बेटी बनाना एक ऐसा काम है जहाँ दायित्वा तो है पर दायित्व के साथ अधिकार नहीं है. बेटिया घर की इज्ज़त होती है , घर के अन्दर का सारा काम संभालती है, घर के बहार कैसे रहे, कैसे चले कि घरवालो की इज्ज़त बरक़रार रहे ये सब उसे सिखाया जाता है . घर पर आफत - विपत आने पर वे अपने गहने , नगदी, जमा - पूजी परिवार को सौप देती है. पर कभी प्रश्न नहीं कर सकती कि इन पैसो का क्या किया जाये गा? कभी परिवारवालों से नहीं मांग सकती कि आज उसे संपत्ति से कुछ चाहिए क्यों कि वो भी कुछ बनना चाहती है. ऐसा कर के वो परिवार की गरिमा को धक्का पहुचती है .
ऐसा सोच आज भी हमारे समाज में मौजूद है. उसके बुरे वक़्त में उसके दिए हुए गहने- रुपये उसे नहीं मिल पाते . ये एक कटु सच्चाई है आज भी हमारे समाज की . बेटे अगर सम्पति में हिस्सा मांगे तो समझ में आता है समाज के ठेकेदरो को पर बेटी अगर हिस्सा मागे तो नहीं समझ में आता है उनेह .तब उनेह लगता है कि कही कुछ गड़बड़ हो रहा है. ये तो समाज के पढ़े- लिखे सम्पन्न तबके की बात हो गयी.
आज भी समाज के अति गरीब तबके में माँ- बाप बेटियो को बेच देते है अपनी थोड़ी सी गरीबी थोड़े देर के लिए मिटने के लिए. उनेह मालूम है कि वे किस दल- दल में अपनी बेटी को धकेल रहे है पर न सरकार इस दिशा में कोई कड़े कदम उठती है न कोई स्वयं सेवी संगठन इस दिशा में कोई ठोस करवाई कर रही है. स्वयं सेवी संगठन सिर्फ सेमिनार करने तक खुद को व्यस्त रख रही है. अपने बच्चो को बेच देनेवालों का बचाव सरकार - मीडिया उनके गरीबी का हवाला देकर अपराध को हल्का करने की कोशिश करती है , उनेह गरीब माता पिता का ख्याल आता है, उस मासूम बच्चे का नहीं जो अब नरक से भी बदतर जीवन जीने के लिए धकेल दिया जा रहा है. इस अपराध के ज्यादातर शिकार लडकिया ही होती है. फिर यौन शोषण का लम्बा दौर शुरू हो जाता है उनके लिए . क्या ये मुद्दे घरेलु हिंसा कानून का हिस्सा नहीं बनने चाहिए ? ये बच्चिया तो यह भी नहीं जानती कि उनका क्या हक और मानवीय अधिकार है ? इन चीजो के लिए उनेह जागृत कौन करे गा? अभी तो हमारा पूरा मीडिया- समाज फैशन और स्टाइल सिखाने के पीछे लगा पड़ा है युवाओ और जनता को अधिकार के लिए जागृत करने की फुर्सत उसे कहा है ? फिर इस सब से निचले तबके और पिछड़े समाज की तो उसे और भी चिंता नहीं है. अगर चिंता जाता भी दी जाती है कागजो पर तो उन तक कौन पहुचायेगा जिन तक ये पहुचना चाहिए.
ऐसा नहीं है कि स्थिति स्याह और बुरी ही है ,बहुत सी लडकियो के माता - पिता अपनी बेटियो के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करते है और उनके बेहतर भविष्य की कल्पना करते है .पर अफ़सोस यह है कि ऐसे लोगो की संख्या समाज में कम है . आज भी लड़की को इस लिए पढाया जाता है कि उसके लिए एक अच्छा लड़का मिलजाए किसी तरह से , इस लिए नहीं कि लड़की का विकास हो , वो एक व्यक्ति की तरह उभर कर आये. उसे पहचान मिले.आज भी स्त्री की स्थिति शून्य इकाई की तरह है जिसकी कीमत वही होती है जिस इकाई के साथ वो जुड़ जाती है. माता -पिता को यही लगता है कि शादी के बाद ये बोझ रुपी बेटी दामाद के पास चली जाये . ६० - ७० के दशक में जब लडको ने अनपढ़ बीबी के बजाय पढ़ी - लिखी लडकियो को तरहीज देनी शुरू कर दी तो घरवाले दर से बेटियो को पढ़ने लगे कि दामाद घर पर बेटी को वापस न पटक जाये. तब से आज तक लडकियो की स्थिति में कोई बड़ा उलट फेर नहीं हुआ है , हा वे पढ़ी -लिखी जरूर हुई है ,हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बढ़ी है पर स्थिति शायद वही है - आज भी उसे भोग्या समझा जाता है. व्यक्ति से वक्तित्व तक का उसका सफ़र बहुत ही कटीला है.
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