बुधवार, 23 सितंबर 2009

महिला मुक्ति संगठनो की सच्चाई

आज जहा महिलाये हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है वही उनपर दूसरी और लगातार जद्तियो- अत्याचार की खबरे भी लगातार आ रही है . २००९ में जहा आई ए एस की सर्विस में महिला ब्रिगेड ने अपना परचम लहराया है तो वही दूसरी और रास्ट्रीय महिला आयोग ,विभिन्न राज्यों की महिला आयोगों, महिला अपराध सेल के समक्ष महिलाओ के खिलाफ बढती जद्तियो के आकडे भारत में महिलाओ की स्थिति के दो पहलू उजागर करते है. एक और जहा महिलाओ के प्रति समाज ,माँ- बाप का रवैया बदला है वही समाज में पूरी तरह से अपेक्षित बदलाव नहीं आये है . इस कारण जिसतरह के कामो के लिए महिलाओ को चुना जा रहा है उससे समाज का जो जटिल चेहरा उभरता है वो यही कहता है कि महिलाओ को स्थान तो मिल रहे है पर निर्णय लेने वाले पदों के लिए नहीं .इसी कारण मिस मेरठ तो प्रियंका तो चुन ली जाती है पर अपने मनपसंद के काम के लिए घर से बहार निकल कर शोषण के अंत हीन दलदल में वो फस जात है अंत में सम्पति के अधिकार के लिए बोखालाई प्रियंका के हटो माँ- बाप का खून हो जाता है . प्रियंका की कहानी तथाकथित आधुनिक महिलाओ के शोषण और हार की कहानी है और निक्कमी व्यवस्था ,दोहरे माप दंड के समाज की कहानी है. ये उन तामम महिला संगठनो और महिला आयोगों के निकामेपन की कहानी है जो उदित नारायण, मटुक नाथ या यू कहे हाई प्रोफाइल टीवी में प्रर्दशित केसों के लिए समय तो निकल लेती है पर जरूरतमंद लड़कियो को सब्र का पाठ पढ़ने के अलावा इनके पास कोई काम नहीं रहता.
पंचायती राज में भले ही महिलाओ को आरक्षण मिलगये हो ३३% तक और बिहार में तो ५०% आरक्षण दे दिए गए है ,पर महिला सरपंच का काम उनके पति -बेटा -पिता या घर का कोई पुरुष संभालता है ऐसी खबरे प्राय आती रहती है. ऐसा नहीं है कि यह समाचार सिर्फ पंचायत के दरवाजे से आते है राजनितिक, व्यावसायिक , पत्रकारिता, फिल्म हर तरह के पेशो से इस तरह कि सूचना आती रहती है. महिलाओ की तरक्की के पीछे उसकी परवारिक पृष्ठ भूमि का होना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. यही समाज का असली चेहरा है.
संसद में भी जो महिला आरक्षण की मांग पिछाले ११ वर्सो से टरकई जा रही है उसके पीछे भी पुरुष सांसदों की असुरक्षा की भावना काम कर रही है. वे सीट बढ़ने की बात मानने पर आरक्षण देने का इशारा तो कर रहे है पर जो सीटे अभी है उनमे से बटवारा नहीं चाहते. ये सिर्फ संसद की सच्चाई नहीं है वल्कि हमारे घरो की भी सच्चाई है. जहा हम अपनी बेटियो को अपने हिस्से से कुछ नहीं देना चाहते बल्कि अलग से कुछ देने पर विस्वास करते है. इसी कारण हम सहर्ष दहेज़ तो देना स्वीकार करते है पर सम्पति में उसका हक़ अभी तक अस्वीकार करते है.

यह लेख मेरा "ब्रेकिंग न्यूज़" नामक मासिक पत्रिका में "आइना" कालम में छपा था उसके पिछाले अंक में . उसी से साभार

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

आपका ये लेख सच के करीब है । सरकार भी महिलाओं से जुड़े किसी विज्ञापन में महिलाओं को रोता बिलखता ही क्यों दिखाती है समझ से परे है । कोई महिला संगठन किसी महिला के लिए लड़ सकता है,लेकिन उसका हक उसे खुद लेना पड़ेगा । best wishes

Bharrapuri ji ने कहा…

aaj mahilaa aarakchhan billpass hogya hai kyaa aap sansadon,ministeres aur manniyaa soniaa gandhi ji ko apnaa blog dikhane ki krpaa karengen .