शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

मंदी के दौर में महिलाये

आये हुए इस मंदी के दौर ने जहाँ सभी विश्व- व्यापार जगत को प्रभवित किया है वही छोटे - छोटे बसेरो और घरेलू महिलाओ को भी बुरी प्रभावित किया है.साहित्य और कला जगत से जुड़े लोग इस दौर को कैसे देखते है और इनकी व्याख्या कैसे करते है इससे हमे मंदी को अलग तरीके से समझने में मदद मिलती है . कवियत्री और संबेदनशील लेखिका अनामिका के शब्दों में मंदी के इस दौर में मीडिया द्वारा बनाई " सुपर माँ " की भूमिका में कैद "आम माँ " मंदी की मार में ज्यादा से ज्यादा सामान खरीदने में असक्षम हो रही है और घर में बच्चो के गुस्से का शिकार हो रही है . मीडिया ने आज "सुपर माँ " की छवी ऐसी बना दी है जिसका अर्थ सफल माँ होने का पर्याय वही माँ है जो सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सामान और घर के लिए साजो -सामान की वस्तु उपलब्ध करवा सके. इसमें भावना और संवेदना के लिए जगह बहुत कम पड़ गयी है. . पति, बेटा और परिवार के अन्य पुरुषों के लिए भी वो " बाक्सिंग की पंचिंग बैग " की तरह है जिनपर घर के पुरुष अपना गुस्सा ,क्षोभ, बाहर का गुस्सा निकलते है . इन हालातो में जब घरेलू महिलाये घर के बजट से जूझ रही है उसी समय घर के पुरुषों का अतिरिक्त दबाब भी उनेह झेलना पड़ जा रहा है क्योकि मंदी की मार झेल रहे पुरुष कारोबार की परेशानिया घर आ कर स्त्रियों पर ही निकलते है. अनामिका के इस कथन पर अगर गौर करे तो पाएगे कि मध्यवर्ग की महिलाये अपने जीवन स्तर और बजट की कमी के बीच लगातार संतुलन बनाने का युद्घ लड़ रही है.
वही लेखिका कमल कुमार मंदी से जूझती कारपोरेट जगत की महिलाओ की कशमकश बताते हुए कहती है कि मंदी के इस दौर में अच्छे से अच्छे पदों पर कार्यरत महिलाए या तो अपनी नौकरीयां गवा बैठी है, या उनकी सैलरी कम कर दी गयी है , या उनकी बोनस - पदौनात्ति रोक दिया गया है, ऐसे हालत में जिन्होंने क़र्ज़ पर घर ,मकान ,गाड़ी या घर की अन्य जरूरी वस्तुओ को लिया है उनके लिए बड़ी विकट समस्या हो गयी है बजट में संतुलन बैठना. जो महिलाये फॅमिली प्लानिंग के कारण माँ बनाने के लिए नौकरी छोड़ कर सिर्फ अपने पति की कमाई के भरोसे घर बैठ गयी है उनकी परेशानी के बारे में हम कल्पना भी नहीं कर सकते. कमल जी कहती है कि ये सब उनका आँखों देखा हाल है, कोई सुनी सुनाई बात नहीं. उनके परिचित एक परिवार है जिसमे पति को रात गए देर तक काम करना पड़ रहा है सिर्फ अपनी नौकरी बचाने के लिए. प्रमोशन रोक दिया गया है, ऐसी स्थिति में घर की गृहदी पर जो मानसिक दबाव पड़ रहा है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती. एक अनिश्चतता की तलवार घर की स्त्री पर लगातार टगी रहती है. ऐसे में परिवार एक नाहक मानसिक दवाव में लगातार जी रहा है. कमल जी के अनुसार विदेशो में अब मंदी के असर के कम हो जाने पर वहां कर्मचारियो की सैलरी बढा दी जा रही है, वही भारत में अभी तक सकारात्मक करवाई नहीं शुरू की गयी है इस कारण बहुत सारे गैजरूरी समस्याए अभी भी हमारे समाज और पारिवारिक जीवन का हिस्सा बने हुए है.
गाँधी गुजरात विद्यापीठ ,अहमदाबाद में गुजराती भाषा की विभाग प्रमुख श्रीमती उषा उपाध्याय गुजरात में डायमंड व्यवसाय से जुड़े कई गरीब मजदूरो और उनकी स्त्रीओ की व्यथा बताती है कि वहां मजदूर सपरिवार आत्महत्या कर रहा है जिस कारण महिला भी इस अस्मिक त्रादसी का शिकार सपरिवार हो रही है.वही सिक्के का दूसरा पहलू उजागर करते हुए बताती है कि गुजरात में कारपोरेट क्षेत्रो में महिला कर्मचारियों की कार्यनिष्ठा और कर्त्व्यप्रनता के कारण उन्हें नौकरियो से कम निकला जा रहा है.उनकी ईमानदारी के कारण वे पुरुषों की तुलना में कारपोरेट क्षेत्रो की पहली पसंद बनी हुई है . पर उषा जी की बातो का दूसरा निष्कर्ष यह भी निकलता है कि महिलाये अपना पारिवारिक जीवन दावं पर लगा कर अपनी नौकरी बचा रही है. धोखा और गडबडी कम करने के कारण वे कारपोरेट दुनिया कि पहली पसंद बनी हुई है.
"महिला लेखिकाओ पर क्या मंदी का असर पड़ा है " इस पर राजकमल प्रकाशन समूह के कर्ताधर्ता श्री अशोक महेश्वरी का कहना है कि चूकि हिंदी का पाठक वर्ग काफी समृद्ध परिवार से नहीं होकर आम जनता होती है इस कारण उनके व्यवसाय पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा है. चूकि "महिला लेखिका " जैसी अलग श्रेणी विभाजन वे नहीं करते, इस कारण वे इस बारे में कुछ अलग से नहीं कह सकते. अशोक जी ने कहा कि हिंदी आज उन्नति कर रही है , पहले "मॉल" वगेरा में हिंदी की किताबे नहीं रखी जाती थी पर आज हिंदी की किताबे अग्रेजी की किताबो के साथ प्रतियोगिता कर रही है. इस कारण इसमें गुणवत्ता की दृष्टी से काफी बदलाव आये है.

