मेरे जीवन के एक दशक के पत्रकारिता के पेशेवराना अनुभव में कभी एक दिन भी ऐसा नहीं आया कि मैंने वरिष्ठ किसी वरिष्ठ किसी आईपीएस अधिकारीको समारोह बीच में छोड़ कर अपना चाय का जूठा ग्लास उठा कर डस्टबीन ढूढ कर डालते देखा हो . अगर बात यही तक होती तो सिर्फ आश्चर्य प्रगट कर के रह जाती ये लिखने नहीं बैठती. हुआ यू की हमारे महिला प्रेस क्लब का सालाना सांस्कृतिक कार्यक्रम था. मेरे परिचित एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी निमंतरण पर आये थे . मेहमान नवाजी का फ़र्ज़ निभाते हुए हमने उनसे चाय - काफी पूछी, तो उनोह ने चाय ली , हमने भी चाय ली. थोडी देर बाद हम दोनों का ग्लास खाली हो गया . आदतानुसार मैंने चाय का खाली ग्लास कुर्सी के किनारे रखदिया कि समारोह के बाद उठ कर डस्टबिन में दाल दूगी, तभी वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉ. आदित्य आर्य ने मुझसे मेरा खाली ग्लास मागा. एक पल के लिए मै असमंजस में थी कि क्या करू . मेरे सोचते न सोचते उनोहो ने ग्लास मेरे हाथ से ले लिया और अपना ग्लास भी उठा कर कुर्सी से उठ पड़े , जब तक बात मेरे समझ में आती मेरे आखो के सामने से वो आगे निकल चुके थे और भीड़ में गुम हो गए . एक मिनट बाद मुझे लगा ये क्या हुआ , मैंने तब किसी को उनेह ढूढने के लिए भेजा, जब मेरा भेजा हुआ बन्दा वापस आया तो उसने मुझसे कहा - मैडम वो सिर्फ आप का नहीं बल्कि रस्ते में पड़े हुए खाली गिलासों को भी उठा कर डस्ट बीन में डाल रहे थे. मुझे समझ में नहीं आया कि मै क्या करू. अब मुझे लगा कि मुझे उठ ही जाना चाहिए और उनको ढूढ़ कर चेयर पर वापस बिठाना चाहिए. जैसे मै उठी सामने से डॉ. आदित्य आर्य को मुस्कुराते हुए आते देखा ,मेरी हट -भत बुद्धि को उस समय कुछ समझ में नहीं आया . एक तो वे मुझसे उम्र में काफी बड़े,फिर मेरे मेहमान . एक तरफ मुझे अन्दर से बहुत शर्मिंदगी मससूस हुई तो दूसरी तरफ उनके व्यक्तित्व के गौरवशाली मानवी पहलू से परिचित होने का अवसर भी मिला .
पूरे कार्यक्रम का आनंद ले कर जब वे जाने लगे तो मैंने गिलास एपिसोड के लिए उनसे मेरे तरफ से माफ़ी मांगी, तो उनोह ने कहा - आप तो छोटी बहन की तरह है. इसमें इतना क्या सोचा? इस बार फिर मै लाजवाव रह गयी. डॉ. आदित्य आर्य के बारे में मैंने उनके बैच मेट से काफी सुन रखा था कि वो बहुत धार्मिक और अध्यात्मिक किस्म के व्यक्ति है पर इतने मानवीय गुणों से भरे होगे ये नहीं पता था.
पर पूरे घटना क्रम से यह न समझ ले कि डॉ. आदित्य आर्य के अन्दर का पुलिस ढीला- ढाला है. जब मै उनेह वडाली बंधुओ से मिलवाने ले गयी तो फोटो खिचवाते वक़्त उनोहो ने सीधे तन कर खड़े होते हुए अपने कोटे का बटन लगते हुए कहा एक पुलिस अफसर को पुलिस अफसर दिखना भी चाहिए.
काश हमारे वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी इतने मानवीय सम्बेदाना से भर जाये तो समाज में बहुत सारी समस्याए खुद-बा -खुद ख़तम हो जाये. उनको मिल कर मुझे दिल्ली पुलिस के एक आईपीएस अधिकारी के साथ का एक अनुभव याद हो आया , घटना यह थी कि मुझे एक आवेदन उनको जमा करना था , आवेदन पढ़ कर उनोह ने कहा कि इस पर आप पुनः साइन कर के अपना पता लिख दे. मेरे पास लाल रंगा की स्याही वाली पेन थी , सामने उनके पेनो का भरा स्टैंड देखकर मैंने उनसे कहा कि क्या मै काला या नीला पेन ले लू. मेरा प्रश्न सुनकर उनोह ने मुझे इस तरह देखा मानो कितना बड़ा जुर्म कर दिया हो मैंने. उसी दृष्टि से देखते हुए उनोह ने कहा - आपके पास जो पेन है उसी से साइन करदे . पहली बार मुझे लगा कि अछूतों को कैसा लगता होगा सबरनो के बीच में .
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
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1 टिप्पणी:
पहली बार ही सही पर आपको एहसास तो हुआ
यह काफी है.
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