल्म राजश्री प्रोडक्शन के साथ थी मुहब्बत वाले विषय पर जो बुरी तरह बॉक्स- ऑफिस पर पिटी. इस फिल्म में पूजा ने परिपक्व एक्टिग की है. देखे सितारे उसे कहा तक ले जाते है. कुल मिला कर मूवी एक अच्छी फिल्म बन पड़ी दिखाती है. जो टीवी सीरियल का सा अहसास देती है पर ये हमारी बड़ी बजट फिल्मो की आदत की खराबी है. फिल्म मल्टी- प्लेक्स या छोटे शहरो में चलनी चाहिए . अगर आप ये फिल्म देखे तो मुझे जरूर बताये कैसी लगी.

शनिवार, 12 सितंबर 2009

यह सिनेमा मैंने अभी हाल में देखी . वैसे इस सिनेमा मे कोई खास अलग बात नहीं है उन तमाम अंग्रेजी सिनेमाओ से जिनमे हर समय आदिम अस्तित्व पर खतरा मडराता रहता है. इसमें भी वही सब है पर बात जहा अलग सी दीख पड़ती है वो है इस फिल्म के माध्यम से यह बात दोहराई गई है कि अँधा धुन अगर हम मशीनीकरण कर लेगे अगर अपने जीवन का तो एक दिन मनुष्य का ही जीवन समाप्त हो जायेगा इस पृथिवी से .
इस फिल्म में वैज्ञानिक अपने मरने से पहले अपनी " मानवता " एक मशीन ९ में रख देता है जो बाद में मनुष्य की तरह ही हरकत करता है . वो बार - बार अपने साथियों को मुसीबत से निकलने के लिए अपने आप को खतरों में झोक देता है, वही उन का मुखिया सबको बचने के लिए सिर्फ छुप जाना पसंद करता है. वैसे ये कहानी बहुत हद तक मानवीय है पर पात्र सिर्फ मशीन है. कही -कही तो यही बात खलती है. और पात्रो का मानवीय होना ही हमे इस सिनेमा से बांधे रखता है. सभी पात्र आम इन्सान की तरह हरकत करते नज़र आते है चाहे वो एक दूसरे को डराने की कोशिश करते हुए या हावी होते हुए. मशीनी पात्रो के साथ ये फिल्म बहुत हद तक मानवीय है.



मानसून का सरोद वादन

"http://www.youtube.com/v/CvDZ6WLp8xI&hl=en&fs=1&">
रिकॉर्डिंग मेरे लिए एक अजनबी दोस्त ने की थी, अजनबी इस लिए कि मै उसे नहीं जानती थी , दोस्त इस लिए क्यों कि बिना जाने उसने अपना रेकॉर्डेड संगीत वादन मुझे सुनाया और दिखाया . असल में कुछ दिनों पहले दिल्ली में भारतीय संस्कृति परिषद् की और से मानसून कार्यक्रम का आयोजन किया गया था . मै कार्यक्रम में थोडी देर से पहुची तो अमान और अयान बन्धु का सरोद वादन ख़तम हो चूका था और मेरे पास अफ़सोस करने के अलावा और कुछ नहीं था , तब आशीष कॉल ने अपनी यह रिकॉर्डिंग सुना कर मेरा वहा जाना सफल कर दिया . मै चाहती हु की आप भी इस सरोद का लुफ्त ले.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

आज कुछ बचपन के दिनों की पुराने गाने याद करने का मन कर रहा है. जैसे जब हम बहुत छोटे थे तब एक भोजपुरी गाना था " छौडा पतरका रे मारे गुलेलवा जिया रा उड़ उड़ जाये , छौडी पतरकी रे मारे गुलेलवा जिया रा उड़ उड़ जाये....."इसे हम भाई बहन, सारे मौसेरे भाई बहन मिलकर छुटियो के दिनों में पटना में मौसी के छत पर खूब जोर -जोर से गया करते थे मिल - जुल कर और नचा भी करते थे . बड़े मजेदार थे वो दिन. कहा चले गए जब दुनिया के मारा मारी की कोई चिंता भी नहीं थी.

एक और गाना याद है उन दिनों का लोक गीत - " सिलौडी बिन चटनी कैसे पीसी ..." ये गाना गा कर सारे बड़े लोग फूस -फूस कर के हँसा करते थे मुझे आज तक नहीं समझ में आया क्यों हँसा करते थे. माँ मुझे डँटा करती थी इसे गाने से पर मै गाती रहती थी. बिना किसी परवाह के .
एक और बंगला गाना जो हम उन दिनों कोलकाता में खूब गाया करते थे -" एने दो रेशमी साडी , चोले जाबो बापेड बाडी..." यानि " मेरे लिए रेशमी साडी ला दो मै अपने बाप के घर चली जाउ गी. "दीदी बोले ........." और याद नहीं आ रहा है....
आज के लिए इतना ही ....