मंदी के इस दौर में दिल्ली में छोटा सा भी सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने में जब खून - पसीना एक हो जा रहा है तब उस समय अंतररास्ट्रीय स्तर का १२ दिवसीय ,२०० से भी अधिक कार्यक्रमों के साथ २३ स्थानों पर देशी-विदेशी कलाकारों के साथ एक साथ प्रस्तुत होना जिसमे सयुक्त राष्ट्रमंडल देशो के कलाकार भी शरीक कर रहे हो आसान काम नहीं है. पर इस असंभव काम को संभव कर दिखाया है प्रतिभा प्रह्लाद और अर्शिया सेठी की जोड़ी ने बिना किसी सिकन और गडबडी के . जब प्रतिभा जी से पूछा गया कि यह काम कैसे संभव हुआ इस मंदी के दौर में तो वे सहजता से कहती है कि इन तीन सालो में वे और अर्शिया लोगो तक शायद ये बात पहुचने में सफल हुए है कि वे भारत को विश्व के संस्कृतिक- कैलेंडर में स्थापित करना चाहते है. आगे प्रतिभा जी कहती है कि एक बार अगर कोई अपने मन से अहम् निकल कर काम के प्रति समर्पित हो जाये तो सरकार, नौकरशाह,उद्योगपति , सीइओ ,स्वयंसेवक,सहयोगी सभी आपके लिए काम करने के लिए तात्पर्य हो जायेगे.

1 टिप्पणी:

Rajeysha ने कहा…

वाकई हर दौर में महिलाओं के बारे में सोचा जाना चाहि‍ये... ये काम खुद महि‍लाएं महि‍लाओं के लि‍ये ज्‍यादा बेहतर तरीके से कर सकती हैं।