दिल्ली का विकास जिस तेजी के साथ हो रहा है उतनी ही तेजी के साथ इसकी समस्याए बढ़ती चली जा रही है. यहाँ अपने सुनहरे भविष्य की तलाश में हर कोई आता है , ये उनका हक है और दिल्ली को उनकी जरूरत भी है .पर बात यह है कि क्या सरकार दिल्ली या दिल्लिवासियो कि समस्यों को भाप प् रही है है पहले से . या ऐसा तो नहीं कि भाप कर भी नासमझ बनी हुई है. किसी भी सरकार की सफलता उसके नागरिको की समस्याओ को पहले से भाप कर उसके निपटारे में होता है. पर सरकार तो यहाँ जब समस्या सर पर आजाती है तब जा कर चेतती है. ज्यादातर समय तो सर पर आजाने पर भी नहीं चेताती. तीन बार दीली दरबार में अपनी जीत दर्ज करा चुकी शीला सरकार के दफ्तर में तो राम -राज्य चल रहा है. सभी उनके चेहते नौकरशाह . है किसी कि मजाल जो सरकार के खिलाफ कोई न्यूज़ देने कि जुर्रत कर सके?
कोमन वेअल्थ गेम कि तैयारी का आलम तो यह है कि अंतर -राष्ट्रीय स्तर पर से हमे डांट पड़ जाती है, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को गुहार लगाई जाती है कि वो आकर हस्तक्षेप करे . यह घटना विश्व समुदाय को क्या मेसेज भेजता है ? क्या हमारी अंतर -राष्ट्रीय स्तर कि साख को बट्टा नहीं लगता?
क्या दिल्ली इस अंतर -राष्ट्रीय स्तर के खेल के लिए पूरी तरह से तैयार हो रही है? सिर्फ कुछ खास - खास जगह के बस स्टैंड के पुराने मॉडल को हटा कर नए मॉडल के स्टील के बस स्टैंड लगा दिए या यू कहे खड़े कर दिए जा रहे है. इन नए चमकीले बस स्टैंड कि हालत यह है कि विकलांगो के लिए जो स्टैंड के साथ ढलान बनी है उससे कितनी बार दो पाव वाला आदमी भी फिसल कर गिर जाता है. गौर करने कि बात है कि विकलांग व्यक्ति उस बस स्टैंड कि ढलान तक कैसे पहुचे आसानी से ताकि वो बस पकड़ सके ? हमारे नौकरशाह जो विदेशो से मॉडल चुरा कर लाते है कभी इस बात पर गौर किया है कि ढलान के बाद जो फुटपाथ है वह किस लायक है कि जिसमे अच्छा - खासा आदमी भी ढंग से नहीं चल पता. विदेशो में एक सरल रेखा- सामान स्तर पर फुटपाथ और बस - स्टैंड बने होते है. हमारी दिल्ली की तरह नहीं. जिसे देख कर लगता है कि मानो रात को हनुमान जी ने आकर उस बस स्टैंड को गलती से वहा छोड़ दिया हो.
अ़ब दूसरी बात करे, सिर्फ दो -चार जगहों के बस स्टैंड सजा कर के दिल्ली का चेहरा चमकाने के बजाय पूरी दिल्ली के बारे में सोचा जाता जहाँ कही -कही तो समूचा बस स्टैंड ही नहीं है. पोश एरिया के पुराने बस स्टैंड को उखाड़ कर नए बस स्टैंड लगाने का जो खर्च आ रहा है दोनों मिला कर तो पुराने -पिछडे इलाके की दिल्ली का भला किया जा सकता था. ये हालत देख कर ऐसा लग रहा है कि "जिसके सर पर तेल होता है ,लोग उसके सर पर और तेल डालते है " वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. पोश इलाको की सडको का भी बहुत बेहतर हाल नहीं है. साउथ एक्स, डिफेन्स कालोनी की सड़के आपको हमेशा खुदी- फुदी मिल जायेगी . जिसे देख कर नहीं लगता की आप किसी पोश इलाके में घूम रहे है. दिल्ली में साउथ एक्स के बी ब्लाक का यह हाल है कि वहा की नाली हमेशा बहती रहती है जिसे देख कर किसी को भी लगेगा कि ये कोई गाँव है क्या या दिल्ली का कोई समृद्ध इलाका ? न्यू फ्रेंडस कालोनी में तो पिछाले एक -डेढ़ महीने से जो हड़प्पा - महान्जोदारो कि खुदाई चल रही है उस को अंत होने का नाम ही नहीं है सिर्फ नाली व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ये हाल है तो बड़े विकास कर्यकरामो का क्या होगा?
डेढ़ महीने से वहा कि जनता एक दूसरे से लड़- भीड़ कर गाड़ी - रिक्शा - साइकिल चला रही है,पैदल वालो का क्या कहे बेचारे हमेशा ही रोते रह जाते है.
अब बात करे यहाँ के दिल्ली निवासियो की क्या वे आने वाले विदेशी मेहमानों का दिल जितने की तैयारी कर रहे है या उनेह लूटने की ? जैसा अनुभव ले कर हमारे विदेशी मेहमान यहाँ से जायेगे उस पर ही हमारी छवि और पर्यटन विभाग की छवी निर्भर और उसकी भविष्य में होनेवाली कारोबार निर्भर करती है. क्या हम अपने दिल्लिवासियो को कुछ मंत्र नहीं दे सकते जिससे कि वो इन विदेशी मेहमानों के दिल पर छा जाने का काम करे और दिल्ली के लिए पर्यटन के दरवाजे खोल दे . और कई लोगो को रोजगार भी उपलब्ध करवा सके. पर जिस तरह से स्थानीय दिल्ली निवासी बाहर से आये छात्रों से साथ बदसलूकी करते है किराये और सुबिधा के लिए उसे देख कर तो नहीं लगता कि हम विदेशी मेहमानों का दिल जीत सके गे और अपनी साख बना सके गे.
और अंत में दिल्ली पुलिस की भूमिका - क्या पुलिस इतने बड़े कार्यकर्म के लिए सबेदनशील तरीके से तैयार हो रही है. छोटे व्यापारियो की तो वो हर समय माँ - बहन एक करने में लगे रहते है. उनसे रिश्वत भी लेते है. ये मौका उन बेचारो के लिए भी कमाने का है सिवाय कि बड़ी मछलियो के क्या उनको सही से तरह से वे संभल सकेगे. आम जनता के साथ पुलिस का व्यहवार कैसा रहता है उस पर मै कोई टिपण्णी नहीं करना चाहती हु. पर विदेशो में पुलिस का रोल मददगार का होता है यहाँ एक हक्नेवाले गरेडिया का . क्या इस भूमिका में कुछ बदलाव लाया जा सके गा.
और एक बात जहा गुंड होगा मख्खिया तो आयेगी ही. विदेशियों को देख कर अगल बगल के राज्यों से चोर - उचक्कों -बदमाशो का भी खतरा बढ़ जाये गा. उससे पुलिस कैसे निपटने कि तैयारी कर रही है? क्या इन सभी संभावित राज्यों से पुलिस का तालमेल अच्छा है? इन सब बातो पर धयान दिए बिना तो दिल्ली कि छवी सुधरने से रही.
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
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