सोमवार, 7 सितंबर 2009

जूनियर अफसर

जूनियर अफसर ने सीनियर अफसर से कहा -
" सर , आप ने मगवाई है चाय तो पी ही लेता हूँ ,
क्योकि सवाल नौकरी, एसीआर का है
कही चली न जाये कुर्सी "

फिर थोडा रुक कर उसने कहा -
"सर , कुर्सी तो कही नहीं जाती हम ही चले जाते है
तबादले पर "

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

नेता, मीडिया -तुंरत चाहिए सब कुछ

हमारे देश में मीडिया , नेता एक सोच के तहत काम करते है. जैसे ही किसी को पार्टी से निकल दिया गया ,तत्काल उसे सभी संवैधानिक पद छोड़ देने चाहिए. जसवंत सिंह के मामले में भी यही हुआ. उन से पीएसी का पद छोड़ देने के लिए कहा जा रहा है. और उनोह ने टका सा जवाव भी बीजेपी को भेज दिया. मीडिया खुश ;उसे एक खबर मिल गयी .
पर क्षण भर के लिए मीडिया क्या कभी सोचता है रुक कर कि थोडा रुका जाये और देखा जाये कि घटना क्रम क्या रुख लेते है. फिर इसकी रिपोर्ट आम जनता को दी जाये. उसे तो बस हड़बड़ी पड़ी रहती है , कच्चा - पक्का परोसने की. किसी का पेट ख़राब हो तो हो.
नेताओ और पार्टी में भी सब्र नहीं कि, जिस व्यक्ति ने इतने दिनों तक पार्टी के लिए काम किया उसके बारे में थोडा रुक कर सोचे. , थोडा ठहर कर काम करे. तुंरत सन्देश भेजना है , इसी हड़बड़ी में सब रहते है , चाहे अंत में अपना टका सा मुह ले कर ही क्यों न रह जाना पड़े.

एक कविता- व्यवस्था

व्यवस्था के दरवाजे पर पंहुचा एक आदमी.
जो था व्यवस्ता का शिकार .
कुछ दिनों बाद खबर आयी
वो आदमी ,
व्यवस्था का
शातिर शिकारी बन गया

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

औरत के संघर्ष की कहानी

अभी एक बंगला फिल्म देखी " श्वेत पथरे थाला " यानि सफ़ेद पत्थर की थाली . इस फिल्म में अल्पना सेन , सब्यसाची ,इन्द्राणी हालदार ,रितुपर्ना भी है. फिल्म की कहानी इतनी जबरदस्त है कि मै इसे कोई दस साल पहले देखना चाहती थी .पर मौका ही हाथ नहीं लगा . आज जब देखा तो लगा औरतो का संघर्ष कितना लम्बा और कठिन था और हम इसे भूल कर सिर्फ कपडे -गहनों में अटक कर रह गए है. फिल्म में अल्पना सेन एक ऐसे बंगाली औरत का किरदार निभाती है जो अपने पति की मृत्यु के बाद अपने छोटे बेटे की खातिर रंगीन साडी पहनना शुरू करती है और इसका प्रतिरोध पूरे घर में होता है सिर्फ उसे अपनी ननद से समर्थन मिलता है. और कुछ उसके चाचा का . कुछ दिनों के बाद वह नौकरी करना शुरू देती है और अपने बेटे को पलना शुरू कर देती है. पर वक़्त है हसीं सितम देखिये कि बेटा एक अमीर लड़की के प्रेम में पड़ कर कर अपनी माँ को अपमानित करता है . अपने पेंटिंग के टीचर के साथ अपनी माँ का नाम अपने ससुराल वालो के सिखाने पर लगाने लगता है. इससे आहत हो कर उसकी माँ सब कुछ उसके नाम कर के एक अनाथ आश्रम में चली जाती है. ये कहानी एक औरत के संघर्ष की कहानी है , अपने आप को समय के अनुसार अपने को define करने की कहानी है, ये एक औरत के लगातार समय से jujhane की कहानी है .

जनता को चाहिए ....

"आग को पानी का खतरा होना चाहिए " वैसे ही बीजेपी को कांग्रेस से खतरा होना चाहिए और कांग्रेस को बीजेपी और दोनों को कम्युनिस्ट पार्टी से . इनके आपसी खतरे में ही जनतंत्र सुरक्षित रह सके गा. जनतंत्र में जनता के पास विकल्प होना चाहिए . अगर कोई भी पार्टी जनतंत्र में कमजोर पड़ती है तो दूसरी पार्टी निर्कुश हो जाती है. इसलिए जनता को चाहिए कि वो इन पार्टियों पर लगाम रखे . किसी को इतना अश्शवत नहीं होने दे कि वो अपने को आप का राजा समझने लगे.